MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 2 वात्सल्य
वात्सल्य अभ्यास
वात्सल्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बालक कृष्ण के रुचिकर व्यंजन क्या हैं? (2017)
उत्तर:
बालक कृष्ण के रुचिकर व्यंजन मक्खन, मिश्री, दही एवं बेसन से बने हुए स्वादिष्ट पदार्थ हैं।
प्रश्न 2.
‘मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे’ की उत्प्रेक्षा को लिखिए।
उत्तर:
इस पंक्ति में राम के शरीर की सुन्दरता को नीचे बादल के मध्य चमकने वाली बिजली के सदृश कल्पना कल्पित की गयी है। मनहुँ वाचक शब्द का प्रयोग है।
प्रश्न 3.
माता कौशल्या बालक राम की नजर उतारने के लिए क्या-क्या उपक्रम करती हैं? (2015, 16)
उत्तर:
माता कौशल्या बालक राम की नजर उतारने के लिए दो-दो डिठौने अर्थात् नजर के काले टीके लगाती हैं।
वात्सल्य लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कृष्ण के बाल रूप को किस प्रकार अलंकृत किया गया है?
उत्तर:
सूरदाज जी ने कृष्ण के बाल रूप का वर्णन मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक किया है। उन्होंने बताया है कि बालकृष्ण ने अपने मुख में मिट्टी का लेप कर लिया है। मस्तक पर रोली का तिलक है। उनके बालों की सुन्दर लट लटक रही है। उदाहरण देखें-
“घुटुरुवन चलन रेनु मंडित मुख में लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छवि-गौरोचन को तिलक दिये।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।”
प्रश्न 2.
प्रस्तुत पदों में बाल स्वभाव की कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत पदों में बाल स्वभाव की विभिन्न मनोवृत्तियों का चित्रण किया गया है-
(1) बाल वृत्तियों का चित्रण-बालक कृष्ण नन्द जी की उँगली पकड़कर चलना सीखते हैं-
“गहे अंगुरिया तात की नन्द चलन सिखावत।”
कभी बालक कृष्ण नन्द जी की गोद में बैठकर भोजन करते हैं। देखें-
“जेंवत श्याम नन्द की कनियाँ।”
उनको कौन-कौन से भोज्य पदार्थ रुचिकर लगते थे और वे उन्हें किस प्रकार खाते थे। देखें-
बरी बरा बेसन बहु भांतिन व्यंजन विविध अनगनियाँ
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत छविधनियाँ।
(2) बालक कृष्ण की खीझ का वर्णन :
सूर ने बालक कृष्ण की छोटी-छोटी बातों का सुन्दर वर्णन किया है। बच्चे खेल में परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं और एक-दूसरे से रूठ जाने पर अपनी माँ से शिकायत करते हैं। माँ बच्चे की बात सुनती है और उसे समझाती है। तब बालक प्रसन्न हो जाता है। इस पद में देखें कृष्ण नन्द बाबा से बलदाऊ की शिकायत करके कह रहे हैं-
“खेलन अब मोरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बलभैया।
मोसों कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियौ कछु दै वसुदेव को करि-करि जतन बटैया॥”
(3) बाल हठ का चित्रण- बच्चों की नासमझी का चित्रण सूरदास ने किया है। बालक अबोध होता है उसे यह नहीं मालूम है कि क्या वस्तु खेलने की है। बालक कृष्ण देखिये किस प्रकार चाँद खेलने के लिए माँग रहे हैं-
“मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहों।
जैहों लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं।”
जब माँ बालक को प्रलोभन देकर कहती है कि मैं तेरे लिए दुल्हन ला दूंगी तो उस माँग को भी बिना समझे तुरन्त पूरी करने को कहते हैं। देखें-
“तेरी सौं मेरी सनि मैया, अबहिं बियावन जैहों।”
प्रश्न 3.
बालकृष्ण खेलते समय कौन-कौन सी क्रीड़ाएँ करते हैं? (2014)
उत्तर:
बालक कृष्ण खेलते समय अपने मुख पर मिट्टी का लेप लगा लेते हैं। बालक कृष्ण छोटी-छोटी बातों पर चिढ़ जाते हैं। जब बलराम उनसे कहते हैं तू तो मोल का लिया है, तब वे खिसियाकर उठकर चल देते हैं। अपने साथियों से कह देते हैं कि सब मुझे चिढ़ाते हैं, अब मैं कभी नहीं खेलूँगा। उदाहरण देखें-
“ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया।”
प्रश्न 4.
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर के अनुसार बालक राघव की छवि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर ने बालक राघव की छवि का वर्णन इस प्रकार किया है
बालक राम अपनी माँ की गोद में हैं। वे धूल से लिपटे हुए भी बहुत सुन्दर लग रहे हैं। इस उदाहरण में देखें-
“राघव जननी अंक बिराजत।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितइ काम सत लाजत॥”
श्री राम भद्राचार्य गिरिधर ने कहा है कि राम के सौन्दर्य के समक्ष कामदेव फीके पड़ गये, उनका सौन्दर्य पूर्व दिशा में उदित हुए चन्द्रमा के सदृश है। देखें-
प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे।
राघव की प्रशंसा में अन्य उदाहरण देखिये-
“शरद शशांक मनोहर आनन दैतुरिन लखि मन मोहे।
मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे।
इस प्रकार राघव के सौन्दर्य का वर्णन परिवार पर केन्द्रित है। कवि का कथन है ऐसी छवि को निहारने के लिए उसके हृदय रूपी नेत्र आतुर हैं।
प्रश्न 5.
माता कौशल्या की प्रसन्नता को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए। (2009)
उत्तर:
माता कौशल्या राम के सुन्दर रूप को देखकर प्रसन्न होती हैं। जब श्रीराम किलकारी मारकर हँसते हैं। उस समय माँ कौशल्या आँचल की ओट से अपने पुत्र को हँसते हुए देखकर आनन्द का अनुभव करती हैं।
जब श्रीराम की तोतली बोली माँ कौशल्या सुनती हैं तो उनका हृदय पुलकित हो उठता है। श्रीराम जब ठुमक ठुमक कर डगमगाते हुए चलते हैं तब माता कौशल्या चुटकी बजा-बजा कर राम को बुलाती हैं और हँसती हैं तथा अपूर्व आनन्द का अनुभव करती हैं। उदाहरण देखिये-
किलकत चितइ चहूँ दिसि विहँसत तोतरि वचन सुबोलत।
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।
निरखि चपल शिशु चुटकी दै दै हँसि हँसि मातु बुलावे।
माँ कौशल्या रंग-बिरंगे खिलौने देती हैं व विभिन्न प्रकार से राम को भोजन कराने का प्रयास करती हैं। इन सभी कार्यों में एक माँ को जो अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है, वह अवर्णनीय है। माँ की प्रसन्नता का अन्य उदाहरण देखें-
आँचर ढाँकि बदन विधु सुन्दर थन पय पान करावति।
कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति।
इस प्रकार श्री रामभद्राचार्य गिरिधर ने राघव की विभिन्न बाल लीलाओं के द्वारा माँ कौशल्या के हृदय की प्रसन्नता को व्यक्त किया है।
वात्सल्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बालक कृष्ण चन्द्र खिलौना लेने के लिए क्या-क्या हठ करते हैं?
उत्तर:
बालक कृष्ण जब चन्द्रमा लेने की हठ करते हैं तो वे माँ यशोदा से कहते हैं कि माँ मैं तो आकाश में दिखने वाले इस चन्द्रमा से ही खेलूँगा। वे चाँद को पाने के लिए मचलने लगते हैं वे माँ यशोदा को धमकी देते हैं, कि यदि वे चाँद खेलने के लिए नहीं देंगी तो वे भूमि पर लोट जायेंगे तथा यशोदा के पुत्र नहीं कहलायेंगे। परन्तु माँ उन्हें चाँद से भी सुन्दर दुलहनियाँ लाकर देने को कहती हैं।
इस बात को सुनते ही बालक कृष्ण विवाह करने के लिए मचल उठते हैं। माँ यशोदा तो बालक को बहलाने का प्रयत्न कर रही थीं लेकिन कृष्ण तो विवाह की तैयारी में लग जाते हैं। माँ के लिए चाँद जैसा खिलौना तो दुर्लभ था अतः वे जल के पात्र में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बालक कृष्ण को बहलाने का प्रयत्न करती हैं।
प्रश्न 2.
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर के पदों में बाल छवि का जो रूप उभरा है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
कवि राम भद्राचार्य गिरिधर ने अपने पदों में बालक श्रीराम की बाल चेष्टाओं का सुन्दर एवं सटीक वर्णन किया है। उन्होंने प्रभु राम के बचपन की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। देखिये जब प्रभु राम अपनी माँ कौशल्या की गोद में हैं; वे कितने सुन्दर लग रहे हैं-
राघवजू जननी अंक लसे। प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे।
शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन करते समय बताया है कि उनके अंगों पर किस प्रकार के आभूषण हैं। उदाहरण देखें-
“भाल तिलक सोहत श्रुति कुण्डल दृग मनसिज सरसे।
इस प्रकार राम का सौन्दर्य अपूर्व है। माँ कौशल्या को हर पल यह चिन्ता रहती है कि कहीं मेरे पुत्र के अपूर्व सौन्दर्य को किसी की नजर न लग जाये। इसके लिये माँ बार-बार ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। वे कहती हैं कि हे ईश्वर मेरे पुत्र दीर्घायु हों। उदाहरण देखें-
“नजर उतारि झिगुनि जनि फेकहुँ हरिहि निहोरि बुलावति।”
उन्हें बुरी नजर से बचाने के लिये दो-दो डिठौने लगाती हैं। वे ईश्वर से अपने पुत्र के लिए आशीष माँगती हैं। माँ कौशल्या प्रभु राम को भाइयों एवं मित्रों के साथ मिलकर खेलने के लिए कहती हैं। उदाहरण देखें-
“खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहि उपाय सुझावति।”
वे राम को उत्साहपूर्वक खाद्य पदार्थ खिलाने का प्रयास करती हैं। राम के मना करने पर वे उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर मनाती हैं। वे राम को गोद में लेकर प्यार करती हैं और दुलारते हुए दूध भी पिलाती हैं। राम के इन कार्यों को करके माँ कौशल्या अपूर्व आनन्द का अनुभव करती हैं।
माँ कौशल्या बालक श्रीराम को उनकी रुचि के अनुरूप रंग-बिरंगे खिलौने देकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हैं। वास्तव में श्री राम भद्राचार्य गिरिधर ने चर्म चक्षुओं की अनुपस्थिति के बावजूद भी राम की बाल लीलाओं का सुन्दर एवं हृदयहारी वर्णन किया है। राम के बाल रूप में इतना सुन्दर चित्रण अन्य किसी भी कवि ने करने का प्रयास नहीं किया है।
प्रश्न 3.
वात्सल्य के पदों में बालक राम और बालक कृष्ण की समानताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वात्सल्य के पदों में बालक राम और बालक कृष्ण के पदों में निम्न समानताएँ हैं-
बाल छवि का समान वर्णन :
जिस प्रकार सूरदास ने बालक कृष्ण की बाल लीला का वर्णन किया है, कि वे घुटनों के बल किस प्रकार चलते हैं। इसका उदाहरण देखें-
घुटुरुवन चलत रेनु मंडित मुख में लेप किये।
इसी प्रकार श्री रामभद्र गिरिधर ने श्रीराम के ठुमककर चलने का वर्णन किया है-
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।
इन दोनों के वर्णन में अन्य साम्य इस प्रकार हैं। उदाहरण देखें-
“गहे अंगुरिया तात की नंद चलन सिखावत”
कृष्ण और राम के खाने के वर्णन में समानता है-
“जेंवत श्याम नन्द की कनियाँ”
कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नंदरनियाँ।
इस प्रकार राम के खाने का वर्णन है। उदाहरण देखें-
“कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति”
इसी प्रकार दोनों के खेलने में भी साम्य है। उदाहरण देखें-
“खेलन अब मेरी जात बलैया।
मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों।”
इसी प्रकार श्रीराम के खेलने का वर्णन है-
“खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहिं उपाय सुझावति।”
इसी प्रकार बालक कृष्ण की माँ और राम की माँ के हृदय की प्रसन्नता का वर्णन है। देखें-
“नन्द यशोदा बिलसत सोनहि तिहं भुवनियाँ।”
इसी प्रकार राम का वर्णम है-
“राघव निरखि जननि सुख पावति।”
इस प्रकार श्रीराम और कृष्ण के वर्णन में यही समानताएं हैं।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
(अ) हँसि समझावति कहति जसोमति नई दलनियाँ देहों।
(आ) खेलन अब मेरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बलभैया॥
मौसौं कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि जतन बटैया॥
(इ) राघव जननी अंक विराजत।।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितई काम सत लाजत॥
ललित कपोल उपरि अति सोहत द्वैवै असित डिठौना।
जनु रसाल पल्लव पर बिलसत द्वै पिक तनय सलौना॥
उत्तर:
उपर्युक्त पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या सन्दर्भ प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में देखें।
वात्सल्य काव्य सौन्दर्य
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों में तत्सम और तद्भव शब्द पहचान कर लिखिए
नवनीत, हिये, लिये, कपोल, अंगुरिया, धरणि, कान्ह, दधि, माखन, भैया, मैया, पूरन, धूरि, गोद, शरद, माल।
उत्तर:
तत्सम शब्द :
नवनीत, लिये, कपोल, धरणि, दधि, गोद, शरद।
तद्भव शब्द :
हिये, अंगुरिया, कान्ह, माखन, भैया, मैया, पूरन, धूरि, माल।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए-
(अ) लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।
(आ) बार-बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।
(इ) जो रस नन्द यशोदा बिलसत सो नहिं तिहं भुवनियाँ।
(ई) मनहुँ इन्दु मण्डल विच अनुपम मन्मध बारिज से।
(उ) ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत।
उत्तर:
(अ) उत्प्रेक्षा अलंकार
(आ) अनुप्रास अलंकार
(इ) अतिशयोक्ति अलंकार
(ई) उत्प्रेक्षा अलंकार
(उ) अनुप्रास अलंकार।
प्रश्न 3.
अधोलिखित काव्यांश में काव्य-सौन्दर्य लिखिए
(अ) है हौं पूत नंद बाबा को तेरो सुत न कहैहों।
आगे आऊ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहों।
(आ) खेलत शिशु लखि मुदित कोसिला झाँकत आँचर से।
यह शिशु छबि लखि लखि नित ‘गिरधर’ हृदय नयन तरसे।
(इ) गोद सखि चुप चारि दुलारति पुनि पालति हलरावति।
आँचर ढाँकि बदन विधु सुन्दर थन पय पान करावति ।।
उत्तर:
(अ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है।
(2) पुत्र का पिता के प्रति अनुरागमय चित्रण है।
(3) वात्सल्य रस की सजीव झाँकी है।
(4) अनुप्रास अलंकार है क्योंकि-आगे आऊ शब्द में अ’ वर्ण की आवृत्ति है।
(5) गुण-माधुर्य है।
(आ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है, जैसे-कोकिला, झाँकत, आँचल।
(2) माँ का पुत्र के प्रति अमिट प्रेम अवलोकनीय है। वात्सल्य रस है।
(3) आँचल से झाँकने में मातृ हृदय की मार्मिक झाँकी है।
(4) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है-
लखि-लखि-लखि में ‘ल’ वर्ण की आवृत्ति है।
‘हृदय नयन’ में रूपक अलंकार है।
(5) गुण-माधुर्य है।
(इ) (1) ब्रजभाषा का प्रयोग है, जैसे-चुचुकारि, दुलराति, पुनपालति, हलरावति।
(2) बदन, विधु सुन्दर में उपमा अलंकार है।
(3) पय पान करावति में मातृ हृदय का प्रेम व्यंजित है।
(4) रस वात्सल्य है।
प्रश्न 4.
सूर वात्सल्य रस का कोना-कोना झाँक आए हैं। उदारण देकर समझाइए।
उत्तर:
सूरदास को वात्सल्य रस का सम्राट कहा जाता है। उसका प्रमुख कारण सूर के काव्य में शृंगार रस के साथ-साथ बालक श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य की सुन्दर झाँकी मिलती है।
(1) विस्तृत बाल वर्णन-सूरदास जी ने अपने काव्य में वात्सल्य का विस्तृत चित्रण किया है। उनका यह वर्णन बालक कृष्ण के जन्म के पश्चात् प्रारम्भ हो जाता है। उन्होंने बालक कृष्ण के पालने में झूलने का वर्णन किया है। इसके उपरान्त बालक कृष्ण का घुटनों चलने का, देहली को लाँघने को, बालकों के साथ मक्खन, दही चुराने का सजीव वर्णन है।
इसके अतिरिक्त बाल कृष्ण गाय चराने जाते हैं, ग्वाल-वालों के साथ हँसी मजाक करते हैं। खेलते समय खिसियाकर खेल छोड़कर भाग जाते हैं। इसके अतिरिक्त माँ यशोदा से चाँद खिलौना लेने की हठ करते हैं। सूरदास ने इन्हीं सब बाल वृत्तियों का सुन्दर चित्रण किया है उदाहरण देखें जैसे, यशोदा जब पालने में श्रीकृष्ण को झूला झुलाती है तो वे गाती हैं-
“यशोदा हरि पालने झुलावै”
जब कृष्ण खेलने जाते हैं और बलराम उन्हें यह कहकर खिझाते हैं कि तू तो मोल का लिया है। इस बात को सुनकर वे अपनी माँ यशोदा से इस प्रकार शिकायत करते हैं
“मोसों कहत तात वसुदेव को देवकी तेरी मैया …..”
ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया।
(2) बाल लीलाओं का सजीव अंकन :
सूरदास जी ने बाल कृष्ण की बाल लीलाओं का सजीव अंकन किया है। उन्होंने कहा है बाल कृष्ण अपनी माता यशोदा से चाँद खिलौना माँग रहे हैं और वे हठ करते हैं कि यदि वे उन्हें चाँद खेलने के लिये नहीं देंगी तो वे भूमि पर लोट जायेंगे, उनके पुत्र भी नहीं कहायेंगे व दूध भी नहीं पियेंगे। उदाहरण देखें-
“मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहों।
जैहौं लेटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं।
इसके अतिरिक्त जब माँ यशोदा कृष्ण से कहती है वे चाँद से भी सुन्दर दुल्हन ला देंगी, तो वे तुरन्त विवाह की हठ इस प्रकार करते हैं-
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहि बियावन जैहों।”
इस प्रकार की विभिन्न बाल चेष्टाओं का वात्सल्य रस में वर्णन है।
प्रश्न 5.
“सूर की भाषा में ग्रामीण बोली का माधुर्य है।” सूर की भाषा की विशेषताएँ लिखते हुए इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
सूर की भाषा में यथास्थान प्रचलित शब्दों का व ग्रामीण शब्दों का यत्र-तत्र प्रयोग हुआ। सूर की भाषा में प्रसाद तथा माधुर्य गुण की प्रचुरता है। सूरदास जी ने अपनी भाषा में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। उनके सभी पद गेय हैं।
सूरदास जी ने साधारण बोलचाल की भाषा को अपनी सुन्दर भाव भूमि से सजाया, सँवारा एवं साहित्यिक रूप प्रदान किया है। उन्होंने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
अनुप्रास अलंकार का उदाहरण देखें-
“बार बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।”
उत्प्रेक्षा का उदाहरण देखें-
“लर लटक मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।”
ग्रामीण भाषा का अन्य उदाहरण देखें-
डारत खाट लेट अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ।
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत छवि धनियाँ॥
सूरदास जी ने अपनी भाषा में सरल, सहज एवं स्वाभाविक शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने तुकबन्दी का भी प्रयोग यथास्थान किया है। उदाहरण देखें-
हँसि समुझावति कहति जसोमति, नई दुलनियाँ दैहों।
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहि बियावन जैहों।
इस प्रकार सूरदाज जी की भाषा माधुर्य गुण से परिपूर्ण है। उन्होंने यथास्थान प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है। वास्तव में, सूरदास जी ने अपनी भाषा को भावों के अनुरूप ही प्रयोग किया है। सूरदास जी ने वात्सल्य रस का प्रयोग भी किया है।
प्रश्न 6.
संकलित काव्यांश में से एक उदाहरण देकर उसमें निहित रस तथा विभिन्न अंगों को समझाइए।
उत्तर:
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुवन चलत रेनु तन मंडित मुख में लेप किए।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गौरोचन को तिलक दिए।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिए ।।
कठुला के वज्र केहरि नख राजत है सखि रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल यह सुख कहा भयो सत कल्प जिए॥
रस – वात्सल्य
स्थायी भाव – स्नेह, अनुराग
संचारी भाव – हर्ष
अनुभाव – घुटनों चलना, लोचनों की चपलता आदि
विभाव-आश्रय – श्रीकृष्ण
आलम्बन – धूल भरा हुआ तन।
प्रश्न 7.
काव्य में माधुर्य गुण की श्रृंगार, वात्सल्य और शांत रस में सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। माधुर्य गुण में मधुर शब्द योजना और सरल प्रवाह देखते ही बनता है। देखिए-कंकन, किंकन, नूपुर, धुनि, सुनि।
इसी प्रकार की सुन्दर, सहज, मधुर शब्द योजना के कुछ अंश इस पाठ से छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
(1) लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिए।
(2) बरी बरा बेसन बहु भाँतिन व्यंजन।
(3) ठुमकि ठुमकि रुनझुन धुन सुनि।
(4) शरद शशांक मनोहर आनन।
(5) गोद राखि पुचकारि दुलारति।
कृष्ण की बाल लीलाएँ भाव सारांश
महाकवि सूरदास का भक्तिकालीन कवियों में शीर्ष स्थान है। कवि ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को जो झाँकी उतारी है वह हिन्दी काव्य में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। बाल चेष्टाओं का वर्णन भी यत्र-तत्र काव्य के पृष्ठों में अंकित है।
कृष्ण की बाल लीलाओं में घुटनों के बल चलना, मक्खन को मुँह पर मलना, आदि ऐसी चेष्टाएँ हैं जो आनन्ददायक एवं सुख देने वाली हैं। नंद बाबा कृष्ण की उंगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं तो कहीं कृष्ण बोलने का प्रयत्न करते हैं। पुत्र को इस प्रकार की चेष्टाओं को निहार कर यशोदा माँ आनन्द से अभिभूत हो जाती हैं।
कृष्ण का सखाओं के साथ खेलना तथा खेलते समय बलदाऊ का उन्हें खिझाना बाल्यकाल के जीवन की मनोरम झाँकी हैं। यह सूर के बालकृष्ण, नन्द एवं यशोदा को अपने अलौकिक क्रिया-कलापों से मंत्र मुग्ध कर देते हैं।
कृष्ण की बाल लीलाएँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
[1] शोभित कर नवनीत लिये। घुटुरुवन चलत रेनु मंडित मुख में लेप किये।।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गौरोचन को तिलक दिये।
लर लटकन मानो मत्त मधुप गन माधुरी मधुर पिये।।
कठुला के वज्र केहरि नख राजत है सखि रुचिर हिये।
धन्य ‘सूर’ एकौ पल यह सुख कहा भयो सत कल्प जिये।। (2015)
शब्दार्थ :
कर = हाथ; नवनीत = मक्खन; घुटुरुवन = घुटनों के बल; रेनु = मिट्टी; चारु = सुन्दर; कपोल = गाल; लोचन = नेत्र; मधुप = भौंरा; गौरोचन – रोली का टीका; तिलक = टीका; मत्त = मस्त; वज्र = कठोर; केहरि = केसरी, सिंह; हिये – हृदय; पल = क्षण; सत = सौ; लर = बालों की लट।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्य वात्सल्य’ पाठ के श्रीकृष्ण की बाल लीलाएँ’ शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता महाकवि सूरदास जी हैं।
प्रसंग :
इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की मनोरम झाँकी प्रस्तुत की गई है।
व्याख्या :
बालक श्रीकृष्ण अपने हाथ में मक्खन लिए हुए अत्यन्त ही शोभायमान एवं आकर्षक प्रतीत हो रहे हैं। वह अपने आँगन में घुटनों के बल चल रहे हैं, अपने मुख में मिट्टी का लेप किये हुए हैं। उनके गाल सुन्दर हैं, नेत्र चंचल हैं, गौरोचन (रोली का टीका) मस्तक पर शोभायमान हो रहा है। उनके मुख पर बालों की लटें इस प्रकार सुशोभित हो रही हैं मानो मतवाले भँवरों का समूह उनकी सुन्दरता का रसपान कर रहा है। हे सखि ! उनके सुन्दर हृदय पर कठुला (गले में पड़े धागे में) बज्र के सदृश कठोर सिंह का नाखून शोभित है। सूरदास जी कहते हैं ऐसी सुन्दर छवि को एक पल निहारकर भी जीवन धन्य है। सौ कल्प जीवित रहना भी इसकी अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं है।
काव्य सौन्दर्य :
- श्रीकृष्ण की बाल छवि का सुन्दर वर्णन है।
- वात्सल्य रस है।
- अलंकार की छटा दर्शनीय है, जैसे-लोल, लोचन; लर लटकन में अनुप्रास अलंकार है, मानो मत्त मधुप गन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- गुण-माधुर्य है।
- भाषा ब्रजभाषा है।
[2] गहे अंगुरिया तात की नंद चलन सिखावत।
अरबराई गिरि परत हैं कर टेकि उठावत।।
बार बार बकि श्याम सों कछु बोल बकावत।
दुहंधा दोउ दंतुली भई अति मुख छवि पावत।।
कबहुँ कान्ह कर छाड़ि नंद पग द्वै करि धावत।
कबहुँ धरणि कर बैंठ के मन महं कछु गावत।।
कबहुँ उलटि चलै धाम को घुटरुन करि धावत।
‘सूर’ श्याम मुख देखि महर मन हर्ष बढ़ावत।।
शब्दार्थ :
गहे = पकड़कर; अंगुरिया = उँगलियाँ; तात = पिता; गिरि = पर्वत; कर = हाथ; दोउ= दोनों; पग = पैर; धावत = दौड़ना; धाम = गृह, घर; महर = ब्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के लिए आदरसूचक शब्द; हर्ष = प्रसन्नता; बढ़ावत = बढ़ाते हैं।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में श्रीकृष्ण का पैरों से चलना सीखने का वर्णन है। नन्द जी श्रीकृष्ण के बाल सौन्दर्य एवं लीलाओं को देखकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।
व्याख्या :
श्रीकृष्ण जी ने पिता नन्द की उँगली पकड़ी हुई है और श्री नन्द जी बालक श्रीकृष्ण को चलना सिखाते हैं। वे चलते समय डगमगाकर धरती पर गिर जाते हैं। नन्द जी अपने हाथ का सहारा देकर उठाते हैं। वे बार-बार बातें करके श्रीकृष्ण से कुछ न कुछ बुलवाने का प्रयास करते हैं। उनके दुधमुंहे दो दाँतों की पंक्तियाँ मुख में अत्यन्त ही सुशोभित हो रही हैं। कभी श्रीकृष्ण नन्द जी का हाथ छोड़कर दो पग दौड़ने का प्रयास करते हैं। कभी धरती पर बैठ करके मन ही मन कुछ गाते हैं।
कभी उलटी ओर घुटनों के बल घर को दौड़कर जाते हैं। सूरदास जी कहते हैं श्रीकृष्ण के ऐसे सुन्दर मुख को देखकर माँ यशोदा अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करती हैं।
काव्य सौन्दर्य :
- बालक कृष्ण की बाल छवि का वर्णन है।
- बार-बार बकि श्याम-बोल बकावत में अनुप्रास अलंकार है।
- सिखावत, उठावत, धावत, पावत आदि ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग है।
- वात्सल्य रस है।
[3] जेंवत श्याम नंद की कनियाँ।
कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नंदरनियाँ।
बरी बरा बेसन बहु भांतिन व्यंजन विविध अनगनियाँ।
डारत खात लेत अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ॥
मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत लवि धनियाँ।
आपुन खात नन्द मुख नावत सो सुख कहत न बनियाँ।
जो रस नन्द यशोदा बिलसत सो नहि तिहं भुवनियाँ।
भोजन करि नन्द अँचवन कियो माँगत ‘सूर’जुठनियाँ॥
शब्दार्थ :
जेंवत = जीमना, भोजन करना; कनियाँ = गोद में; धरनि = भूमि; निरखत = देखना; बहु भांतिन = अनेक प्रकार के व्यंजन, भोज्य पदार्थ; विविध = अनेक; दधि = दही; दनियाँ = दोनी; आपुन = स्वयं; तिहं भुवनियाँ = तीनों लोक; अँचवन = आचमन; जुठनियाँ = जूठन।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में बालक कृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं का अत्यन्त सुन्दर वर्णन है। इसके साथ ही श्रीकृष्ण को जो वस्तुएँ रुचिकर लगती हैं, उनका भी वर्णन किया है।
व्याख्या :
श्रीकृष्ण जी नन्द जी की गोद में बैठकर कुछ खा रहे हैं। खाते समय कुछ भोज्य पदार्थ भूमि पर गिरा रहे हैं। इस बाल छवि को निरखकर (देखकर) नन्द की रानी प्रसन्न्ता का अनुभव कर रही हैं। वे बड़ियों, दही बड़ों तथा बेसन से बने अनेक व्यंजनों का स्वाद ले रहे हैं। वे खाते समय खाद्य वस्तुओं को अपने हाथ से लेकर भूमि पर गिरा रहे हैं। उन्हें दही की दोनी अत्यन्त ही रुचिकर हैं। वे दही, मक्खन एवं मिश्री को मिलाकर अपने मुख में जब डालते हैं तो उनका सौन्दर्य देखते ही बनता है।
स्वयं खाकर उसमें से कुछ भोज्य पदार्थ नन्द जी के मुख में डालते हैं तो उस सुख का वर्णन करते नहीं बनता। बालक श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को निहार कर जो सुख नन्द-यशोदा को प्राप्त हो रहा है वह सुख तीनों लोकों में मिलना असम्भव है। भोजन करने के पश्चात् नन्द जी ने कुल्ला कर लिया है। सूरदास जी कहते हैं कि उन्हें यदि कृष्ण की जूठन ही प्राप्त हो जाए तो वे धन्य हो जाएँ।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा का प्रयोग है, अनगनियाँ, दनियाँ, बनियाँ भुवनियाँ, जुठनियाँ आदि शब्दों का प्रयोग है। तुकबन्दी है।
- वात्सल्य रस तथा गुण माधुर्य है।
- अतिशयोक्ति, अनुप्रास अलंकार है।
[4] खेलन अब मेरी जात बलैया।
जबहि मोहि देखत लरिकन संग तबहि खिझत बल भैया।
मोसों कहत पूत वसुदेव को देवकी तेरी मैया।
मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि जतन बटैया॥
अब बाबा कहि कहत नंद को यसुमति को कह मैया।
ऐसेहि कहि सब मोहि खिझावत तब उठि चलौ सिखैया॥ (2011)
पाछे नंद सुनत है ठाढ़े हँसत हँसत उर लैया।
‘सूर’ नंद बलिरामहि धिरयो सुनि मन हरख कन्हैया॥
शब्दार्थ :
लरिकन = लड़कों; संग = साथ; खिझत = चिढ़ाते हैं; बल भैया = बलराम; मोसों = मुझसे; वसुदेव = श्रीकृष्ण के पिता; देवकी = श्रीकृष्ण को जन्म देने वाली माँ; मोल = खरीदना; जतन = यत्न पूर्वक; यसुमति = श्रीकृष्ण को पालने वाली माता यशोदा; ठाढ़े = खड़े; उर = हृदय; हरख = हर्ष; कन्हैया = श्रीकृष्ण का नाम।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद में श्रीकृष्ण जी के द्वारा बलराम जी की शिकायत का वर्णन किया गया है। खेलते समय कभी-कभी उन्हें बलदाऊ चिढ़ाते हैं तो वे खेलने जाने से मना कर देते हैं और माता यशोदा से कहते हैं।
व्याख्या :
अब खेलने को मेरी बला जायेगी अर्थात् मैं खेलने नहीं जाऊँगा। क्योंकि जब भी बलदाऊ जी उन्हें लड़कों के संग खेलते देखते हैं, तो वे उन्हें चिढ़ाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे मुझसे कहते हैं कि तू तो वसुदेव का पुत्र है और देवकी तेरी माता है। तुझे तो कुछ ले-देकर, बड़ी कोशिश कर के वसुदेव जी से खरीदा गया है। इसलिए अब तुम नन्द जी को बाबा कहते हो और यशोदा को मैया कहकर पुकारते हो। इस प्रकार ऐसा कहकर मुझे सभी मित्र खिझाने लगते हैं तो वह सिखाने वाला उठकर चल देता है। कृष्ण की इस बात को पीछे खड़े हुए नन्द बाबा सुन रहे हैं। वे कृष्ण को हँसते हुए अपने हृदय से लगा लेते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि तब नन्द बाबा ने बलराम को समझाया एवं डाँट लगाई जिसे सुनकर श्रीकृष्ण जी मन में अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा का प्रयोग है। जतन, बटैया, मैया, सिखैया आदि शब्दों का प्रयोग है।
- वात्सल्य रस है। बाल मन का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक और मनोहारी चित्रण किया गया है।
[5] मैया मैं तो चन्द खिलौना लैहौं।
जैहों लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं।
सुरभी कौ पयपान न करहौं, बैनी सिर न गुहैहौं।
हवै हौं पूत नंद बाबा को, तेरो सुत न कहैहौं।
आणु आउ, बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलनियाँ दैहौं।
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं बियावन जैहौं।
सूरदास है कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं।
शब्दार्थ :
मैया = माँ; चन्द = चन्द्रमा; लैहौं = लूगाँ; जैहौं = जाऊँगा; धरनि = भूमि, पृथ्वी; ऐहौं = आऊँगा; सुरभी = गाय; पयपान = दुग्ध पीना; बैनी सिर = सिर पर चोटी; गुहैहों = गुँथवाऊँगा; सुत = पुत्र, बेटा; जनैहों = जताना, बताना; दुलनियाँ = दुल्हन, वधू; बियावन = ब्याह करने; अबहिं = अभी; जैहौं = जाऊँगा; सौं = सौगन्ध; गैहौं = गायेंगे।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में बालक श्रीकृष्ण माँ यशोदा से हठकर रहे हैं कि उन्हें खेलने के लिए चन्द्र खिलौना चाहिए।
व्याख्या :
श्रीकृष्ण माँ यशोदा से कह रहे हैं कि माँ मैं तो चाँद का खिलौना लूँगा। यदि तुम चन्द्रमा को खेलने के लिए नहीं दोगी तो मैं अभी भूमि पर लोट जाऊँगा और तेरी गोद में नहीं आऊँगा। मैं गाय का दूध भी नहीं पीऊँगा तथा सिर पर चोटी भी नहीं गुंथवाऊँगा। अब मैं तेरा पुत्र न कहलाकर नन्द बाबा का पुत्र कहलाऊँगा। माँ यशोदा श्रीकृष्ण से कह रही हैं कि तुम मेरे पास आओ और मेरी बात सुनो लेकिन इस बात को बलदेव को नहीं बताना। यशोदा हँसकर श्रीकृष्ण को समझाती है और कहती है कि मैं तेरे लिए नई दुल्हन लाऊँगी। तब श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि माँ मैं तेरी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं अभी विवाह करने जाऊँगा। सूरदास जी कहते हैं कि वे श्रीकृष्ण की बारात के कुटिल बराती होकर मंगलाचार के गीत गायेंगे।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा का प्रयोग है।
- श्रीकृष्ण के बाल हठ का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक वर्णन है।
- वात्सल्य रस का प्रस्तुतीकरण है।
राम की बाल लीलाएँ भाव सारांश
राम भद्राचार्य गिरिधर ने राम की बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए बताया है कि राम माता कौशल्या की गोद में अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं। उनके माथे पर तिलक है, कानों में कुण्डल हैं तथा नेत्र कामदेव के समान हैं, किलकारी मारने पर उनके दाँत बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं।
धूल से सने हुए उनके शरीर का सौन्दर्य सैकड़ों कामदेव की शोभा लजाने वाला है। कपोलों के ऊपर काला डिठोना (टीका) सुशोभित है। बालक राम तोतली बोली बोलते हैं। ठुमक-ठुमक कर स्वर्ण जड़ित आँगन में विहार कर रहे हैं। माता राम की बाल्यकाल की क्रीड़ाओं को देखकर सुख का अनुभव कर रही हैं। प्रेम से पुलकायमान होकर उन्हें स्नान करा रही हैं। माता उनके दीर्घ जीवन हेतु भगवान से प्रार्थना करती हैं।
राम की बाल लीलाएँ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
[1] राघवजू जननी अंक लसे।
प्राची दिशि जनु शरद सुधाकर, पूरन है निकसे॥
भाल, तिलक सोहत श्रुति कुण्डल दृग मनसिज सरसे।
मनहुँ इन्दु मण्डल बिच अनुपम, मन्मध बारिज से॥
कल दंत वचन कबहुँ कहुँ किलकत बिलसत दशन हँसे।
दामिनी पटधर मनहुँ नीलधन, प्रेम अमिय बरसे।
खेलत शिशु लखि मुदित, कौसिला झाँकत आँचर से।
यह शिशु छवि लखि नित ‘गिरधर’ हृदय नयन तरसे॥ (2009)
शब्दार्थ :
जननी = माँ; अंक = गोद; प्राची = पूर्व; दिशि = दिशा; सुधाकर = चन्द्रमा; शरद = शीतकाल; पूरन = पूर्ण; निकसे = निकलता; भाल = माथा; तिलक = टीका; सोहत = सुशोभित; श्रुति = कान; कुण्डल = कान में पहनने का आभूषण; दृग = नेत्र; मनसिज = कामदेव; सरसे = प्रसन्न होना; अनुपम = सुन्दर; दंत = दाँत; कबहुँ = कभी; किलकत = किलकारी मारना; दामिनी = बिजली; अमिय = अमृत; शिशु = बालक; मुदित = प्रसन्न; कौसिला = राम की जन्मदात्री माँ (कौशल्या); झाँकत = झाँकते; आँचर = आँचल; छवि = शोभा; नित = प्रतिदिन; नयन = नेत्र; तरसे = तृषित।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘वात्सल्य’ पाठ के ‘राम की बाल लीलाएँ’ से उद्धृत है। इसके रचयिता राम भद्राचार्य गिरिधर हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि ने माता कौशल्या की गोद में सुशोभित बालक राम के बाल्यकालीन अपूर्व सौन्दर्य का वर्णन किया है।
व्याख्या :
रामचन्द्र जी माता कौशल्या की गोद में सुशोभित हो रहे हैं। उनकी सुन्दरता को देखकर प्रतीत हो रहा है। मानो पूर्व दिशा से शरद पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा निकल आया हो। श्रीराम के माथे पर तिलक सुशोभित है, कानों में कुण्डल विराजमान हैं और उनकी आँखें कामदेव की सुन्दरता को प्राप्त कर रही है। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो चन्द्रमण्डल के बीच में अत्यन्त सुन्दर कामदेव रूपी कमल विकसित हुआ हो जिसकी कोई उपमा नहीं की जा सकती।
सुन्दर दाँतों से सुशोभित मुख से कभी बोलते हैं, कभी किलकारी भरते हैं और उनके किलकारी भरने से उनके मुख के सुन्दर दाँत दिखाई देते हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो नीले बादलों के बीच में बिजली रूपी वस्त्र चमक गया हो जिससे प्रेम की अमृत रूपी धारा बह रही हो। शिशु राम को आँचल के भीतर से बाहर झाँकते और खेलते देखकर कौशल्या का हृदय अत्यन्त प्रसन्नता से भर गया है। गिरिधर कहते हैं कि इस कवि को निरन्तर देखने के लिए उनके नेत्र तरस रहे हैं।
काव्य सौन्दर्य :
- बाल क्रीड़ाओं, सौन्दर्य और भावों का अत्यन्त मनोहारी और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है।
- उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा दर्शनीय है।
[2] राघव जननी अंक बिराजत।
नख सिख सुभग धूरि धूसर तनु चितइ काम सत लाजत।
ललित कपोल उपर अति सोहत द्वै दै असित डिठोना॥
जनु रसाल पल्लव पर बिलसत द्वै पिक तनय सलोना।
शरद शशांक मनोहर आनन दंतुरिन लखि मन मोहे।
मनहुँ नील नीरद बिच सुन्दर चारु तड़ित तनु जोहे॥
किलकत चितई चहूँ दिसि विहँसत तोतरि वचन सुबोलत।
ठुमुकि ठुमुकि रुनझुन धुनि सुनि कनक अजिर शिशु डोलत॥
निरखि चपल शिशु चुटकी दै दै हँसि हँसि मातु बुलावे।
यह शिशु रूप राम लाला को ‘गिरधर’ दृगनि लुभावे॥
शब्दार्थ :
राघव = श्रीराम; बिराजत = सुशोभित; सुभग = सुन्दर; धूरि धूसर = धूल से सने; तनु = शरीर; चितइ = चित्त, मन; ललित = सुन्दर; द्वै = दो; डिठोना = नजर का टीका; रसाल = आम; पिक = कोयल; तनय = पुत्र; सलोना = सुन्दर; शशांक = चन्द्रमा; मनोहर = सुन्दर; नील = नीलरंग; नीरद = बादल; बिच = मध्य; चारु = सुन्दर; तड़ित = बिजली; तोतरि = तोतली; वचन = बोली; कनक = सोने; निरखि = देखकर; चपल = चंचल; दृगनि = नेत्रों; लुभावे = प्रसन्न करें।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में माता की गोद में सुशोभित बालक राम के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
शिशु श्रीराम माता की गोदी में शोभायमान हो रहे हैं। नख से शिख तक (सिर से पैर तक) सुन्दर उनका शरीर धूल से भरा हुआ है। इस सुन्दरता को देखकर सैकड़ों कामदेव लज्जित हो जाते हैं अर्थात् धूल से सने हुए राम का शरीर इतना सुन्दर लग रहा है कि सैकड़ों कामदेवों की सुन्दरता भी उनके सामने नगण्य है। उनके गुलाबी रक्ताभ कपोलों (गालों) पर दो-दो काले डिठौने (टीके) शोभित हो रहे हैं। उन्हें देखकर प्रतीत हो रहा है कि मानो आम के पत्ते पर कोयल के दो सुन्दर बच्चे सुशोभित हो रहे हों। उनका मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है, उस पर दाँतों की पंक्तियाँ मन को मोह लेती हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीले बादलों के मध्य विद्युत् की सफेद रेखा शोभित हो रही है। रामचन्द्र जी किलकारी मारते हैं, चारों ओर देखते हैं, और हँसते हैं तथा तोतली वाणी में बोलते हैं। वे ठुमक ठुमक कर चलते हैं। उनकी करधनी के घुघरुओं से रुनझुन की ध्वनि सुनाई दे रही है और वे शिशु राम स्वर्णजड़ित आँगन में इधर-उधर डोल रहे हैं। अपने बालक के ये मनोहर, चंचल कार्यकलाप देखकर माता हँसती है और चुटकी बजा-बजा कर उन्हें बुलाती है। गिरिधर जी कहते हैं कि राम का यह सुन्दर शिशु रूप नेत्रों को अत्यन्त मनमोहक लगता है।
काव्य सौन्दर्य :
- बाल क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक वर्णन है।
- उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा द्रष्टव्य है।
[3] राघव निरखि जननि सुख पावत।
सँघि माथ रघुनाथ गोद लै प्रेम पुलकि अन्हवावति॥
पोछि बसन पहिराइ विभूषन आशिष वचन सुनावति।
चिर जीवहु मेरे छगन मगन शिशु कहि विधि ईश मनावति॥
धूरि न भरहु शीष पर लालन यों कहि तनय बुझावति।
खेलहु अनुज सखन्ह मिलि अंगना प्रभुहि उपाय सुझावति॥
गोद राखि चुचुकारि दुलारति पुनि पालति हलरावति।
आँचर ढाँकि बदन विधु सुंदर थन पय पान करावति॥
कहति मल्हाइ खाहु कछु राघव मातु उछाइ बढ़ावति।
नजर उतारि झिगुनि जनि फेकहुँ हरिहि निहोरि बुलावति॥
देत रुचिर बहुरंग खिलौना रायहिं अजिर खिलावति।
यह झाँकी रघुवंश तिलक की ‘गिरिधर’ चितहिं चुरावति॥
शब्दार्थ :
जननि = माँ; माथ = माथा, मस्तक; पुलकि = प्रसन्न; बसन = वस्त्र; पहिराइ = पहनाकर; सरस = सुन्दर; आशिष = आशीर्वाद; ईश = भगवान; मनावति = मनाते हैं, प्रसन्न करते है; अनुज = छोटा भाई; उपाय = तरकीब; आँचर = आँचल; विधु = चन्द्रमा; बदन = शरीर; पय = दूध; उछाइ = उत्साह; बढ़ावति = बढ़ाते हैं; निहारि = निहारकर, देखकर; हरिहि = राम को; चितहिं = चित्त, मन; चुरावति = चुराते हैं; रघुवंश तिलक = श्रीराम।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में कवि रामचन्द्र की बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए माता कौशल्या के स्नेह का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या :
बालक राम को देखकर माता कौशल्या को अत्यन्त सुख प्राप्त हो रहा है। वे रघुनाथ जी (राम) का माथा चूमती हैं और उन्हें गोद में लेकर प्रेम से रोमांचित होकर स्नान कराती हैं। फिर उनका शरीर पोंछकर वस्त्र और आभूषण पहनाती हैं तथा उन्हें अनेक आशीर्वाद देती हैं। वे कहती हैं कि हे मेरे छगन मगन (छोटे से छौने) तुम चिरकाल तक जीवित रहो। इस प्रकार कहकर वे ब्रह्मा और शिव से उनकी चिरायु के लिए प्रार्थना करती हैं। वे पुत्र को यह कहकर समझाती हैं कि हे लाल ! तुम अपने सिर पर धूल मत भरो।
अपने छोटे भाइयों और मित्रों के साथ मिलकर आँगन में खेलो। वह इस प्रकार प्रभु राम को उपाय बताती हैं फिर गोद में लेकर पुचकारती हैं, दुलारती हैं फिर पालने में हिलाती हैं तथा पुनः आँचल से उनके सुन्दर चन्द्रमुख को ढककर स्तनपान कराती हैं। माता कहती हैं कि हे राघव ! तुम कुछ खा लो ऐसा कहकर उनका उत्साह बढ़ाती हैं। फिर उनकी नजर उतारती हैं उन्हें निहोरे करके (खुशामद करके) बुलाती हैं और बड़े सुन्दर रंग-बिरंगे खिलौने देती हैं तथा उन्हें आँगन में खिलाती हैं। गिरिधर कहते हैं कि रघुवंश के तिलक स्वरूप बालक राम की बाल क्रीड़ाओं की यह झाँकी हृदय को चुरा लेती है।
काव्य सौन्दर्य :
- माता के नेह का सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है।
- रघुवंश तिलक में रूपक अलंकार का प्रयोग है।