MP Board Class 11th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 8 जीवन दर्शन
जीवन दर्शन अभ्यास
जीवन दर्शन अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर कोष्ठक में दिए विकल्पों में हैं। सही विकल्प छाँटकर लिखिए
(अ) अंगद किसका पुत्र था? (राम, सुग्रीव, बालि)
(आ) बालि ने काँख में किसे छिपा लिया था? (सुग्रीव, रावण, अंगद)
(इ) ‘भृगुनन्दन’ शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है? (परशुराम, राम, रावण)
(ई) ‘तुम पै धनु रेख गई न तरी’ किसके लिए कहा गया है? (राम, हनुमान, रावण)
(उ) ‘कवच-कुंडल’ दान किसने किए थे? (कर्ण, इन्द्र, अर्जुन)
उत्तर:
(अ) बालि
(आ) रावण
(इ) परशुराम
(ई) रावण
(उ) कर्ण
जीवन दर्शन लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
कुछ न पाया जिन्दगी में-किसने, किस कारण कहा है? (2010, 14, 17)
उत्तर:
‘कुछ न पाया जिन्दगी में यह कथन कवि गिरिजा कुमार माथुर का है। वे समस्त जीवन भर दौड़-भाग करते रहे, किन्तु उन्हें ऐसा कुछ प्राप्त नहीं हुआ जिससे कह सकें कि उनके जीवन की यह उपलब्धि है। आशय यह है कि सारा जीवन जिस विश्वास के लिए खपा दिया, वह सब व्यर्थ गया। अब जीवन की अन्तिम अवस्था में खाली हाथ ही रह गये। कोई आश्रय भी नहीं है। अनाथ होकर भटकने को विवश है। विश्वास भी साथ छोड़ रहा है।
प्रश्न 2.
‘विश्वास की साँझ’ कविता के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
अथवा
‘विश्वास की साँझ’ कविता का मुख्य कथ्य क्या है? (2016)
उत्तर:
‘विश्वास की साँझ’ कविता में कवि कहना चाहता है कि व्यक्ति इस विश्वास के सहारे समस्त जीवन में अति सक्रिय रहकर दौड़-भाग करता रहता है कि उसे कुछ विशेष उपलब्धि होगी। वह कुछ ऐसा करेगा जो उल्लेखनीय होगा। यह लालसा ही उसे दिन-रात नाना प्रकार के कार्यों में व्यस्त रखती है। लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध के आते-आते उसके पास मात्र अपने होने का विश्वास मात्र रह जाता है और कुछ शेष नहीं बचता है। जिस संसार के लिए व्यक्ति भला-बुरा सब करता है, वह भी अलग हो जाता है। अन्तिम वास्तविकता अर्थात् मृत्यु से व्यक्ति को निहत्थे ही सामना करना पड़ता है। कोई साथ नहीं होता है, हाथ भी खाली होते हैं।
प्रश्न 3.
केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में अंगद-रावण संवाद अधिक सुन्दर, स्वाभाविक और प्रभावशाली है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी काव्य में जितने अच्छे संवाद केशव ने रचे हैं, उतने अन्यत्र दुर्लभ हैं। उनके संवादों में सजीवता, नाटकीयता तथा प्रति उत्पन्न मतित्व का सौन्दर्य सर्वत्र दिखाई पड़ता है। वाक्-चातुर्य, उत्साह, तत्परता, राजनीतिक सूझबूझ, शिष्टाचार आदि की सफलता ने संवादों को बहुत सुन्दर बना दिया है। व्यंग्य, संक्षिप्तता, स्वाभाविकता, पात्रानुकूलता आदि के संयोग से केशव के संवाद अत्यन्त प्रभावशाली हो गए हैं। केशव दरबारी कवि थे, उन्हें राज दरबार का पूरा ज्ञान था इसीलिए उनके संवादों में सभी प्रकार का कौशल स्पष्ट दृष्टिगत होता है। केशव के संवाद अनूठे हैं।
जीवन दर्शन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
‘अंगद-रावण संवाद’ शीर्षक में सभी संवाद पात्रों के अनुकूल हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कथोपकथन में पात्र का विशेष महत्त्व होता है। अत: यह आवश्यक है कि संवाद पात्र के स्तर के अनुरूप हों। केशव ने इन सभी बातों को ध्यान में रखकर संवाद-योजना की है। उनके संवाद पात्रों के मनोभावों एवं परिस्थितियों को स्पष्ट परिलक्षित करते हैं। उनके संवाद से पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का ज्ञान सहज ही हो जाता है। प्रस्तुत अंश में जहाँ अंगद का शिष्टाचार, वीरत्व, वाक्चातुर्य तथा भक्ति भाव व्यक्त होता है, वहीं रावण के कथन उसके अहंकारी चरित्र का स्पष्ट आभास कराते हैं। अंगद अपनी या अपने सहयोगियों की प्रशंसा न करके अपने स्वामी राम की महिमा को आधार बनाकर अपनी बात सशक्त रूप में रखता है, जबकि रावण कुण्ठाग्रस्त होकर अपनी प्रशंसा स्वयं ही करता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
“कौन के सुत” ‘बालि के’, ‘वह कौन बालि’, ‘नजानिए?’
काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।”
“है कहाँ वह बीर? अंगद “देवलोक बताइयो”
‘क्यों गयो? रघुनाथ बान बिमान बैठि सिधाइयो।’
इस तरह केशव के संवादों में पात्रानुकूलता की विशेषता सर्वत्र विद्यमान है।
प्रश्न 2.
क्या विश्वास की साँझ’ कविता में निराशावाद है? तर्क सहित समझाइए।
उत्तर:
‘विश्वास की साँझ’ कविता में जीवन पर्यन्त सक्रिय एवं सचेष्ट रहने वाले व्यक्ति के विश्वास को जीवन के उत्तरार्द्ध में डगमगाते दिखाया गया है। आस्था एवं विश्वास के साथ कार्यशील रहने वाला कवि अब जीवन के आखिरी पड़ाव में पूर्व अनुभव करता है कि मैंने भाग-दौड़, हाय-हाय, काम-धाम करते-करते जीवन गँवा दिया और कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाया। मात्र एक विश्वास बचा था। नियति ने यह कहकर कि “जिन्दगी में साथ देता है कभी कोई बशर, असलियत से युद्ध होता है निहत्था जान ले।” उस विश्वास को भी छीन लिया और नियति ने स्पष्ट कर दिया कि तू अपने आस्था और विश्वास सभी कवच-कुण्डल का दान कर दे।
जब जीवन में आस्था और विश्वास ही नहीं रहेगा तो जीवन की क्या सार्थकता होगी। व्यक्ति को हताशा आकर घेर लेगी। इससे स्पष्ट होता है कि इस कविता में निराशावाद का निरूपण हुआ है।
प्रश्न 3.
सन्दर्भ सहित व्याख्या लिखिए
(अ) नियति बोली, आस्था वाले
अरे ओ होश कर
जिन्दगी में साथ देता है
कभी. कोई बशर।
असलियत से युद्ध होता है
निहत्था जान ले।
(आ) सिन्धु तर्यो उनको वनरा तुम पै धनु रेख गई न तरी।
बाँध्योइ बाँधत सो न बँध्यो, उन बारिधि बाँधिकै बाट करी
अजहूँ रघुनाथ प्रताप की बात तुम्हें दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी।।
उत्तर:
इन पद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या पाठ के ‘सन्दर्भ-प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग में पढ़िए।
जीवन दर्शन काव्य-सौन्दर्य
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिएसाँझ, न्हात, जित्यो, जरी।
उत्तर:
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांशों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(अ) कौन के सुत? बालि के, वह कौन बालि? न जानिए?
(आ) बाँध्योइ बाँधत सो न बँध्यों, उन वारिधि बाँधि के बाट करी।
(इ) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराइ जरी।
उत्तर:
(अ) अनुप्रास
(आ) अनुप्रास
(इ) यमक।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित काव्यांशों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(क) असलियत से युद्ध होता है निहत्था जान ले।
इसलिए तू पूर्व इसके कवच कुंडल दान दे।
(ख) आज तक मानी नहीं, वह आज मानी हार।
(ग) हैहय कौन? वहै बिसर्यो जिन खेलत ही तोहि बाँधि लियो।
उत्तर:
इन काव्यांशों का काव्य-सौन्दर्य पाठ के सन्दर्भ प्रसंग सहित पद्यांशों की व्याख्या’ भाग से सम्बन्धित काव्यांश की व्याख्या के काव्य सौन्दर्य से पढ़िए।
प्रश्न 4.
‘अंगद-रावण संवाद’ काव्यांश में से उन पंक्तियों को लिखिए जिनमें रौद्र और वीर रस है।
उत्तर:
‘अंगद-रावण संवाद’ काव्यांश में से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जिनमें वीर एवं रौद्र रस है-
(क) काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।
(ख) ‘हैहय कौन?’ वहै विसर्यो जिन खेलत ही तोहि बाँधि लियो।
(ग) तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी।
(घ) छत्र विहीन करी छन में छिति गर्व हर्यो तिनके बल कौ रे।
प्रश्न 5.
‘विश्वास की साँझ’ कविता के आधार पर सिद्ध कीजिए कि जीवन में आस्था और विश्वास जैसे भाव मानव को त्याग की ओर प्रेरित करते हैं।
उत्तर:
व्यक्ति को जीवन में कार्य करने की शक्ति आस्था और विश्वास प्रदान करते हैं। ये ही विषम से विषम स्थिति में भी मनुष्य को संघर्ष का साहस देते हैं। किन्तु जीवन के उत्तरार्द्ध में एक ऐसी स्थिति भी आती है, जब आस्था और विश्वास जैसे भाव मानव को त्याग की ओर प्रेरित करते हैं। आखिरी समय में अनाथ होने पर आस्था और विश्वास भी डगमगाने लगते हैं और जीवन से पलायन की प्रेरणा देते हैं।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों में निहित शब्द शक्ति का नाम लिखिए
(क) कौन के सुत? बालि के
(ख) ‘है कहाँ वह वीर? अंगद ‘देवलोक बताइयो।’
(ग) ‘बालि बली’, ‘छल सों’।
‘भृगुनन्दन गर्व हर्यो’, ‘द्विज दीन महा’।
(घ) ‘सिन्धु तरयो उनको वनरा, तुम पै धनु रेख गई न तरी।’
उत्तर:
(क) अभिधा
(ख) लक्षणा
(ग) लक्षणा
(घ) व्यंजना।
अंगद-रावण संवाद भाव सारांश
रीतिकाल के आचार्य केशवदास की ‘रामचन्द्रिका’ में मानवीय व्यवहारों का सुन्दर समायोजन हुआ है। ‘रावण अंगद संवाद’ शीर्षक इसी श्रेष्ठ महाकाव्य से संकलित है।
प्रस्तुत अंश में रावण-अंगद के सटीक संवादों का सौन्दर्य अवलोकनीय है। जहाँ रावण का अहंकारी रूप प्रतिध्वनित है वहीं अंगद नैतिक व्यक्तित्व वाले राम भक्त सिद्ध होते हैं। जैसे ही अंगद रावण के दरबार में पहुँचते हैं तो रावण उनसे परिचय पूछता है। वे उसी परिचयात्मक वार्तालाप में ही रावण की हीनताओं को व्यंजित कर देते हैं। जब अंगद ने अपना नाम बताते हुए कहा कि मैं बालि का पुत्र हूँ तो रावण पूछ बैठे कौन बालि तो अंगद उसे बताते हैं कि तुम बालि को नहीं जानते? ये वहीं हैं जिन्होंने तुम्हें अपनी बगल में दबाकर सप्त सागरों का स्नान किया था। राम के बाण से उनका वध हो गया है।
जब रावण ने पूछा लंका स्वामी कौन है तो अंगद ने कहा विभीषण। तुम्हें जीवित कौन कहता है? तुम अपनी सुबुद्धि से काम लो और राजाधिराज राम के पैरों पड़कर क्षमा माँग लो वे तुम्हें राज्य, कोष आदि सब देकर सीता को लेकर शीघ्र अपने घर चले जायेंगे।
यह सुनकर रावण अहं से भरकर कहता है कि संसार तथा लोकपाल आदि की सीमाएँ हैं। ये सब विष्णु भगवान की रक्षा में रहते हैं किन्तु देव, देवेश आदि का संहार शिवजी मात्र भ्रू भ्रंग द्वारा कर देते हैं। अतः मैं पैर पढूंगा तो शिव के पढूंगा अन्य के नहीं। वह कहता है राम में शत्रु पर विजय पाने की क्षमता ही नहीं है। अंगद बताते हैं राम ने परशुराम, सहस्रार्जुन आदि वीरों को पराजित किया है। सहस्रार्जुन ने तो खेल में तुमको बाँध लिया था।
राम महाप्रतापी हैं उनका बन्दर तुम्हारी लंका जला गया, उन्होंने पत्थरों का पुल बनाकर सागर पर रास्ता बना लिया। यह सुनते रावण बताता है-मृत्यु मेरी दासी है, सूर्य द्वारपाल है, चन्द्रमा मेरा छत्र लिए रहता है, यमराज कोतवाली करता है। अतः मुझे राम, सुग्रीव आदि कैसे हरा पायेंगे। अंगद के बार-बार समझाने पर भी रावण अपनी गर्वोक्तियों से बाज नहीं आता है। फिर भी अंगद राम के महान् प्रभाव को सिद्ध करने में समर्थ होता है। ये संवाद अनूठे हैं।
अंगद-रावण संवाद संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
[1] अंगद कूदि गए जहाँ, आसनगत लंकेस।
मनु मधुकर करहट पर, सोभित श्यामल बेस॥
रावण-कौन हो, पठाए सो कौने, ह्याँ तुम्हें कह काम है?
अंगद-जाति वानर, लंकनायक ! दूत अंगद नाम है।
“कौन है वह बाँधि कै हम देह छि सबै दही”?
“लंक जारि संहारि अच्छ गयो सो बात बृथा कही।
शब्दार्थ :
आसनगत = आसन पर; लंकेस = लंका का स्वामी; मधुकर = भौंरा; करहट = कमल की छतरी; ह्याँ = यहाँ; दही = जला दिया; बृथा = व्यर्थ।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक के पाठ ‘जीवन दर्शन’ के ‘रावण अंगद संवाद’ शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता केशवदास हैं।
प्रसंग :
इस पद्यांश में राम द्वारा युद्ध से पहले अंगद को दूत के रूप में लंका भेजने पर रावण-अंगद का परिचयात्मक संवाद है।
व्याख्या :
लंका का राजा रावण जहाँ सिंहासन पर बैठा था अंगद कूदकर वहीं पहुंच गए। वे ऐसे लग रहे हैं मानो कलम की छतरी पर श्याम वेष वाला भौंरा बैठा हो। रावण अंगद से पूछता है कि तुम कौन हो, तुम्हें किसने भेजा है और यहाँ तुमको क्या काम है? तब अंगद उत्तर देते हुए कहता है कि मेरी जाति वानर है, मैं श्रीराम का दूत हूँ और मेरा नाम अंगद है। तब रावण कहता है कि वह कौन है जिसे हमने बाँध लिया तथा उसकी पूँछ, शरीर आदि सब जला दिया। तब अंगद उत्तर देते हैं कि वे (हनुमान) लंका को जलाकर और तुम्हारे बेटे अक्षय कुमार को मारकर गये। वह बात व्यर्थ रही।
काव्य सौन्दर्य :
- अंगद का रावण के दरबार में पहुँचकर वार्ता को प्रारम्भ किया गया है।
- उत्प्रेक्षा, अनुप्रास अलंकार । सरल, सुबोध एवं लाक्षणिकता से परिपूर्ण ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[2] “कौन के सुत?” ‘बालि के’, ‘वह कौन बालि’, न जानिए?
काँख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।”
“है कहाँ वह बीर?” अंगद “देवलोक बताइयो।” ‘क्यों गयो’?
रघुनाथ बान बिमान बैठि सिधाइयो। ‘लंका नायक को’?
विभीषण, देव दूषण को दहै? ‘मोहि जीवन होहिं क्यों?
जग तोहि जीबत को कहै। ‘मोहि को जग मारि है’?
दुर्बुद्धि तेरिय जानिए? ‘कौन बात पठाइयो कहि वीर बेगि बखानिए।’
शब्दार्थ :
सुत = पुत्र; काँख = बगल; चापि = दबाकर; बान-बिमान = बाण रूपी विमान; सिधाइयो = सिधार गये; देवदूषण = देवताओं के शत्रु; दहै = दग्ध करता है, जलाता है; दुर्बुद्धि = कुबुद्धि; पठाइयो = भेजा है।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद्यांश में रावण और अंगद के प्रश्नोत्तर हैं।
व्याख्या:
रावण अंगद से पूछता है कि तुम किसके पुत्र हो? अंगद बताता है कि मैं बालि का पुत्र हूँ। रावण ने पूछा कि यह बालि कौन है? अंगद ने पूछा कि क्या तुम बालि को नहीं जानते हो? जिसने तुम्हें अपनी बगल में दबाकर सप्त सागरों में स्नान किया था। आशय है कि दीर्घकाल तक तुम्हें अपनी बगल में दबाए रखा था। रावण ने पूछा कि वह पराक्रमी वीर अब कहाँ है? उत्तर में अंगद ने कहा कि वे देवलोक (स्वर्ग) सिधार गये हैं। रावण ने प्रश्न किया कि वे देवलोक क्यों गये हैं आशय है कि उनका निधन कैसे हुआ? अंगद ने बताया कि रघुकुल के स्वामी श्रीराम के बाण रूपी विमान पर बैठकर वे देवलोक सिधार गये हैं।
आशय यह है कि श्रीराम के बाण से उनका वध हो गया है। पुनः रावण पूछता है कि लंका का स्वामी कौन है? अंगद ने उत्तर दिया कि देवताओं के शत्रु को दग्ध करने वाले विभीषण लंका के स्वामी हैं। रावण बोला मेरे जीते जी वह लंका का स्वामी कैसे है? अंगद ने कहा कि तुम्हें संसार में जीवित कहता ही कौन है? आशय यह है कि तुम तो मरे के समान हो। रावण ने कहा कि मुझे संसार में कौन मार सकता है? अंगद ने बताया कि तेरी कुबुद्धि ही तेरा वध कराएगी। रावण ने अंगद से पूछा कि हे वीर ! शीघ्र बताइए कि तुमको यहाँ किस काम के लिए भेजा है?
काव्य सौन्दर्य :
- रावण और अंगद के संवाद से आभास मिलता है कि रावण की कुबुद्धि ही उसका विनाश कर देगी और विभीषण लंका का नायक बनेगा।
- श्लेष एवं अनुप्रास अलंकार।
- सरल, सुबोध ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[3] राम राजान के राज आये इहाँ
धाम तेरे महाभाग जागे अबै।
देवि मंदोदरी कुम्भकर्णादि दै
मित्र मंत्री जिते पूछि देखो सबै।
राखिजै जाति को, पांति को वंश को
साधिजै लोक में पर्लोक को।
आनि कै पाँ परौ देस लै, कोस लै
आसुहीं ईश सीताहि लै ओक को।
शब्दार्थ :
धाम = नगर; देवि = पटरानी; पांति = सम्मान; कोस लै = खजाना ले; आसुही = शीघ्र ही; ओक = घर।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में अंगद रावण को सत्परामर्श दे रहे हैं।
व्याख्या :
अंगद कहते हैं कि हे रावण ! यह तेरे महाभाग्य जाग्रत हो गये हैं कि राजाधिराज राम यहाँ तेरे घर पर आए हैं। मैं जो श्रेष्ठ परामर्श देने जा रहा हूँ, उसके बारे में तुम अपनी पटरानी मंदोदरी, अपने बन्धु कुम्भकर्ण आदि से और जितने भी तुम्हारे मित्र और मन्त्री हैं उन सभी से पूछकर देख लो कि मेरी सलाह उत्तम है या नहीं। तुम अपनी जाति, अपनी प्रतिष्ठा और वंश की रक्षा कर लो, अपने इस लोक में ही परलोक की साधना कर लो। श्रीराम को सादर महल में लाकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँग लो और सीता जी को लौटा दो। तुम्हारे द्वारा ऐसा किए जाने पर परम उदार श्रीराम तुमको यह देश, यहाँ का खजाना आदि देकर अपनी पत्नी सीता को साथ लेकर शीघ्र ही अपने घर चले जायेंगे।
काव्य सौन्दर्य :
- अंगद ने रावण की भूल के लिए क्षमा याचना का परामर्श दिया है।
- अनुप्रास अलंकार एवं पद-मैत्री का सौन्दर्य दृष्टव्य है।
- सरल, सुबोध ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।
[4] रावण-लोक लोकेस स्यौं सोचि ब्रह्मा रचे
आपनी आपनी सीव सो सो रहे।
चारि बाहें धरे विष्णु रच्छा करें
बान साँची यहै वेदवाणी कहै।।
ताहि भ्रूभग ही देस देवेस स्यों
विष्णु ब्रह्मादि दै रुद्रजू संहरै।
ताहि सौं छाँड़ि कै पायँ काके परों
आजु संसार तो पायँ मेरे परै।।
शब्दार्थ :
लोकेश = लोक के स्वामी; रचे = बनाए हैं; स्यौं = से, सहित; भ्रूभग = भौंह टेढ़ी होने से, क्रुद्ध होने से; सींव = सीमा; रुद्रजू = शंकर जी; काके = किसके।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में अहंकारी रावण अंगद का परामर्श सुनकर क्रोध से भर उठता है तथा शिव के अतिरिक्त किसी के भी सामने न झुकने की गर्वोकित करता है।
व्याख्या :
रावण कहता है कि ब्रह्मा ने विचार करके जितने भी लोक और लोकों के स्वामी रचे हैं वे सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहते हैं। चार भुजा वाले विष्णु उस सृष्टि की रक्षा करते हैं। वेदवाणी इस सत्य को कहती है कि उस सृष्टि का देवताओं, देवराज इन्द्र सहित विष्णु और ब्रह्मा के होते हुए भी शिवजी भृकुटि मात्र से संहार कर देते हैं। इस प्रकार के सर्वशक्तिमान शिव को छोड़कर मैं किसके पैरों में पढूं। आज तो मेरे प्रताप की यह स्थिति है कि सारा संसार मेरे पैरों में पड़ता है। अतः मैं किसी के पैरों में नहीं पड़ सकता हूँ।
काव्य सौन्दर्य :
- इसमें अभिमानी रावण की गर्वोक्ति है।
- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, यमक, श्लेष अलंकारों का सौन्दर्य अवलोकनीय है।
- भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[5] ‘राम को काम कहा’? ‘रिपु जीतहिं’
‘कौन कबै रिपु जीत्यौ कहा’?
‘बालि बली’, ‘छल सों, भृगुनंदन
‘गर्व हर्यो’, ‘द्विज दीन महा।।
‘दीन सो क्यों? छिति छत्र हत्यो’
‘बिन प्राणनि हैहयराज कियो’
“हैहय कौन? “वहै विसरयो जिन’
खेलत ही तोहि बाँधि लियो।।
शब्दार्थ :
रिपु = शत्रु; छल सों = धोखे से; भृगुनन्दन = परशुराम; छिति छत्र हत्यो = पृथ्वी के क्षत्रिय मारे; हैहयराज = सहस्रार्जुन; विसर्यो = भूल गये।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश के संवादों में रावण की गर्वोक्तियों और अंगद के व्यंग्यों का सुन्दर संयोजन है।
व्याख्या :
रावण अंगद से पूछता है कि राम का उल्लेखनीय कार्य क्या है? अंगद ने उत्तर दिया कि श्रीराम अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। रावण ने पलटकर प्रश्न किया कि राम ने कब, कौन-से शत्रु पर विजय पाई है? तो अंगद ने बताया कि उन्होंने वीरवर बालि पर विजय प्राप्त की। रावण ने तुरन्त कहा बालि को तो छलपूर्वक मारा गया था अर्थात् छिपकर मारने में कौन सी वीरता है ? फिर अंगद दूसरा नाम बताते हैं कि राम ने भृगु के पराक्रमी पुत्र परशुराम का मान मर्दन किया है। इस पर रावण ने कहा कि वह (परशुराम) तो महादीन ब्राह्मण था। उसमें युद्ध की शक्ति ही कहाँ थी? अंगद इसकी काट करते हुए कहते हैं कि वह दीन क्यों हैं ? उन्होंने अनेक बार पृथ्वी भर के क्षत्रियों को मार डाला था। इतना ही नहीं उन्होंने ही प्रसिद्ध योद्धा सहस्रार्जुन (हैहयराज) का वध कर प्राण लिए थे। तब रावण पूछता है कि हैहय कौन है? अंगद ने बताया कि तुम उस बलशाली हैहयराज को भूल गये जिन्होंने तुम्हें खेल-खेल में ही बाँध लिया था और अपनी घुड़साल में रखा था।
काव्य सौन्दर्य :
- यहाँ रावण की गर्वोक्तियों का मुंहतोड़ जवाब अंगद ने दिया है।
- परशुराम तथा सहस्रार्जुन का बल विख्यात रहा है।
- अनुप्रास अलंकार।
- विषयानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[6] अंगद-सिंधु तर्यो उनको वनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँध्योई बाँधत सो न बँध्यो उन वारिधि बाँधि कै बाट करी।।
अजहूँ रघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हें दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछ जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी।। (2009,14)
शब्दार्थ :
वनरा = बन्दर (हनुमान); धनुरेख = धनुष की रेखा लक्ष्मण ने सीता की सुरक्षा के लिए पर्णकुटी के सामने धनुष की नोंक से जो रेखा खींची थी उसे रावण पार नहीं कर पाया था; तरी = पार की गई; वारिधि = समुद्र; बाट = मार्ग; दसकंठ = रावण; तूलनिक रुई; जराई जरी = रत्नों से जड़ी हुई।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में राम की महिमा तथा रावण की दीनता का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
अंगद राम की महिमा का बखान करते हुए अहंकारी रावण से कहता है कि उन श्रीराम का छोटा बन्दर (हनुमान) विशाल सागर को पार कर गया और स्वयं को बहुत बलशाली कहने वाले तुम लक्ष्मण द्वारा खींची गई एक धनुष की रेखा को भी लाँघ नहीं पाए। उन श्रीराम ने विशालकाय सागर को सेतुबन्ध द्वारा बाँधकर रास्ता बना लिया किन्तु तुम छोटे से बन्दर को बाँधने का प्रयास करते हुए भी नहीं बाँध सके। अंगद कहते हैं कि हे दशकंठ रावण ! आज भी तुम्हें रघुकुल के स्वामी श्रीराम के प्रताप का बात बोध नहीं हुआ है। वे महाप्रतापी हैं और तुम बहुत हीन हो क्योंकि तुम पूरा प्रयास करके तेल और रूई के सहारे भी छोटे से बन्दर की पूँछ को नहीं जला पाये। इसके विपरीत वह बन्दर रत्नों से जड़ी तुम्हारी लंका को जला गया।
काव्य सौन्दर्य :
- यहाँ राम की महिमा तथा रावण के हीनत्व का अंकन हुआ है।
- यमक, अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री की छटा दर्शनीय है।
- विषय के अनुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[7] रावण- महामीचु दासी सदा पाइँ धोवै
प्रतीहार हैं कै कृपा सूर जोवै।
क्षमानाथ लीन्हें रहै छत्र जाको।
करैगो कहा सत्रु सुग्रीव ताकौ”
सका मेघमाला, सिखी पाककारी
करें कोतवाली महादंडधारी।
पढ़े, वेद ब्रह्मा सदा द्वार जाके,
कहा बापुरो, सत्रु सुग्रीव ताके।
शब्दार्थ :
महामीचु = मृत्यु; प्रतीहार = द्वारपाल; सूर = सूर्य; जोवै= देखता है; क्षमानाथ = चन्द्रमा; ताकौ = उसका; सका = भिश्ती; मेघमाला = बादल; सिखी = अग्नि; पाककारी = रसोइया; बापुरो = बेचारा।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्। प्रसंग-इस पद्यांश में रावण ने अपनी महिमा का स्वयं बखान किया है।
व्याख्या :
रावण कहता है कि हे अंगद ! महामृत्यु जिसकी (रावण की) दासी बनकर सदैव पैर धोती रहती है, सूर्य द्वारपाल होकर जिसकी कृपा की बाट जोहता रहता है, चन्द्रमा जिसका छत्र लिए रहता है। उस रावण का शत्रु सुग्रीव क्या बिगाड़ पायेगा।
मेघमालाएँ जिसके यहाँ भिश्ती का काम करती हैं, स्वयं अग्नि जिसकी रसोइया है, यमराज जिसके यहाँ कोतवाल का दायित्व निभाता है, जिसके दरवाजे पर ब्रह्मा सदैव वेदों का पाठ करते हैं उस रावण का शत्रु बेचारा सुग्रीव क्या कर लेगा।
काव्य सौन्दर्य :
- रावण की महिमा का वर्णन हुआ है।
- अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री। भावों के अनुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।
[8] डरै गाय बि, अनाथै जो भाजै।
परद्रव्य छाँई, परस्त्रीहि लाजै
परद्रोह जासौं न होवै रती को
सु कैसे लरै वेष कीन्हें यती को।।
तपी गयी विप्रनि छिप ही हरौं।
अवेद-द्वेषी सब देव संहरौ।
सिया न दैहों, यह नेम जी धरौं
अमानुषी भूमि अवानरी करौं।
शब्दार्थ :
विप्र = ब्राह्मण; परद्रव्य = दूसरे का धन; परद्रोह = विरोध; रती = कामदेव की स्त्री; यती = संन्यासी; छिप्र= शीघ्र; अवानरी= बानरों से हीन; अमानुषी = मनुष्यों से हीन।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद्यांश में रावण ने राम के गुणों को कमजोरी तथा अपने दोषों को गुणों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
व्याख्या :
जो गाय और ब्राह्मण से डरता है अर्थात् गाय और ब्रह्म के समक्ष भीरू बन जाता है, दूसरे के धन को छोड़ देता है, दूसरे की स्त्री के सामने लज्जित हो उठता है, जिससे एक रत्तीभर परद्रोह (विरोध). नहीं होता है, संन्यासी का वेष धारण करने वाला वह राम कैसे युद्ध कर सकता है। अर्थात् वह युद्ध नहीं कर पायेगा।
तपस्या में लीन ब्राह्मणों का शीघ्र ही हरण कर लूँगा, जो वेदों को न मानने वालों (राक्षसों) के शत्रु देवता हैं उनका संहार कर दूंगा, मैंने अपने हृदय में यह दृढ़ कर लिया है कि सीता को नहीं दूंगा और समस्त भूमि को नर व वानरों से रहित कर दूंगा।
काव्य सौन्दर्य :
- यहाँ रावण ने राम के गुणों को कमजोरियों तथा अपने अवगुणों को वीरता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
- अनुप्रास अलंकार तथा पद मैत्री।
- भावानुरूप ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
[9] अंगद-पाहन तै पतिनी करि पावन, टूक कियौ हर को धनु को रे?
छत्र विहीन करी छन में छिति गर्व हर्यो तिनके बल को रे।।
पर्वत पुंज पुरैनि के पात समान तरे, अजहूँ धरको रे।
होइँ नरायन हूँ पै न ये गुन, कौन इहाँ नर वानर को रे?
शब्दार्थ :
पाहन = पत्थर; पावन = पवित्र; हर = शिव; छिति = पृथ्वी; विहीन = रहित; पुंज = समूह; पुरैनि = कमल; धरको = धड़का; नरवानर को = मनुष्य और बन्दरों की तो बात ही क्या।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
यहाँ पर अंगद द्वारा श्रीराम की महिमा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या :
अंगद कहता है कि हे रावण तुमको राम की महिमा का ज्ञान नहीं है। जिन्होंने पत्थर रूपी अहिल्या को स्पर्शमात्र से पवित्र (उद्धार) कर दिया, जिस शिव के धनुष को कोई भी वीर हिला नहीं पाया था उसके टुकड़े कर दिए, जिन्होंने समस्त पृथ्वी को क्षण भर में छत्र रहिल कर दिया उनकी शक्ति का कौन पार पा सकता है। राम के अलावा ऐसा कौन कर सकता है। जिस राम के स्पर्श से पर्वत समूह कमल पत्तों की तरह सागर के पानी पर तैर गये जिसका धमाका तुम्हारे हृदय पर आज भी है। ये गुण तो नारायण में भी नहीं हैं। यहाँ मनुष्य या बन्दर कौन है? अर्थात् यहाँ राम के साथ होने वाले महान् गुणवान हैं। राम में नारायण से अधिक बल प्रभाव है।
काव्य सौन्दर्य :
- राम की परम शक्ति का वर्णन हुआ है।
- यमक, अनुप्रास अलंकार तथा पदमैत्री की सुन्दरता दर्शनीय है।
- प्रवाहमयी ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
विश्वास की साँझ भाव सारांश
आधुनिक हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि गिरिजा कुमार माथुर ने अपने काव्य में जीवन-संवेदना के विविध रूप अंकित किए हैं। आपका काव्य विषम स्थितियों में भी उत्प्रेरणा देने की क्षमता से युक्त है। विश्वास की साँझ कविता में आस्था और विश्वास की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। ये जीवन मूल्य जीवन के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं उसका संकेत यह कविता करती है। कवि कहते हैं कि जीवन भर संघर्ष करने के बाद भी जिन्दगी में कुछ उपलब्धि न मिल सकी।
आज तक आस्था और विश्वास के सहारे जो संघर्ष करता रहा, आज वे भी डगमगा रहे हैं। मेरी दयनीय दशा हो गयी है। मैंने नियति से आस्था और विश्वास के अतिरिक्त सब कुछ लूट लेने को कहा किन्तु उसने स्पष्ट कर दिया कि जीवन में कुछ भी साथ नहीं होता है। वस्तुतः आस्था और विश्वास के कवच-कुंडल दान करने के बाद ही निहत्थे होकर मृत्यु से संघर्ष करना होता है। इस प्रकार इस कविता में आस्था और विश्वास त्याग के प्रेरक बनकर प्रस्तुत हुए हैं।
विश्वास की साँझ संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
[1] कुछ न पाया जिन्दगी में
रही साँझ अनाथ
लौट आये युद्ध से हम
हाय खाली हाथ
आज तक मानी नहीं
वह आज मानी हार
एक था विश्वास
वह भी छोड़ता है साथ।
शब्दार्थ :
जिन्दगी = जीवन; अनाथ = बिना संरक्षक, असहाय; साँझ = संध्या; साथ छोड़ना = दूर होना।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘विश्वास की साँझ’ पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता गिरिजा कुमार माथुर हैं।
प्रसंग :
कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से जीवन की व्यस्तता एवं संघर्ष का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।
व्याख्या :
जीवन संवेदनाओं में विभिन्न रूपों का अंकन करने की सामर्थ्य रखने वाले कवि कहते हैं कि समस्त जीवन भर संघर्ष करने के बाद भी जीवन की संध्या अनाथ, असहाय रह . गई। हम जीवन युद्ध में संघर्ष करते-करते खाली हाथ लौट आए हैं। कुछ भी उल्लेखनीय प्राप्त नहीं कर सके हैं। संघर्षशील जीवन जीते हुए मैंने जो हार स्वीकार नहीं की थी आज स्वीकार कर ली है। मेरे पास मात्र एक विश्वास था जो संघर्ष की प्रेरणा देता था। आज वह भी साथ छोड़ रहा है।
काव्य सौन्दर्य :
- जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण का अंकन हुआ है।
- सरल सुबोध किन्तु प्रभावी भाषा में विषय का प्रतिपादन हुआ है।
[2] अब अकेला हूँ झुका है माथ
सरल होगा आखिरी आघात
कहा मैंने नियति से
सब खत्म कर दे
लूट ले
एक मेरी आस्था,
विश्वास रहने दे।
शब्दार्थ :
माथ = मस्तक; आघात = प्रहार; नियति = भाग्य; खत्म = समाप्त; आखिरी = अन्तिम।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद्यांश में जीवन के उत्तरार्द्ध की असहाय अवस्था (वृद्धावस्था) में होने वाली निराशाजन्य स्थिति का अंकन हुआ है।
व्याख्या :
जीवन में हार मानने पर असहाय हुए कवि कहते हैं कि मैं आज अकेला रह गया हूँ, कोई संगी-साथी नहीं है। इसलिए निराशा से आज मेरा मस्तक झुक गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि मृत्यु का अन्तिम प्रहार अधिक कष्टप्रद नहीं होगा। मैंने नियति से प्रार्थना की कि मेरे पास जो भी है उस सब को तू समाप्त कर दे और लूटकर ले जा; किन्तु मेरी आस्था और विश्वास को मेरे ही पास रहने दे। मैं इनसे रहित नहीं होना चाहता हूँ।
काव्य सौन्दर्य :
- जीवन-निराशा का स्वाभाविक अंकन हुआ है।
- अनुप्रास अलंकार तथा सरल, सुस्पष्ट भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।
[3] नियति बोली
आस्था वाले
अरे ओ होश कर
जिन्दगी में साथ देता है
कभी कोई बशर
असलियत से युद्ध होता है निहत्था
जान ले
इसलिए तू
पूर्व इसके
कवच कुण्डल दान दे।
शब्दार्थ :
नियति = भाग्य, अदृष्ट; होश = भली प्रकार जान ले; असलियत = वास्तविकता; निहत्था = खाली हाथ; कवच-कुण्डल = कवच और कुण्डल कर्ण के पास थे; जिनके रहते उसे कोई पराजित नहीं कर सकता था किन्तु इन्द्र ने वे कर्ण से दान में माँग लिए और दानवीर कर्ण मना नहीं कर पाए।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
इस पद्यांश में स्पष्ट किया गया है कि जब तक आस्था तथा विश्वास का त्याग नहीं होगा, जीवन समापन असंभव है।
व्याख्या :
जब नियति से सब कुछ लेने पर भी आस्था एवं विश्वास को छोड़ देने की बात कही तो नियति ने कहा कि हे आस्था चाहने वाले मानव? तू भली प्रकार जान ले कि जीवन में कोई किसी का साथ नहीं देता है। जीवन की वास्तविकता तो मृत्यु है, उससे खाली हाथ ही संघर्ष करना होता है अर्थात् मृत्यु के समय मानव के साथ कुछ नहीं होता है। इसलिए हे मानव ! तू आस्था और विश्वास रूपी कवच-कुण्डल का दान कर दे।
काव्य सौन्दर्य :
- यहाँ पर आस्था और विश्वास त्याग की भावना को परिपुष्ट करते हैं।
- सरल, सुबोध एवं स्पष्ट भाषा में गम्भीर विषय को समझाया गया है।