MP Board Class 11th Special Hindi अपठित गद्यांश
अपठित गद्यांशों/पद्यांशों के शीर्षक एवं सारांश लेखन
निर्देश : अपठित गद्यांश/पद्यांश वह रचना है, जो पूर्व में पढ़ा हुआ नहीं होता। इसके द्वारा छात्रों के बौद्धिक स्तर और पाठ्येत्तर मनन-अध्ययन का पता चलता है। जिस छात्र का भाषा ज्ञान जितना समृद्ध होता है, वह अपठित गद्यांश/पद्यांश को उतनी ही सरलता से हल कर सकता है।
अपठित गद्यांश/पद्यांश हल करते समय निम्नांकित बातों का ध्यान रखना चाहिए
- मूल अवतरण का बड़ी एकाग्रता से समग्र वाचन कर, उसके मूल भाव को समझने का प्रयास कीजिए। वाचन कम से कम चार बार कीजिए।
- मूल भाव से शीर्षक ज्ञात हो जाता है उसे अलग से लिख लीजिए।
- प्रश्नों के उत्तर मूल अवतरण में सन्निहित होते हैं। उनके अनुसार अपनी भाषा में उत्तर दीजिए।
- मूल अवतरण का एक-तिहाई में सारांश दीजिए। सारांश ऐसा सुगठित होना चाहिए कि उसमें सभी प्रमुख बातें आ जायें।
- वर्तनी की भूलों से बचने का प्रयास कीजिए।
- शीर्षक सरल, संक्षिप्त और सारगर्भित होना चाहिए। यहाँ कुछ गद्यांश एवं पद्यांश दिये गये हैं, उनका गम्भीरतापूर्वक मनन कीजिए।
MP Board Class 11th Special Hindi अपठित गद्यांश
(1) उदारता का अभिप्राय केवल मिःसंकोच भाव से किसी को धन दे डालना ही नहीं वरन् दूसरों के प्रति उदार भाव रखना भी है। उदार पुरुष सदा दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक भाव से रहता है। यह न समझो कि केवल धन से उदारता हो सकती है। सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। धन की उदारता के साथ सबसे बड़ी एक और उदारता की आवश्यकता है। वह यह है कि उपकृत के प्रति किसी प्रकार का अहसान न जताया जाए। अहसान दिखाना उपकृत को नीचा दिखाना है। अहसान जताकर उपकार करना अनुपकार है। [2012]
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) उदार पुरुष की क्या विशेषता होती है?
(3) सच्ची उदारता किसमें है?
(4) अनुपकार क्या है?
(5) विरुद्धार्थी लिखिए-उदार, सच्ची।
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक ‘उदारता का अर्थ’ है।
(2) उदार पुरुष दूसरों के प्रति उदार भाव रखता है। वह दूसरों के विचारों का आदर करता है और समाज में सेवक भाव से रहता है।
(3) सच्ची उदारता इस बात में है कि मनुष्य को मनुष्य समझा जाय।
(4) अहसान जताकर उपकार करना अनुपकार है।
(5) उदार-कठोर, सच्ची -झूठी।
(2) जो साहित्य मुर्दे को भी जिन्दा करने वाली संजीवनी औषधि का भण्डार है, जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्पीड़ितों के मस्तक को उन्नत करने वाला है, उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो गति नहीं करती वह अज्ञानांधकार की गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वशाली साहित्य की सेवा और श्री वृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाज द्रोही है, वह देश द्रोही है, वह जाति द्रोही है। [2013]
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(2) संजीवनी औषधि का भण्डार क्या है?
(3) साहित्य के संवर्धन की चेष्टा कब अपना अस्तित्व खो बैठती है?
(4) समाजद्रोही एवं देशद्रोही कौन है?
(5) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक ‘सत्साहित्य की महत्ता’।
(2) संजीवनी औषधि का भण्डार प्रेरक साहित्य है।
(3) साहित्य के संवर्धन की चेष्टा गतिहीन होने पर अपना अस्तित्व खो बैठती है।
(4) महत्वशाली साहित्य की सेवा और श्री वृद्धि न करने वाला मनुष्य समाजद्रोही एवं देशद्रोही है।
(5) सारांश-मुर्दे में जान डालने वाले, पतितों एवं उत्पीड़ितों को उन्नत बनाने वाले साहित्य के उत्पादन एवं संवर्धन की चेष्टा अनिवार्य है। जो सामर्थ्यवान मनुष्य श्रेष्ठ साहित्य की सेवा नहीं करता है वह राष्ट्र विरोधी है।
(3) मनुष्य के कर्त्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के भले और बुरे कर्मों का ज्ञान और दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस, मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है और अन्त में यदि उसका मन पक्का हुआ तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपने कर्म का पालन करता है और यदि उसका मन कुछ काल तक दुविधा में पड़ा रहा तो स्वार्थता निश्चित उसे आ घेरेगी और उसका चरित्र घृणा योग्य हो जायेगा। (2009)
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश का सार 30 शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(1) कर्त्तव्य-पालन।
(2) मन की दृढ़ता के अभाव में मनुष्य सद्-असद् को पहचान नहीं पाता। आत्मा मनुष्य को कर्त्तव्य का ज्ञान कराती है, इसके विपरीत दुविधा में पड़ा व्यक्ति स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने चरित्र को घृणित बना लेता है।
(4) “कई लोग समझते हैं कि अनुशासन और स्वतन्त्रता में विरोध है, किन्तु वास्तव में यह भ्रम है। अनुशासन द्वारा स्वतन्त्रता नहीं छीनी जाती, बल्कि दूसरों की स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। सड़क पर चलने के लिए हम स्वतन्त्र हैं। हमें बाईं तरफ से चलना चाहिए, किन्तु हम चाहें तो बीच से भी चल सकते हैं। इससे हम अपने प्राण तो संकट में डालते हैं, दूसरों की स्वतन्त्रता भी छीनते हैं। विद्यार्थी भारत के भावी राष्ट्र-निर्माता हैं। उन्हें अनुशासन के गुणों का अभ्यास अभी से करना चाहिए जिससे वे भारत के सच्चे सपूत कहला सकें।”
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का सार लिखिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(1) प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनुशासन आवश्यक है। इससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा होती है अपना जीवन सुरक्षित होता है और दूसरों का भी। भविष्य के आशा पुंज विद्यार्थियों को अनुशासन में रहना चाहिए, जिससे वे भावी भारत का स्वस्थ निर्माण कर सकें।
(2) अनुशासन और विद्यार्थी जीवन।
(5) संस्कार ही शिक्षा है। शिक्षा इन्सान को बनाती है। आज के भौतिक युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सुख पाना रह गया है। अंग्रेजों ने देश में अपना शासन सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ऐसी शिक्षा को उपयुक्त समझा, यह विचारधारा हमारी मान्यता के विपरीत है। आज की शिक्षा प्रणाली एकांगी है, उसमें व्यावहारिकता का अभाव है, श्रम के प्रति निष्ठा नहीं है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक जीवन की प्रधानता थी। यह शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं थी। अत: आज के परिवेश में आवश्यक हो गया है कि इन दोषों को दूर किया जाये अन्यथा यह दोष सुरसा के समान हमारे सामाजिक जीवन को निगल जाएगा। [2010, 14]
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
(2) आज के युग में शिक्षा का क्या उद्देश्य है?
(3) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) संस्कार की महत्ता।
(2) आज के युग में शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी करके उदर पूर्ति तथा सुख पाना रह गया है।
(3) संस्कारों के द्वारा मनुष्य वाली शिक्षा भौतिक सुखों को प्रदान करने वाली हो गयी है। शासन चलाने के उद्देश्य से प्रारम्भ हुई इस शिक्षा में व्यावहारिकता, परिश्रम तथा आध्यात्मिकता का अभाव है। शिक्षा से इन दोषों को दूर करना आवश्यक है।
(6) ‘जनता के साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं है। अगर ऐसा होता तो ‘किस्सा तोता मैना’ और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को पाने के लिए बुलन्दी बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन के सांस्कृतिक परिष्कार की, जबकि साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। [2008]
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) जनता के साहित्य का क्या अर्थ है?
(3) सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए क्या जरूरी है?
(4) साहित्य के अन्दर क्या होता है?
(5) साहित्य का उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक ‘जनता के साहित्य का अर्थ’ है।
(2) जनता के साहित्य का अर्थ है सांस्कृतिक भावों को पाने की सूक्ष्म पहचान एवं जनता के सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार की स्थिति को प्राप्त करने वाला साहित्य।
(3) सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए सुनने वाले की शिक्षा उसके मन का सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार जरूरी है।।
(4) साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव निहित होते हैं।
(5) साहित्य का उद्देश्य है सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार ।
(7) कवि अपनी कल्पना.के पंखों से, इसी विश्व के गीत लेकर अनन्त आकाश में उड़ता है और उन्हें मुक्त व्योम में बिखेरकर अपने भाराक्रान्त हृदय को हल्का कर फिर अपने विश्व नीड़ में लौट आता है। इस क्रिया से कवि अपने जीवन की विश्रान्ति पाता है और स्वस्थ होकर वह नूतन प्रभाव में नूतन हृदय से नित नूतन संसार का स्वागत करता है। यदि ऐसा न हो तो कवि भी अन्य सांसारिक प्राणियों की भाँति ही, विश्व के कोलाहल में ही अपने आपको खो दे और उसके द्वारा संसार को उन अमृत गीतों से वंचित रहना पड़े जिनके सरल शीतल स्रोत में बहकर मानव जगत् अपने संतप्त प्राणों को सान्त्वना का अनुलेप प्राप्त करता है। [2008, 09]
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) कवि अपने भाराक्रान्त हृदय को किस प्रकार हल्का करता है?
(3) कवि नित नूतन संसार का स्वागत कैसे करता है?
(4) अमृत गीतों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक कवि की कल्पना’ है।
(2) कवि अपने भाराक्रान्त हृदय को विश्व के गीतों को आकाश में उड़ते हुए उन्हें मुक्त व्योम में बिखेरकर हल्का करता है।
(3) कवि अपने जीवन में स्वस्थ रहते हुए जीवन में शान्ति प्राप्ति से नित नये प्रभाव से नूतन संसार का स्वागत करता है।
(4) अमृत गीतों से तात्पर्य शीतल स्रोत द्वारा मानव के अतृप्त मन को तृप्त करना है।
(8) हम एक ऐसे सभ्य समाज में जिन्दा हैं जिसमें सभ्यता जैसे-जैसे विकसित हुई वैसे-वैसे आदमी जंगली और नंगा होता गया। सोचो कौन से कारण हैं कि कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ माल गोदामों में बन्द किए हुए हैं। लोग भूख से बिलबिला रहे हैं और उन्हें दामों के बढ़ने का इन्तजार है। मानवता को रौंदते हुए अपने लाभ के लिए जीवन रक्षक दवाएँ तक नकली बनाने में लगे हुए हैं। कपड़ा मिलों में रात-दिन कपड़ा बनाया जा रहा है और लोग नंगे है। खेतों में फसलें लहलहा रही हैं और किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। रेखाएँ, रेखा गणित से बाहर आकर गरीबों की बस्तियों में बस गयी हैं। एक को दूसरे की चिन्ता नहीं है। हर आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है। बर्बरता जंगलीपन की निशानी मानी जाती है, सभ्य समाज और सभ्यता को तो उससे दूर ही रहना चाहिए। [2008]
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) हम कैसे समाज में जिन्दा हैं?
(3) कुछ लोग क्या कर रहे हैं?
(4) आदमी स्वार्थ में कैसा हो गया है?
(5) सभ्य समाज को किससे दूर रहना चाहिए?
उत्तर-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘बर्बर समाज’ है।
(2) हम सभ्य समाज में जिन्दा हैं।
(3) कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ मालगोदामों में बन्द किए हुए हैं।
(4) आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है।
(5) सभ्य समाज को जंगलीपन से दूर रहना चाहिए।
(9) हमें स्वराज्य मिला परन्तु सुराज आज भी हमसे बहुत दूर है। कारण स्पष्ट है, देश को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से कठोर परिश्रम करना न हमने सीखा है, न सीखने के लिए ईमानदारी से उस ओर उन्मुख ही हैं। श्रम का महत्त्व न तो हम जानते हैं, न मानते हैं। हमारी नस-नस में आराम तलबी समाई है। हाथ से काम करने को हीनता समझते हैं। कामचोरी से हमारा नाता घना है। कम से कम काम करके अधिक दाम पाने की दूषित मनोवृत्ति राष्ट्र की आत्मा में घर कर गई है। इससे हमें मुक्त होना होगा और आज की अपेक्षा कई गुना कठिन परिश्रम करना होगा। तभी देश आगे बढ़ेगा, समाज सुखी होगा और तभी स्वराज्य सुराज में परिणित होगा। [2011]
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) सुराज हमसे दूर क्यों है?
(3) लेखक ने किस दूषित मनोवृत्ति की ओर संकेत किया है?
(4) स्वराज्य, सुराज में कब परिणित होगा?
उत्तर-
(1) शीर्षक ‘श्रम का महत्त्व’।
(2) सुराज हमसे इसलिए दूर है क्योंकि न हमने कठिन परिश्रम करना सीखा है और न सीखने का प्रयास कर रहे हैं। हमने श्रम के महत्त्व को स्वीकार नहीं किया है।
(3) कामचोरी से नाता जोड़ने वाले हम लोगों की कम से कम काम करके अधिक से अधिक दाम पाने की दूषित वृत्ति की ओर लेखक ने संकेत किया है।
(4) हम आज से कई गुना कठिन परिश्रम करेंगे तभी देश का विकास होगा। कठोर श्रम से ही समाज सुखी होगा और तब ही स्वराज्य सुराज में परिणित होगा।
(10) लक्ष्य-बेधन की महत्त्वाकांक्षा भी एक उपकरण है। जब तक महान् लक्ष्य को प्राप्त करने की बलवती आकांक्षा मानव-हृदय में जाग्रत न होगी, तब तक वह कभी भी कृत-संकल्प होकर न लक्ष्य को स्थिर कर सकेगा, न उसके बेधन के लिए प्रेरित होगा। लक्ष्य-बेध की ओर बढ़ते हुए पथिक को यह शक्ति प्रदान करती है। इसमें स्वार्थ की भावना नहीं होनी चाहिए, मनुष्य को नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में ही महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए। इस कार्य में आशा, आत्म-विश्वास और तन्मयता के साथ-साथ संकल्प दृढ़ता भी होनी चाहिए। संकल्पों में शिथिलता मनुष्य को लक्ष्य से दूर करती है।
प्रश्न-
(1) उपर्युक्त गद्यांश का सार 30 शब्दों में लिखिए।
(2) उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(1) वही मनुष्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, जो प्रतिपल आगे बढ़ने की दृढ़ इच्छा रखता है। उसमें स्वार्थ की भावना नहीं आनी चाहिए। वह आशा, आत्म-विश्वास, तन्मयता और दृढ़ संकल्प के गुणों से ओत-प्रोत होना चाहिए।
(2) महत्त्वाकांक्षा और संकल्प बल।
(11) जनसंख्या विस्फोट से सारा देश भयाक्रान्त है। जहाँ भी जाओ लोगों की अनन्त भीड़ दिखाई देती है। महानगरों में तो लोगों का पैदल चलना मश्किल हो गया है। चारों तरफ बेरोजगारी का संकट छाया हुआ है। निर्धनता मुँह फैलाए खड़ी है। लोगों का जीवन स्तर गिरता जा रहा है। गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्या आदि का संकट गहराता जा रहा है। आबादी और साधनों का सन्तुलन टूट चुका है। [2015, 17]
प्रश्न-
(1) उक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(2) लोगों का पैदल चलना कहाँ मुश्किल हो गया है?
(3) चारों तरफ कौन-सा संकट छाया हुआ है?
(4) सारा देश किससे भयाक्रांत है?
(5) ‘संकट’ और ‘गरीब’ शब्दों के समानार्थी शब्द लिखो।
(6) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक-‘जनसंख्या विस्फोट’।
(2) महानगरों में लोगों का पैदल चलना मुश्किल हो गया है।
(3) चारों तरफ बेरोजगारी का संकट छाया हुआ है।
(4) सारा देश ‘जनसंख्या विस्फोट’ से भयाक्रान्त है।
(6) सारांश-जनसंख्या विस्फोट के कारण अनन्त भीड़ बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी, निर्धनता बढ़ रही है। गिरते जीवन स्तर के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्या विकट
हो रही है। आबादी और साधनों में कोई संतुलन नहीं रह गया है।
(12) ‘चरित्र एक ऐसा हीरा है, जो हर किसी पत्थर को घिस सकता है।’ चरित्र केवल शक्ति ही नहीं सब शक्तियों पर छा जाने वाली महाशक्ति है। जिसके पास चरित्र रूपी धन होता है,
शब्द उसके सामने संसार भर की विभूतियाँ, सम्पत्तियाँ और सुख-सुविधाएँ घुटने टेक देती हैं। चरित्र एक साधना है जिसे अपने प्रयास से पैदा किया जा सकता है। सद्गुणों पर चलकर, प्रेम, करुणा, मानवता, अहिंसा को अपनाना तथा लोभ, मोह, निंदा, उग्रता, क्रोध, अहंकार को छोड़कर चरित्र बल प्राप्त किया जा सकता है। चरित्रवान व्यक्ति छाती तानकर, नजरें उठाकर शान से जीता है। [2016]
प्रश्न-
(1) गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(2) चरित्रवान व्यक्ति किस प्रकार जीवन जीता है?
(3) चरित्रवान व्यक्ति के सामने कौन घुटने टेक देता है?
(4) गद्यांश का सारांश 30 शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
(1) शीर्षक-‘चरित्र बल’।
(2) चरित्रवान व्यक्ति छाती तानकर और नजरें उठाकर शान से जीता है।
(3) चरित्रवान व्यक्ति की सामने समस्त संसार की विभूतियाँ, सम्पत्तियाँ और सुख-सुविधाएँ घुटने टेक देती हैं।
(4) सारांश-चरित्र वह महाशक्ति है जिसके सामने सभी घुटने टेकते हैं। इसकी प्राप्ति लोभ, मोह, निंदा, क्रोध आदि अवगुणों को छोड़कर प्रेम, करुणा, अहिंसा आदि सद्गुणों के अपनाने से होती है। चरित्रवान छाती तानकर व नज़र उठाकर जीता है।