MP Board Class 11th General Hindi हिन्दी साहित्य का इतिहास

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निबंध का उदय

आधुनिक युग को गद्य की प्रतिस्थापना का श्रेय जाता है। जिस विश्वास, भावना और आस्था पर हमारे युग की बुनियाद टिकी थी उसमें कहीं न कहीं अनास्था, तर्क और विचार ने अपनी सेंध लगाई। कदाचित् यह सेंध अपने युग की माँग थी जिसका मुख्य साधन गद्य बना। यही कारण है, कवियों ने गद्य साहित्य में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।

हिंदी गद्य का आरम्भ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। वह कविता के क्षेत्र में चाहे परम्परावादी थे पर गद्य के क्षेत्र में नवीन विचारधारा के पोषक थे। उनका व्यक्तित्व इतना समर्थ था कि उनके इर्द-गिर्द लेखकों का एक मण्डल ही बन गया था। यह वह मण्डल था जो हिंदी गद्य के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हिंदी गद्य के विकास में दशा और दिशा की आधारशिला रखने वालों में इस मण्डल का अपूर्व योगदान है। इन लेखकों ने अपनी बात कहने के लिए निबंध विधा को चुना।

निबंध की व्युत्पत्ति, स्वरूप एवं परिभाषा

निबंध की व्युत्पत्ति पर विचार करने पर पता चलता है कि ‘नि’ उपसर्ग, ‘बन्ध’ धातु और ‘धर्म प्रत्यय से यह शब्द बना है। इसका अर्थ है बाँधना। निबंध शब्द के पर्याय के रूप में लेख, संदर्भ, रचना, शोध प्रबंध आदि को स्वीकार किया जाता है। निबंध को हिंदी में अंग्रेजी के एसे और फ्रेंच के एसाई के अर्थ में ग्रहण किया जाता है जिसका सामान्य अर्थ प्रयत्न, प्रयोग या परीक्षण कहा गया है।

निबंध की भारतीय व पाश्चात्य परिभाषाएँ कोशीय अर्थ।

‘मानक हिंदी कोश’ में निबंध के संबंध में यह मत प्रकट किया गया है-“वह विचारपूर्ण विवरणात्मक और विस्तृत लेख, जिसमें किसी विषय के सब अंगों का मौलिक और स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया हो।”

हिंदी शब्द सागर’ में निबंध शब्द का यह अर्थ दिया गया है- ‘बन्धन वह व्याख्या है जिसमें अनेक मतों का संग्रह हो।”

पाश्चात्य विचारकों का मत

निबंध शब्द का सबसे पहले प्रयोग फ्रेंच के मांतेन ने किया था, और वह भी एक विशिष्ट काव्य विधा के लिए। इन्हें ही निबंध का जनक माना जाता है। उनकी रचनाएँ आत्मनिष्ठ हैं। उनका मानना था कि “I am myself the subject of my essays because I am the only person whom I know best.”

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अंग्रेजी में सबसे पहले एस्से शब्द का प्रयोग बेकन ने किया था। वह लैटिन । भाषा का ज्ञाता था और उसने इस भाषा में अनेक निबंध लिखे। उसने निबंध कोबिखरावमुक्त चिन्तन कहा है।

सैमुअल जॉनसन ने लिखा, “A loose sally of the mind, an irregular, .. undigested place is not a regular and orderly composition.” “निबंध मानसिक जगत् की विशृंखल विचार तरंग एक असंगठित-अपरिपक्व और अनियमित विचार खण्ड है। निबंध की समस्त विशेषताएँ हमें आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में दी गई इस परिभाषा में मिल जाती है, “सीमित आकार की एक ऐसी रचना जो किसी विषय विशेष या उसकी किसी शाखा पर लिखी गई हो, जिसे शुरू में परिष्कारहीन अनियमित, अपरिपक्व खंड माना जाता था, किंतु अब उससे न्यूनाधिक शैली में लिखित छोटी आकार की संबद्ध रचना का बोध होता है।”

भारतीय विचारकों का मत

आचार्य रामचंद्र शक्ल-आचार्य रामचंद्र शक्ल ने निबंध को व्यवस्थित और मर्यादित प्रधान गद्य रचना माना है जिसमें शैली की विशिष्टता होनी चाहिए, लेखक का निजी चिंतन होना चाहिए और अनुभव की विशेषता होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त लेखक के अपने व्यक्तित्व की विशिष्टता भी निबंध में रहती है। हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंध की परिभाषा देते हुए लिखा, “आधुनिक पाश्चात्य लेखकों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता है। बात तो ठीक है यदि ठीक तरह से समझी जाय। व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिए विचारकों की श्रृंखला रखी ही न जाए या जान-बूझकर जगह-जगह से तोड़ दी जाए जो उनकी अनुमति के प्रकृत या लोक सामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकस वालों की सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराये जाएँ, जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के सिवाय और कुछ न हो।”

बाबू गुलाब राय-बाबू गुलाबराय ने भी निबंध में व्यक्तित्व और विचार दोनों को आवश्यक माना है। वे लिखते हैं- “निबंध उस गद्य रचना को कहते हैं जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छंदता, सौष्ठव, सजीवता तथा अनावश्यक संगति और संबद्धता के साथ किया गया हो।”

निबंध की परिभाषाओं का अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निबंध एक गद्य रचना है। इसका प्रमुख उद्देश्य अपनी वैयक्तिक अनुभूति, भावना या आदर्श को प्रकट करना है। यह एक छोटी-सी रचना है और किसी एक विषय पर लिखी गई क्रमबद्ध रचना है। इसमें विषय की एकरूपता होनी चाहिए और साथ ही तारतम्यता भी। यह गद्य काव्य की ऐसी विधा है जिसमें लेखक सीमित आकार में अपनी भावात्मकता और प्रतिक्रियाओं को प्रकट करता है।

निबंध के तत्त्व

प्राचीन काल से आज तक साहित्य विधाओं में अनेक बदलाव आए हैं। साधारणतः निबंध में निम्नलिखित तत्त्वों का होना अनिवार्य माना गया है
1. उपयुक्त विषय का चुनाव-लेखक जिस विषय पर निबंध लिखना चाहता है उसे सबसे पहले उपयुक्त विषय का चुनाव करना चाहिए। इसके लिए उसे पर्याप्त सोच-विचार करना चाहिए। निबंध का विषय सामाजिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक आर्थिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, साहित्यिक, वस्तु, प्रकृति-वर्णन, चरित्र, संस्मरण, भाव, घटना आदि में से किसी भी विषय पर हो सकता है, किंतु विषय ऐसा होना चाहिए कि जिसमें लेखक अपना निश्चित पक्ष व दृष्टिकोण भली-भाँति व्यक्त कर सके।

2. व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति-निबंध में निबंधकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति दिखनी चाहिए। मोन्तेन ने निबंधों पर निजी चर्चा करते हुए लिखा है, “ये मेरी भावनाएँ हैं, इनके द्वारा मैं स्वयं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ।” भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही विचारकों ने निबंध लेखक के व्यक्तित्व के महत्त्व को स्वीकार किया है। निबंध लेखक की आत्मीयता और वैयक्तिकता के कारण ही विषय के सम्बन्ध में निबंधकार के विचारों, भावों और अनुभूति के आधार पर पाठक उनके साथ संबद्ध कर पाता है। इस प्रकार निबंधकार के व्यक्तित्व को निबंध का केंद्रीय गुण कहा जाता है।

3. एकसूत्रता-निबंध बँधी हुई एक कलात्मक रचना है। इसमें विषयान्तर की संभावना नहीं होती, इसलिए निबंध के लिए आवश्यक है कि निबंधकार अपने विचारों को एकसूत्रता के गुण से संबद्ध करके प्रस्तुत करता है। निबंध के विषय के मुख्य भाव या विचार पर अपनी दृष्टि डालते हुए निबंधकार तथ्यों को उसके तर्क के रूप में प्रस्तुत करता है। इन तर्कों को प्रस्तुत करते हुए निबंधकार को यह ध्यान रखना पड़ता है कि तथ्यों और तर्कों के बीच अन्विति क्रम बना रहे। कई निबंधकार निबंध लिखते समय अपनी भाव-तरंगों पर नियन्त्रण नहीं रख पाते, ऐसे में वह विषय अलग हो जाता है। वस्तुतः लेखक का कर्तव्य है कि वह विषयान्तर न हो। अगर विषयान्तर हो भी गया तो उसे इधर-उधर विचरण कर पुनः अपने विषय पर आना ही पड़ेगा। निबंधकार को अपने अभिप्रेत का अंत तक बनाए रखना चाहिए।

4. मर्यादित आकार-निबंध आकार की दृष्टि से छोटी रचना है। इस संदर्भ में हर्बट रीड ने कहा है कि निबंध 3500 से 5000 शब्दों तक सीमित किया जाना चाहिए। वास्तव में निबंध के आकार के निर्धारण की कोई आवश्यकता नहीं है। निबंध विषय के अनुरूप और सटीक तर्कों द्वारा लिखा जाता है। लेखक अपने विचार भावावेश के क्षणों में व्यक्त करता है। ऐसे में वह उसके आकार के विषय में सोचकर नहीं चलता। आवेश के क्षण बहुत थोड़ी अवधि के लिए होते हैं, इसलिए निश्चित रूप से निबंध का आकार स्वतः ही लघु हो जाता है। इसमें अनावश्यक सूचनाओं को कोई स्थान नहीं मिलता।

5. स्वतःपूर्णता-निबंध का एक गुण या विशेषता है कि यह अपने-आप में पूर्ण होना चाहिए। निबंधकार का दायित्व पाठकों को निबंध में चुने हुए विषय की समस्त जानकारी देना है। यही कारण है कि उसे विषय के पक्ष और विपक्ष दोनों पर पूर्णतः विचार करना चाहिए। विषय से संबंधित कोई ज्ञान अधूरा नहीं रहना चाहिए। जिस भाव या विचार या बिंदु को लेकर निबंधकार निबंध लिखता है, निबंध के अंत तक पाठक के मन में संतुष्टि का भाव जागृत होना चाहिए। अगर पाठक के मन में किसी तरह का जिज्ञासा भाव रह जाता है तो उस निबंध को अपूर्ण माना जाता है और इसे निबंध के अवगुण के रूप में शुमार कर लिया जाएगा।

6. रोचकता-निबंध क्योंकि एक साहित्यिक विधा है इसलिए इसमें रोचकता का तत्त्व निश्चित रूप से होना चाहिए। यह अलग बात है कि निबंध का सीधा संबंध बुद्धि तत्त्व से रहता है। फिर इसे ज्ञान की विधा न कहकर रस की विधा कहा जाता है, इसलिए इसमें रोचकता होनी चाहिए, ललितता होनी चाहिए और आकर्षण होना चाहिए। निबंध के विषय प्रायः शुष्क होते हैं, गंभीर होते हैं या बौद्धिक होते हैं।

अगर निबंधकार इन विषयों को रोचक रूप में पाठक तक पहुँचाने में समर्थ हो जाता है तो इसे निबंध की पूर्णता और सफलता कहा जाएगा।

निबंध के भेद

निबंध के भेद, इसके लिए अध्ययन किए गए हैं। विषयों की विविधता से देखा जाए तो इन्हें सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। अतः निबंध लेखन का विषय दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। विद्वानों ने निबंधों का वर्गीकरण तो अवश्य किया है पर यह वर्गीकरण या तो वर्णनीय विषय के आधार पर किया है या फिर उसकी शैली के आधार पर। निबंध का सबसे अधिक प्रचलित वर्गीकरण यह है

1. वर्णनात्मक-वर्णनात्मक निबंध वे कहलाते हैं जिनमें प्रायः भूगोल, यात्रा, ऋतु, तीर्थ, दर्शनीय स्थान, पर्व-त्योहार, सभा- सम्मेलन आदि विषयों का वर्णन किया जाता है। इनमें दृश्यों व स्थानों का वर्णन करते हुए रचनाकार कल्पना का आश्रय लेता है। ऐसे में उसकी भाषा सरल और सुगम हो जाती है। इसमें लेखक निबंध को रोचक बनाने में पूरी कोशिश करता है।

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2. विवरणात्मक-इस प्रकार के निबंधों का विषय स्थिर नहीं रहता अपितु गतिशील रहता है। शिकार वर्णन, पर्वतारोहण, दुर्गम प्रदेश की यात्रा आदि का वर्णन जब कलात्मक रूप से किया जाता है तो वे निबंध विवरणात्मक निबंधों की शैली में स्थान पाते हैं। विवरणात्मक निबंधों में विशेष रूप से घटनाओं का विवरण अधिक होता है।

3. विचारात्मक-इस प्रकार के निबंधों में बौद्धिक चिन्तन होता है। इनमें दर्शन, अध्यात्म, मनोविज्ञान आदि विषयगत पक्षों का विवेचन किया जाता है। लेखक अपने अध्ययन व चिन्तन के अनुरूप तर्क-शितर्क और खण्डन का आश्रय लेते हुए विषय का प्रभावशाली विवेचन करता है। इनमें बौद्धिकता तो होती ही है साथ ही भावना और कला कल्पना का समन्वय भी होता है। ऐसे निबंधों में लेखक आमतौर पर तत्सम शैली अपनाता है। समासिकता की प्रधानता भी होती है।

4. भावात्मक-इस श्रेणी में उन निबंधों को स्थान मिलता है जो भावात्मक विषयों पर लिखे जाते हैं। इन निबंधों का निस्सरण हृदय से होता है। इनमें रागात्मकता होती है इसलिए लेखक कवित्व का भी प्रयोग कर लेता है। अनुभूतियाँ और उनके उद्घाटन की रसमय क्षमता इस प्रकार के निबंध लेखकों की संपत्ति मानी जाती हैं। वस्तुतः कल्पना के साथ काव्यात्मकता का पुट इन निबंधों में दृश्यमान होता है।

वर्गीकरण अनावश्यक

गौर से देखा जाए तो इन चारों भेदों की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि ये निबंध लेखन की शैली हैं। इन्हें वर्गीकरण नहीं कहा जाना चाहिए। अगर कोई कहता है कि वर्णनात्मक निबंध है या दूसरा कोई कहता है कि विवरणात्मक निबंध है तो यह शैली नहीं है तो और क्या है?

वस्तुतः इन्हें विचारात्मक निबंध की श्रेणी में रखा जा सकता है। विचारात्मक निबंधों का विषय मानव जीवन का व्यापक कार्य क्षेत्र है और असीम चिंतन लोक है। इसमें धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान आदि विषयों का गंभीर विश्लेषण होता है। इसे निबंध का आदर्श भी कहा जा सकता है। इसमें निबंधकार के गहन चिंतन, मनन, सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि और विशद ज्ञान का स्पष्ट रूप देखने को मिलता है। इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है, “शुद्ध विचारात्मक निबंधों का वहाँ चरम उत्कर्ष नहीं कहा जा सकता है जहाँ एक-एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर.टूंसे गए हों, और एक-एक वाक्य किसी विचार खण्ड को लिए हुए हो।’

आचार्य शुक्ल ने अपने निबंधों में स्वयं इस शैली का बखूबी प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इस प्रकार के अनेक निबंध लिखे हैं जिनमें उनके मन की मुक्त उड़ान को अनुभव किया जा सकता है। इन निबंधों में उनकी व्यक्तिगत रुचि और अरुचि का प्रकाशन है। नित्य प्रति के सामान्य शब्दों को अपनाते हुए बड़ी-बड़ी बातें कह देना द्विवेदीजी की अपनी विशेषता है। व्यक्तिगत निबंध जब लेखक लिखता है तो उसका संबंध उसके संपूर्ण निबंध से होता है। आचार्यजी के इसी प्रकार के निबंध ललित निबंध कहलाते रहे हैं। आचार्यजी ने स्वयं कहा है, “व्यक्तिगत निबंधों का लेखन किसी एक विषय को छेड़ता है किंतु जिस प्रकार वीणा के एक तार को छेड़ने से बाकी सभी तार झंकृत हो उठते हैं उसी प्रकार उस एक विषय को छुते ही लेखक की चित्तभूमि पर बँधे सैकड़ों विचार बज उठते हैं।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल व्यक्तित्व व्यंजना को निबंधों का आवश्यक गुण मानते हैं। उन्होंने वैचारिक गंभीरता और क्रमबद्धता का समर्थन किया है। आज हिंदी में दो ही प्रकार के प्रमुख निबंध लिखे जा रहे हैं, “व्यक्तिनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ। यों निबंध का कोई भी विषय हो सकता है। साहित्यिक भी हो सकता है और सांस्कृतिक भी। सामाजिक भी और ऐतिहासिक आदि भी। वस्तुतः कोई भी निबंध केवल वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता और न ही व्यक्तिनिष्ठ हो सकता है। निबंध में कभी चिंतन की प्रधानता होती है और कभी लेखक का व्यक्तित्व उभर आता है।”

निबंध शैली

वस्तुतः निबंध शैली को अलग रूप में देखने की परम्परा-सी चल निकली है अन्यथा निबंधों का व करण निबंध शैली ही है। लेखक की रचना ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। शैली ही उसके व्यक्तित्व की पहचान होती है। एक आलोचक ने शैली के बारे में कहा है कि जितने निबंध हैं, उतनी शैलियाँ हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि निबंध लेखन में लेखक के निजीपन का पूरा असर पड़ता है। निबंध की शैली से ही किसी निबंधकार की पहचान होती है क्योंकि एक निबंधकार की शैली दूसरे निबंधकार से भिन्न होती हैं।

मुख्य रूप से निबंध की निम्न शैलियाँ कही जाती हैं-
1. समास शैली-इस निबंध शैली में निबंधकार कम से कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषय का प्रतिपादन करता है। उसके वाक्य सुगठित और कसे हुए होते हैं। गंभीर विषयों के लिए इस शैली का प्रयोग किया जाता है।

2. व्यास शैली-इस तरह के निबंधों में लेखक तथ्यों को खोलता हुआ चला जाता है। उन्हें विभिन्न तर्कों और उदाहरणों के ज़रिए व्याख्यायित करता चला जाता है। वर्णनात्मक, विवरणात्मक और तुलनात्मक निबंधों में निबंधकार इसी प्रकार की शैली का प्रयोग करता है।

3. तरंग या विक्षेप शैली-इस शैली में निबंधकार में एकान्विति का अभाव रहता है। इसमें निबंधकार अपने मन की मौज़,में आकर बात कहता हुआ चलता है पर विषय पर केंद्रित अवश्य रहता है।

4. विवेचन शैली-इंस निबंध शैली में लेखक तर्क-वितर्क के माध्यम से प्रमाण पुष्टि और व्याख्या के माध्यम से, निर्णय आदि के माध्यम से अपने विषय को बढ़ाता हुआ चलता है। इस शैली में लेखक गहन चिंतन के आधार पर अपना कथ्य प्रस्तुत करता चला जाता है। विचारात्मक निबंधों में लेखक इस शैली का प्रयोग करता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध इसी प्रकार की शैली के अन्तर्गत माने जाते हैं।

5. व्यंग्य शैली-इस शैली में निबंधकार व्यंग्य के माध्यम से अपने विषयों का प्रतिपादन करता चलता है। इसमें उसके विषय धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि भी हो सकते हैं। इसमें रचनाकार किंचित हास्य का पुट देकर विषय को पठनीय बना देता है। शब्द चयन और अर्थ के चमत्कार की दृष्टि से इस शैली का निबंधकारों में विशेष प्रचलन है। व्यंग्यात्मक निबंध इसी शैली में लिखे जाते हैं।

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6. निगमन और आगमन शैली-निबंधकार अपने विषय का प्रतिपादन करने । की दृष्टि से निगमन शैली और आगमन शैली का प्रयोग करता है। इस प्रकार की शैली में लेखक पहले विचारों को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है। तद्उपरांत उस सूत्र के अन्तर्गत पहले अपने विचारों की विस्तार के साथ व्याख्या करता है। बाद में सूत्र रूप में सार लिख देता है। आगमन शैली निनन शैली के विपरीत होती है। इसके अतिरिक्त निबंध की अन्य कई शैलियों को देखा जा सकता है, जैसे प्रलय शैली। इस प्रकार की शैली में निबंधकार कुछ बहके-बहके भावों की अभिव्यंजना करता है। कुछ लेखकों के निबंधों में इस शैली को देखा जा सकता है। भावात्मक निबंधों के लिए कुछ निबंधकार विक्षेप शैली अपनाते हैं। धारा शैली में भी कुछ निबंधकार निबंध लिखते हैं। इसी प्रकार कुछ निबंधकारों ने अलंकरण, चित्रात्मक, सूक्तिपरक, धाराप्रवाह शैली का भी प्रयोग किया है। महादेवी वर्मा की निबंध शैली अलंकरण शैली है।

हिंदी निबंध : विकास की दिशाएँ
हिंदी गद्य का अभाव तो भारतेंदुजी से पूर्व भी नहीं था, पर कुछ अपवादों तक सीमित था। उसकी न तो कोई निश्चित परंपरा थी और न ही प्रधानता। सन् 1850 के बाद गद्य की निश्चित परंपरा स्थापित हुई, महत्त्व भी बढ़ा। पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क में आने पर हिंदी साहित्य भी निबंध की ओर उन्मुख हुआ। इसीलिए कहा जाता है कि भारतेंदु युग में सबसे अधिक सफलता निबंध लेखन में मिली। हिंदी निंबध साहित्य को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • भारतेंदुयुगीन निबंध,
  • द्विवेदीयुगीन निबंध,
  • शुक्लयुगीन निबंध
  • शुक्लयुगोत्तर निबंध एवं
  • सामयिक निबंध-1940 से अब तक।

भारतेंदुयुगीन निबंध-भारतेंदु युग में सबसे अधिक सफलता निबंध में प्राप्त हुई। इस युग के लेखकों ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से निबंध साहित्य को संपन्न किया! भारतेंदु हरिश्चंद्र से हिंदी निबंध का आरंभ माना जाना चाहिए। बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र ने इस गद्य विधा को विकसित एवं समृद्ध किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन दोनों लेखकों को स्टील और एडीसन कहा है। ये दोनों हिंदी के आत्म-व्यंजक निबंधकार थे। इस युग के प्रमुख निबंधकार हैं-भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, लाला श्री निवासदास, राधाचरण गोस्वामी, काशीनाथ खत्री आदि। इन सभी निबंधकारों का संबंध किसी-न-किसी पत्र-पत्रिका से था। भारतेंदु ने पुरातत्त्व, इतिहास, धर्म, कला, समाज-सुधार, जीवनी, यात्रा-वृत्तांत, भाषा तथा साहित्य आदि अनेक विषयों पर निबंध लिखे। प्रतापनारायण मिश्र के लिए तो विषय की कोई सीमा ही नहीं थी। ‘धोखा’, ‘खुशामद’, ‘आप’, ‘दाँत’, ‘बात’ आदि पर उन्होंने अत्यंत रोचक निबंध लिखे। बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु युग के सर्वाधिक समर्थ निबंधकार हैं। उन्होंने सामयिक विषय जैसे ‘बाल-विवाह’, ‘स्त्रियाँ और उनकी शिक्षा’ पर उपयोगी निबंध लिखे। ‘प्रेमघन’ के निबंध भी सामयिक विषयों पर टिप्पणी के रूप में हैं। अन्य निबंधकारों का महत्त्व इसी में है कि उन्होंने भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र के मार्ग का अनुसरण किया।

द्विवेदीयुगीन निबंध-भारतेंदु युग में निबंध साहित्य की पूर्णतः स्थापना हो गई थी, लेकिन निबंधों का विषय अधिकांशतः व्यक्तिव्यंजक था। द्विवेदीयुगीन निबंधों में व्यक्तिव्यंजक निबंध कम लिखे गए। इस युग के श्रेष्ठ निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938), गोविंदनारायण मिश्र (1859-1926), बालमुकुंद गुप्त (1865-1907), माधव प्रसाद मिश्र (1871-1907), मिश्र बंधु-श्याम बिहारी मिश्र (1873-1947) और शुकदेव बिहारी मिश्र (1878-1951), सरदार पूर्णसिंह (1881-1939), चंद्रधर शर्मा गुलेरी (1883-1920), जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी (1875-1939), श्यामसुंदर दास (1875-1945), पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’ (1876-1932), रामचंद्र शुक्ल (1884-1940), कृष्ण बिहारी मिश्र (1890-1963) आदि उल्लेखनीय हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी के निबंध परिचयात्मक या आलोचनात्मक हैं। उनमें आत्मव्यंजन तत्त्व नहीं है। गोंविद नारायण मिश्र के निबंध पांडित्यपूर्ण तथा संस्कृतनिष्ठ गद्यशैली के लिए प्रसिद्ध हैं। बालमुकुंद गुप्त ‘शिवशंभु के चिट्टे’ के लिए विख्यात हैं।

ये चिट्ठे “भारत मित्र’ में छपे थे। माधव प्रसाद मिश्र के निबंध ‘सुदर्शन’ में प्रकाशित हुए। उनके निबंधों का संग्रह ‘माधव मिश्र निबंध माला’ के नाम से प्रकाशित है। सरदार पूर्णसिंह भी इस युग के निबंधकार हैं। इनके निबंध नैतिक विषयों पर हैं। कहीं-कहीं इनकी शैली व्याख्यानात्मक हो गई हैं। चंद्रधर शर्मा गलेरी ने कहानी के अतिरिक्त निबंध भी लिखे। उनके निबंधों में मार्मिक व्यंग्य है। जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी के निबंध ‘गद्यमाला’ (1909) और ‘निबंध-निलय’ में प्रकाशित हैं। पद्मसिंह शर्मा कमलेश तुलनात्मक आलोचना के लिए विख्यात हैं। उनकी शैली प्रशंसात्मक और प्रभावपूर्ण है। श्यामसुंदरदास तथा कृष्ण बिहारी मिश्र मूलतः आलोचक थे। इनकी शैली सहज और परिमार्जित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रारंभिक निबंधों में भाषा संबंधी प्रश्नों और कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के संबंध में विचार व्यक्त किए गए हैं। उन्होंने कुछ अंग्रेजी निबंधों का अनुवाद भी किया।

इस युग में गणेशशंकर विद्यार्थी, मन्नन द्विवेदी आदि ने भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। शुक्लयुगीन निबंध-इस युग के प्रमुख निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं आचार्य शुक्ल के निबंध ‘चिंतामणि’ के दोनों खंडों में संकलित हैं। अभी हाल में चिंतामणि का तीसरा खंड प्रकाशित हुआ है। इसका संपादन डॉ. नामवर सिंह ने किया है। इसी युग के निबंधकारों में बाबू गुलाबराय (1888-1963) का उल्लेखनीय स्थान है। ‘ठलुआ क्लब’, ‘फिर निराश क्यों’, ‘मेरी असफलताएँ’ आदि संग्रहों में उनके श्रेष्ठ निबंध संकलित हैं। ल पुन्नालाल बख्शी’ ने कई अच्छे निबंध लिखे। इनके निबंध ‘पंचपात्र’ में संगृहीत हैं। अन्य निबंधकारों में शांति प्रेत द्विवेदी, शिवपूजन सहाय, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, रधुवीर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी आदि मुख्य हैं। इस युग में निबंध तो लिखे गए, पर ललित निबंध कम ही हैं।

शुक्लयुगोत्तर निबंध-शुक्लयुगोत्तर काल में निबंध ने अनेक दिशाओं में सफलता प्राप्त की। इस युग मं समीक्षात्मक निबंध अधिक लिखे गए। यों व्यक्तव्यंजक निबंध भी कम नहीं लिखे गए। शुक्लजी के समीक्षात्मक निबंधों को परंपरा के दूसरे नाम हैं नंददुलारे वाजपेयी। इसी काल के महत्त्वपूर्ण निबंधकार आच हजागे प्रसाद द्विवेदी हैं। उनके ललित निबंधों में नवीन जीवन-बोध है।

शुक्लयुगोत्तर निबंधकारों में जैनेंद्र कुमार का स्थान काफी ऊँचा है। उनके निबंधों में दार्शनिकता है। यह दार्शनिकता निजी है, अतः ऊब पैदा नहीं करती। उनके निबंधों में सरसता है।

हिंदी में प्रभावशाली समीक्षा के अग्रदूत शांतिप्रिय द्विवेदी हैं। इन्होंने समीक्षात्मक निबंध भी लिखे हैं और साहित्येतर भी। इनके समीक्षात्मक निर्बंधों में निर्बध का स्वाद मिलता है। रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने भी इस युग में महत्त्वपूर्ण निबंध लिखे। इनके निबंध विचार-प्रधान हैं। लेकिन कुछ निबंधों में उनका अंतरंग पक्ष भी उद्घाटित हुआ है। समीक्षात्मक निबंधकारों में डॉ. नगेंद्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनके निबंधों की कल्पना, मनोवैज्ञानिक दृष्टि उनके व्यक्तित्व के अपरिहार्य अंग हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी के निबंध-संग्रह ‘गेहूँ और गुलाब’ तथा ‘वंदे वाणी विनायकौ’ हैं। बेनीपुरी की भाषा में आवेग है, जटिलता नहीं। श्रीराम शर्मा, देवेंद्र सत्यार्थी भी निबंध के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल के निबंधों में भारतीय संस्कृति के विविध आयामों को विद्वतापूर्वक उद्घाटित किया गया है। यशपाल के निबंधों में भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण मिलता है। बनारसीदास चतुर्वेदी के निबंध-संग्रह ‘साहित्य और जीवन’, ‘हमारे आराध्य’ नाम में यही प्रवृत्ति है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर के निबंध में करुणा, व्यंग्य और भावुकता का सन्निवेश है। भगवतशरण उपाध्याय ने ‘ठूठा आम’, और ‘सांस्कृतिक निबंध’ में इतिहास और संस्कृति की पृष्टभूमि पर निबंध लिखे। प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह, कुबेरनाथ राय, ठाकुर प्रसाद सिन्हा आदि के ललित निबंध विख्यात हैं।

सामयिक निबंधों में नई चिंतन पद्धति और अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, निर्मल वर्मा, रमेशचंद्रशाह, शरद जोशी, जानकी वल्लभ शास्त्री, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, नेमिचंद्र जैन, विष्णु प्रभाकर, जगदीश चतुर्वेदी, डॉ. नामवर सिंह और विवेकी राय आदि ने हिंदी गद्य की निबंध परंपरा को न केवल बढ़ाया है, बल्कि उसमें विशिष्ट प्रयोग किए हैं। समीक्षात्मक निबंधों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम आता है। उनके निबंधों में बौद्धिकता है और वयस्क वैचारिकता तबोध के ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ‘समीक्षा की समस्याएँ’ और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ नामक निबंध विशेष उल्लेखनीय हैं। डॉ. रामविलास शर्मा के निबंध शैली में स्वच्छता, प्रखरता तथा वैचारिक संपन्नता है। हिंदी निबंध में व्यंग्य को रवींद्र कालिया ने बढ़ाया है। नए निबंधकारों में रमेशचंद्र शाह का नाम तेजी से उभरा है।

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महादेवी वर्मा, विजयेंद्र स्नातक, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के निबंधों में प्रौढ़ता है। इसके अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर कृत ‘हम जिनके ऋणी हैं’ जानकी वल्लभ शास्त्री कृत ‘मन की बात’, ‘जो बिक न सकी’ आदि निबंधों में क्लासिकल संवेदना का उदात्त रूप मिलता है। नए निबंधकारों में : प्रभाकर श्रोत्रिय, चंद्रकांत वांदिवडेकर, नंदकिशोर आचार्य, बनवारी, कृष्णदत्त पालीवाल, प्रदीप मांडव, कर्णसिंह चौहान और सुधीश पचौरी आदि प्रमुख हैं। आज राजनीतिक-सांस्कृतिक विषयों पर भी निबंध लिखे जा रहे हैं। अतः हिंदी निबंध-साहित्य उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है।

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