MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions गद्य Chapter 11 जीने की कला
जीने की कला अभ्यास
जीने की कला अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
जीवमात्र किसका अवतार है?
उत्तर:
जीवमात्र ईश्वर का अवतार है, लेकिन लौकिक भाषा में सबको अवतार नहीं माना जाता है।
प्रश्न 2.
ईश्वर रूप हुए बिना मनुष्य को क्या नहीं मिलता? (2016)
उत्तर:
ईश्वर रूप हुए बिना मनुष्य को सुख नहीं मिलता एवं शान्ति का अनुभव नहीं होता।
प्रश्न 3.
गाँधीजी के अनुसार गीता में किस युद्ध का वर्णन किया गया है? (2017)
उत्तर:
गाँधीजी के अनुसार गीता में महाभारत के युद्ध का वर्णन किया गया है।
प्रश्न 4.
हृदय में भीतर के युद्ध को रसप्रद बनाने के लिए की गई कल्पना क्या है?
उत्तर:
हृदय में भीतर के युद्ध को रसप्रद बनाने के लिए हृदय-मन्थन, अर्थात् ज्ञान प्राप्त कर भक्त बनकर आत्मदर्शन की कल्पना की गई है।
प्रश्न 5.
महात्मा गाँधीजी की दृष्टि में निषिद्ध क्या है?
उत्तर:
महात्मा गाँधीजी की दृष्टि में फलासक्ति ही निषिद्ध है।
जीने की कला लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
महाभारत के ऐतिहासिक पात्रों का उपयोग व्यास ने किस हेतु के किया है?
उत्तर:
महाभारत के रचयिता मुनि वेदव्यास ने अपने महाभारत महाकाव्य में ऐतिहासिक पात्रों का प्रयोग किया है क्योंकि महाभारत का युद्ध ऐतिहासिक है तथा युद्धभूमि कुरुक्षेत्र भी इतिहास प्रसिद्ध स्थान है। ऐसे में पात्रों का भी ऐतिहासिक होना अनिवार्य था। इस ऐतिहासिक घटना को प्रमाणित करने तथा कृष्ण के उपदेश को भी सत्यता की कसौटी पर खरा उतारने के लिए ऐतिहासिक पात्रों का होना अनिवार्य था। अतः व्यास का यही हेतु था।
प्रश्न 2.
पात्रों की अमानुषी और अतिमानुषी उत्पत्ति का वर्णन करके व्यास ने किस उद्देश्य की पूर्ति की है?
उत्तर:
गीता का निष्काम कर्म तथा फलासक्ति जैसा सिद्धान्त एक अमानुषी मस्तिष्क की उपज हो सकती है तो उस सिद्धान्त को समझने के लिए भी ऐसा ही अमानुषी पात्र चाहिए था। इसी कारण कृष्ण ने समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करके उन्हें (कृष्ण को) अतिमानुषी बताया। जिसे देखकर अर्जुन निष्काम कर्म के तत्त्व को समझा। रचनाकार का जो उद्देश्य था कि संसार को निष्काम कर्म में संलग्न कर मोह से छुड़ाया जाए, वह पूरा हुआ।
प्रश्न 3.
गीता की शिक्षा का आचरण करने वाले मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है? (2014)
उत्तर:
गाँधीजी ने बताया है कि गीता की शिक्षा का आचरण करने वाले मनुष्य को स्वभाव से ही सत्य और अहिंसा का पालन करना पड़ता है। गीता की शिक्षा है जो कर्म आसक्ति के बिना हो ही न सकें वे सब कर्म छोड़ने लायक हैं।’ यह सुवर्ण नियम मनुष्य को कई धर्म संकटों से बचाता है। अतः मनुष्य झूठ, हत्या, असत्य को त्यागने वाला बन जाता है, जिससे उसका जीवन सरल तथा शान्तिपूर्ण बन जाता है।
प्रश्न 4.
रीति को दृष्टि में रखकर गीता के मूलमन्त्र का जिज्ञासु क्या कर सकता है?
उत्तर:
गीता सूत्र ग्रन्थ न होकर एक महान ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के भावों की गहराई में हम जितना उतरेंगे उतने ही उसमें से नए और सुन्दर अर्थ निकलेंगे। गीता जनसमाज के लिए है, अतः गीता में आए हुए महान शब्दों के अर्थ सदैव बदलेंगे। अर्थ व्यापक भी बनेंगे। परन्तु गीता का मूलमन्त्र कभी नहीं बदलेगा। गीता का मूलमन्त्र है-कर्म के फल में आसक्ति न होना तथा आत्मदर्शन करना। यह मन्त्र जिस रीति से जीवन में अपनाया जा सके उस रीति को दृष्टि में रखकर जिज्ञासु गीता के महाशब्दों का मनचाहा अर्थ कर सकता है।
प्रश्न 5.
अवतार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अवतार का अर्थ है-शरीरधारी विशिष्ट पुरुष। सभी जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं, परन्तु सामान्य भाषा में समस्त जीवों को अवतार नहीं कहते। जो प्राणी (पुरुष) अपने युग में सर्वश्रेष्ठ धर्मवान पुरुष होता है, उसे आने वाली पीढ़ी अवतार के रूप में पूजती है क्योंकि उस अवतार रूपी प्राणी में कोई दोष नहीं होता है। इस प्रकार दोष रहित धर्मवान पुरुष ही अवतार होता है।
जीने की कला दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
गीता के अध्ययन से गाँधीजी को क्या अनुभूति हुई?
उत्तर:
गीता के अध्ययन से गाँधीजी को अनुभव हुआ कि गीता में मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच कोई भेद नहीं है, परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा गया है। अतः आसक्ति से किया कर्म छोड़ देने लायक है। गीता “आसक्ति त्यागने” को कहती है गीता की इस शिक्षा का आचरण करने वाला व्यक्ति स्वभाव से ही सत्य व अहिंसा का पालन करने लग जाता है, झूठ व लालच से दूर रहने लगता है तब उसके जीवन में सरलता व शान्ति आ जाती है। इसके विपरीत हिंसा या असत्य के पीछे परिणाम की इच्छा रहती है, अतः फलासक्ति में मनुष्य की रुचि बढ़ जाती है, जिससे वह हत्या, झूठ, व्यभिचार में रुचि लेने लगता है। अत: गाँधीजी ने अनुभव किया कि अनासक्ति व फलासक्ति के अभाव में कर्म करना ही मोक्ष है। इसी कारण गाँधीजी ने फलासक्ति को निषिध कहा है। गाँधीजी के अनुसार गीता की रचना परिवार के मामूली झगड़े निपटाने के लिए नहीं बल्कि प्राणी को स्थित प्रज्ञ व्यवहार हेतु हुई है।
प्रश्न 2.
आत्म दर्शन से सम्बन्धित गाँधीजी का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आत्मदर्शन से सम्बन्धित गाँधीजी का दृष्टिकोण है कि मनुष्य को सुख व शान्ति पाने के लिए ईश्वर रूप बनना होगा। ईश्वर रूप बनने के लिए किए जाने वाले प्रयत्न का ही नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और वही आत्मदर्शन है। आत्मदर्शन का अर्थ है-आत्मा के बारे में निरूपण करने वाला शास्त्र। आत्मा के बारे में निरूपण करना समस्त धर्म ग्रन्थों का विषय है। ठीक उसी प्रकार गीता भी आत्मा के बारे में निरूपण करती है अर्थात् आत्मदर्शन के विषय में बताती है।
गाँधीजी कहते हैं कि गीताकार ने आत्मदर्शन का प्रतिपादन करने के लिए गीता की रचना नहीं की। बल्कि गीता आत्मा को पाने के लिए उत्सुक प्राणी को आत्मा का स्वरूप बताती है। आत्मा को पहचानने का एक अनोखा उपाय कर्म के फल का त्याग है। प्रत्येक कर्म में दोष होता है, उस दोष को मन, वचन और काया से ईश्वर को अर्पित करके अर्थात् कर्म के फल का त्याग करके दूर किया जा सकता है। साथ ही, उस कर्म के फल-त्याग में हृदय मन्थन भी हो। अतः संक्षिप्त रूप में गाँधीजी ने कहा है कि ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही आत्म-दर्शन है।
प्रश्न 3.
गाँधीजी के अनुसार गीता का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
गाँधीजी के अनुसार गीता का उद्देश्य आत्मार्थी को आत्मदर्शन करने का एक अद्वितीय उपाय बताना तथा आत्मा को पाने के लिए उत्सुक प्राणी को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान कराना है। इस आत्मदर्शन को प्राप्त करने का अद्वितीय उपाय है कर्म के फल का त्याग। इसी केन्द्र बिन्दु के आस-पास गीता का सारा विषय गाँथा गया है। देह कर्म से मुक्त नहीं हो सकती और कर्म दोष से मुक्त नहीं हो सकता, दोष से मुक्त हुए बिना मुक्ति (मोक्ष) नहीं मिल सकती।
तब मुक्ति पाने के लिए इस दोष से कैसे छूटा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर गीता ने दिया है-“निष्काम कर्म करके, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के फल का त्याग करके, सारे कर्म मन, वचन और काया से ईश्वर को अर्पित करके” कर्म को दोष मुक्त किया जा सकता है। इस क्रिया में केवल बुद्धि ही नहीं बल्कि हृदय-मन्थन भी आवश्यक है। इस प्रकार किए गए कर्म से मनुष्य को सिद्धि मिलती है। यही कर्म प्राणी का धर्म और मोक्ष है। इसी मोक्ष की प्राप्ति करना गीता का उद्देश्य है।
प्रश्न 4.
गाँधीजी ने फल त्यागी किसे कहा है?
उत्तर:
गीता में आत्मदर्शन का उपाय बताया गया है-कर्म के फल का त्याग। जो व्यक्ति कर्म के फल का त्याग करता है वही फल-त्यागी है। कर्म के फल का त्याग केवल कह देने से नहीं होता, बुद्धि या बुद्धि के प्रयोग से नहीं होता। वह हृदय-मन्थन से ही होता है। हृदय-मन्थन किए कर्म से ही सिद्धि मिलती है। दूसरी ओर फल त्याग का अर्थ कर्म के परिणाम के विषय में लापरवाह रहना भी नहीं है।
परिणाम का और साधना का विचार करना तथा दोनों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इतना करने के बाद जो मनुष्य परिणाम की इच्छा किए बिना साधन में तन्मय रहता है, वह फलत्यागी कहा जाता है। गीताकार ने कर्मफल के त्याग का सिद्धान्त संसार के सामने रखा है। यह स्वर्णिम नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों से बचाता है। झूठ, असत्य जैसी बुराइयों से बचाता है। अत: गाँधीजी के अनुसार कर्म के फल को त्यागने वाला ही फलत्यागी है।
प्रश्न 5.
गीताकार ने किस भ्रम को दूर कर दिया है?
उत्तर:
गीताकार ने धर्म और अर्थ के परस्पर विरोधी भ्रम को दूर कर दिया है। सामान्यतः यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ परस्पर विरोधी हैं। “व्यापार आदि सांसारिक व्यवहारों में धर्म का पालन नहीं हो सकता, धर्म के लिए स्थान नहीं हो सकता। धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए ही किया जा सकता है। धर्म के स्थान पर धर्म शोभा देता है, अर्थ के स्थान पर अर्थ शोभा देता है।” गाँधीजी कहते हैं कि गीताकार ने इस भ्रम को दूर कर दिया है। उन्होने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच ऐसा कोई भेद नहीं रखा है; परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा है। गीता कहती है “जो धर्म व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता वह धर्म ही नहीं है।” इस प्रकार गीताकार ने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच के भेद को आसक्ति रहित कर्म के द्वारा दूर कर दिया है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पंक्तियों का भाव पल्लवन कीजिए
(क) “जहाँ देह है वहाँ कर्म तो है ही।”
उत्तर:
‘महात्मा गाँधी’ ने ‘जीने की कला’ निबन्ध में गीता के अनासक्ति कर्म की व्याख्या की है। गाँधीजी ने कहा है कि देहधारी प्राणी की आत्मा उसका कर्म है। इस संसार में जन्म लेने वाला प्राणी एक पल भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। कर्म से कभी भी मनुष्य को मुक्ति नहीं मिल सकती। जब मनुष्य सोता है तब भी वह साँस लेने, स्वप्न देखने आदि का कर्म करता रहता है तो जागने की अवस्था में वह भला बिना कर्म के कैसे रह सकता ह? अतः कर्म ही मनुष्य की जीवित अवस्था का प्रमाण है।
(ख) “कर्म के बिना किसी को सिद्धि प्राप्त नहीं हुई।”
उत्तर:
‘जीने की इच्छा’ निबन्ध में महात्मा गाँधी’ ने बताया है कि निष्काम कर्म करने से मनुष्य नर से नरश्रेष्ठ बन जाता है। गीता ने ज्ञानियों, भक्तों तथा नर को कर्म करने का सन्देश दिया है। साथ ही गीताकार ने कहा है कि कर्म से ही सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि का अर्थ है आत्मा की मुक्ति। कहा गया है कि बिना कर्म के शक्तिशाली शेर तक के मुँह में हिरन नहीं जाता तो आत्मा की सिद्धि के लिए आसक्ति रहित कर्म करना अनिवार्य है। कर्म सिद्धि का पर्याय है।
जीने की कला भाषा अध्ययन
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिखिएगिता, ऐतिहसिक, धरम, फलसक्ति, सुत्रग्रन्थ।
उत्तर:
गिता = गीता। ऐतिहसिक = ऐतिहासिक। धरम = धर्म। फलसक्ति = फलासक्ति। सुत्रग्रन्थ = सूत्रग्रन्थ।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों को वाक्यों में प्रयोग कीजिएविश्वास, अहिंसा, चिन्तन-मनन, अभिलाषा, स्वभाव।
उत्तर:
- विश्वास – अवतार में विश्वास करना प्राणी की उदात्त आध्यात्मिक अभिलाषा का सूचक है।
- अहिंसा – सत्य और अहिंसा बापू के शस्त्र थे।
- चिन्तन – मनन-भगवद्गीता में निष्काम कर्म पर चिन्तन-मनन किया गया है।
- अभिलाषा – मनुष्य की अन्तिम उदात्त आध्यात्मिक अभिलाषा मुक्ति दिलाती है।
- स्वभाव – क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति कभी विनम्र नहीं होता है।
प्रश्न 3.
दिए गए शब्दों के विलोम शब्द लिखिएउत्पत्ति, निरर्थकता, सच्चा, विधि-निषिद्ध।
उत्तर:
प्रश्न 4.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
- महाभारत में ………….. सर्वोच्च स्थान पर विराजती है।
- अद्वितीय उपाय है …………. के फल का त्याग।
- गीता का ………… आत्मदर्शन करने का एक अद्वितीय उपाय बताना है।
उत्तर:
- गीता
- कर्म
- उद्देश्य आत्मार्थी को।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए
उत्तर:
- संसार से सम्बन्धित = सांसारिक
- दोष से मुक्त = निर्दोष
- काम से रहित = निष्काम
- जानने की इच्छा रखने वाला = जिज्ञासु
- धर्म का पालन करने वाला = धर्मवान।
जीने की कला पाठ का सारांश
श्रीमद्भगवतगीता को ‘गीता मैया’ कहने वाले महात्मा गाँधी ने ‘जीने की कला’ निबन्ध में मानव बुद्धि को व्यावहारिक बनाने का सूत्र बताने के लिए गीता को आधार माना है। संसार में बुद्धि दो प्रकार की होती है-भौतिक तथा स्थित प्रज्ञ। गीता में स्थित प्रज्ञ बुद्धि को श्रेष्ठ माना है। गीता की रचना पारिवारिक झगड़े निपटाने या अवतारवाद की स्थापना के लिए नहीं हुई। समस्त धर्म ग्रन्थों तथा गीता का विषय आत्म दर्शन है परन्तु कृष्ण कृत गीता आत्म-दर्शन करने के लिए; एवं आत्म-दर्शन करने का उपाय बताती है।
वह अद्वितीय उपाय है, कर्म के फल का त्याग। देहधारी कर्म से मुक्त नहीं हो सकता और कर्म में दोष अवश्य होते हैं। कर्म में दोष न होने का अर्थ है ‘निष्काम कर्म करके, यंज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के लिए फल का त्याग करके, सारे कर्म कृष्णार्पण करके अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।’ यह निष्कामता स्थिर बुद्धि तथा हृदय-मन्थन से ही उत्पन्न होती है, गीता में इसी को आत्म-दर्शन कहा गया है। परिणाम की इच्छा किए बिना साधना (कर्म) में लीन रहना ही फल का त्याग है। फल के त्याग का अर्थ कर्म के परिणाम के प्रति लापरवाह होना नहीं है।
गीता में दूसरी बात बताई गई है कि धर्म और अर्थ परस्पर विरोधी नहीं हैं। व्यापार आदि सांसारिक व्यवहारों में धर्म का पालन नहीं हो सकता, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए ही किया जा सकता है। परन्तु गीताकार ने इस भ्रम को दूर कर दिया है। उन्होंने मोक्ष और सांसारिक व्यवहार के बीच ऐसा कोई भेद नहीं रखा है, परन्तु धर्म को व्यवहार में उतारा है। अतः जो कर्म अनासक्ति यानि लगाव रहित न हो उसे त्याग देना चाहिए। यह स्वर्णिम नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों, जैसे हत्या, झूठ, व्यभिचार आदि से बचाता है। इससे जीवन सरल बन जाता है और सरलता से शान्ति मिलती है और गीता की इसी शिक्षा को अपनाने वाले मनुष्य स्वभाव से सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं।
गीता सूत्र ग्रन्थ न होकर समाज के लिए एक महान ग्रन्थ है जिसमें जितना डूबेंगे उतने ही अर्थ मिलेंगे। साथ ही ये अर्थ प्रत्येक युग में बदलेंगे तथा व्यापक बनेंगे। लेकिन मूल मन्त्र कभी नहीं बदलेगा। इसीलिए गीता करने योग्य और न करने योग्य कर्म बताने वाला संग्रह-ग्रन्थ भी नहीं है क्योंकि जो कर्म एक के लिए मान्य है वह दूसरे के लिए अमान्य हो सकता है। उसी प्रकार एक काल या एक देश में जो कर्म विहित है वह दूसरे देश तथा दूसरे काल में अमान्य हो सकता है। अतः फलासक्ति निषिद्ध है और अनासक्ति विहित है। इसीलिए गीता नर को नरश्रेष्ठ बनने का मार्ग दिखाती है, जीने की कला सिखाती है।
जीने की कला कठिन शब्दार्थ
सर्वोच्च = सबसे ऊँचा। भौतिक-सांसारिक। स्थित प्रज्ञ- स्थिर बुद्धि वाला। औचित्य = उचित। अनौचित्य = अनुचित। लौकिक = सांसारिक। उदात्त = उदार। आत्म-दर्शन = आत्मा के बारे में निरूपण करने वाला शास्त्र। प्रतिपादन = स्थापित। आत्मार्थी = आत्मा को पाने के लिए उत्सुक। अद्वितीय = अनोखा। देह = शरीर। मुक्त = स्वतन्त्र। काया = शरीर। निष्काम कामना से रहित। हृदय-मन्थन = मन में अच्छे-बुरे की पहचान । सिद्धि = सफलता। तन्मय = लीन। फलासक्ति = फल में लगाव। अनासक्ति = आसक्ति रहित, लगाव रहित। आसक्ति = लगाव। सुवर्ण = सुन्दर। त्याज्य = छोड़ने योग्य। सूत्र = नियम। साधा = अपनाया। जिज्ञासु = जानने की इच्छा रखने वाला। विहित = मान्य, अनिवार्य। निषिध = अमान्य। अमानुषी = जो मनुष्य से सम्बन्धित न हो। अतिमानुषी = मानव धर्म से परे सिद्धि देवी।
जीने की कला संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
1. अवतार का अर्थ है शरीरधारी विशिष्ट पुरुष। जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं, परन्तु लौकिक भाषा में सबको अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान पुरुष होता है, उसे भविष्य की प्रजा अवतार के रूप में पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं मालूम होता।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के जीने की कला’ नामक पाठ से अवतरित है। यह पाठ महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘गीता माता से संग्रहीत एवं सम्पादित है।
प्रसंग :
लेखक ने गीता की रचना का कारण बताते हुए उस विशिष्ट पुरुष की कल्पना की है जो निर्दोष होने के कारण अवतार कहा जाता है।
व्याख्या :
शरीरधारी पुरुषों में जो पुरुष विशेष होता है, उसे अवतार कहते हैं। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सब ईश्वर के अवतार हैं अर्थात् भगवान की एक महान रचना है। परन्तु संसार में सारे प्राणियों को अवतार नहीं कहते। संसार उस प्राणी को अवतार मानता है जो सब प्राणियों से अलग होता है। कुछ अनोखे-अनुपम कार्य करता है, धर्म का पालनकर्ता होता है, चरित्रवान होता है, उसके प्रति सबके मन में श्रद्धा होती है, समाज के लिए भलाई करता है अर्थात् हर दृष्टि से सबका प्रिय होता है, वही व्यक्ति भविष्य में अवतार माना जाता है। अपने समय में उसे श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है। उस श्रेष्ठ पुरुष में कोई भी बुराई नहीं होती। अवतार सदैव अवगुणों से दूर रहता है। अवतार सर्वगुण सम्पन्न होता है। उसकी बुराई करने वाला कोई नहीं होता।
विशेष :
- भाषा सरल, बोधगम्य एवं प्रभावपूर्ण खड़ी बोली है।
- विशिष्ट, श्रेष्ठ, लौकिक जैसे संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।
- व्याख्यात्मक शैली है।
- लघु वाक्य सूत्र जैसे प्रतीत होते हैं।
2. मुक्ति केवल निर्दोष मनुष्य को ही मिलती है। तब कर्म के बंधन से अर्थात् दोष के स्पर्श से कैसे छूटा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर गीता जी ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है। ‘निष्काम कर्म करके, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्म के फल का त्याग करके, सारे कर्म कृष्णार्पण करके अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम कर।’
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
देह के साथ कर्म और कर्म के साथ दोष जुड़ा है, अतः इस दोष को दूर करके मोक्ष मिलता है। गीता में दोष दूर करने का उपाय बताया है कि बिना फल की इच्छा से कर्म करना ही दोषमुक्त होता है।
व्याख्या-गाँधीजी कहते हैं कि इस संसार में जन्म लेकर प्रत्येक व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है। कर्मों में दोष होता है। इन्हीं दोषों के कारण मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती। प्राणी इसी कारण कर्म के बन्धन में बँधता चला जाता है। इस कर्म के बन्धन से मुक्त होने का उपाय या निर्दोष कर्म अपनाने का तरीका गीता बताती है। गीता में बताया गया है कि निष्काम कर्म, अर्थात् बिना किसी फल की इच्छा से किया गया कर्म मुक्ति दिलाता है। कर्म के फल का त्याग करके अर्थात् अपने समस्त कार्य कृष्णार्पण अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर को अर्पित करके, भले-बुरे फल की कामना न करके, निरन्तर कर्म करते रहने से सांसारिक बंधन टूट जाते हैं और आत्मा मुक्त हो जाती है। इसी आत्म-दर्शन को गाँधीजी गीता का मूल मानते हैं।
विशेष :
- संस्कृत शब्दावली युक्त खड़ी बोली।
- प्रश्नोत्तर व सूत्रात्मक शैली का प्रयोग है।
- भावों की गहनता व बोधगम्यता है।
- होम कर’ जैसे मुहावरे का प्रयोग है।
3. गीता के मत के अनुसार जो कर्म आसक्ति के बिना हो ही न सकें वे सब त्याज्य हैं-छोड़ देने लायक हैं। यह सुवर्ण नियम मनुष्य को अनेक धर्म संकटों से बचाता है। इस मत के अनुसार हत्या, झूठ, व्यभिचार आदि कर्म स्वभाव से ही त्याज्य हो जाते हैं। इससे मनुष्य जीवन सरल बन सकता है और सरलता से शांति का जन्म होता है।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
राष्ट्रपिता गाँधी के अनुसार गीता में बताया गया है कि आसक्ति से मुक्त कर्म ही धर्म है। व्यवहार में लाया जाने वाला धर्म ही सच्चा धर्म है। यही धर्म हमें अमानुषिक कर्मों से बचाता है।
व्याख्या :
गीता में एक शब्द आता है आसक्ति, जिसका अर्थ होता है लगाव। गीता में बताया गया है कि जिस कर्म में आसक्ति होती है अर्थात् कर्म में लगाव या मोह होता है, उस कर्म को त्यागना ही मनुष्य का धर्म है। आसक्ति के बिना किया गया कर्म, मनुष्य को धर्म संकटों से बचाता है। श्रेष्ठ फल देने वाले कर्म को मनुष्य करना चाहता है। आसक्ति से रहित होकर मनुष्य जब कर्म करता है तो वह अनेक सांसारिक बुराइयों; जैसे-झूठ, दुराचार, हत्या इत्यादि से बच जाता है और वह स्वभाव से सत्य और अहिंसा का पालन करने वाला बन जाता है। जब मनुष्य आसक्तिपूर्ण कर्म को त्याग देता है तब उसका मन परिणाम के लिए बेचैन नहीं होता जिससे जीवन में सन्तोष व शान्ति का आगमन होता है, सन्तोष मन को शान्ति देता है। जीवन में सरलता व शान्ति के आने पर मनुष्य का व्यवहार तथा आचरण बहुत ही कोमल व साफ-सुथरा हो जाता है जिससे मुक्ति का मार्ग खुल जाता है।
विशेष :
- तत्सम शब्दों के साथ खड़ी बोली का प्रयोग है।
- विचारात्मक तथा व्याख्यात्मक शैली।
- मनुष्य को आसक्ति से दूर रहने का उपदेश।