MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति कवि परिचय (Chapter 1-5)

1. तुलसीदास
[2008,09, 14, 17]

  • जीवन-परिचय

लोकनायक तुलसीदास कविता कामिनी के ललाट के ज्योति-बिन्दु हैं। इस ज्योति-बिन्दु ने अपने चारों ओर प्रकाश विकीर्ण किया हुआ है। ऐसे महान् कवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 वि. में बाँदा जिले के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। परन्तु कुछ लोग सोरों (एटा) को ही इनका जन्म-स्थान मानते हैं। तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। इनके सिर से बाल्यावस्था में ही माता-पिता का साया उठ गया था और उनका पालन-पोषण नरहरिदास ने किया था। उन्होंने तुलसीदास को गुरुमंत्र दिया, रामकथा सुनाई तथा संस्कृत की शिक्षा दी। इन्होंने काशी में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया तथा दीनबन्धु पाठक की अति सुन्दरी कन्या से विवाह किया। उनका नाम रलावली था। भावुक युवक तुलसीदास अपनी प्रिया के प्रेम और सौन्दर्य में सब कुछ भूल बैठा। विदुषी रत्नावली ने अपने अत्यन्त ज्ञान सम्पन्न पति के प्रेम और आसक्ति को ‘अस्थि-चर्ममय देह’ के प्रति देखकर उन्हें बहुत ही दुत्कारा। उनके ज्ञानचक्षु वैराग्य की ज्योति पाकर अलौकिक प्रकाश को विकीर्ण करने लगे।

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तुलसी ने संसार त्याग दिया। राम-गुलाम तुलसी, राम के चरित गायन में लग गए और स्वयं को अपने आराध्य राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। संवत् 1680 वि. में इस महात्मा ने शरीर के बन्धनों को तोड़ दिया और परमतत्त्व (राम) में लीन हो गए।

कहा भी है-
“संवत् सोलह सौ अस्सी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर।।

तुलसी में प्रेम की उन्मत्तता, उत्कृष्ट वैराग्य, राम की अनन्य एवं दास्यभाव की भक्ति एवं लोकमंगल की भावना भरी हुई थी।

  • साहित्य सेवा

एक आदर्श साहित्य सेवक का उद्देश्य अपने वृहद् लोक जीवन को सुख और शान्ति से परिपूर्ण बनाना होता है। ‘स्वान्तः सुखाय’ से ‘पर-अन्तः सुखाय’ के आदर्श को यथार्थ में स्थापित करने के लिए लोक मर्यादा की आवश्यकता का अनुभव तुलसी ने किया। तुलसी ने राम के लोकमंगल व लोककल्याणकारी रूप को अपनी लोकपावनी काव्य कृतियों के माध्यम से जनता-जनार्दन के सामने प्रतिष्ठापित किया है। तुलसी के काव्य का प्रमुख आधार रही है-‘राम राज्य की परिकल्पना’। तुलसी द्वारा परिकल्पित आदर्श राज्य की स्थापना आज के युग में भी बहुत प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हो गई है। कवि ने (तुलसी ने) अपनी साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाजगत, राजनीतिगत, आर्थिकस्थितिपरक तथा विविध जातिगत सम्बन्धों और उनके एकीकरण का अनन्यतम प्रयास किया है। प्रत्येक तरह की एवं प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का तर्कसंगत उपाय तुलसी ने प्रत्येक वर्ग के लिए अपने ही सृजित साहित्य में यथास्थान संकेतित किया है। अतः अपनी साहित्य सेवा द्वारा तुलसी ने महान् उद्देश्य की प्राप्ति की है। आवश्यकता है उनके साहित्य को अध्ययन व मनन किए जाने की और हो सके तो तद्नुसार अधिक से अधिक जीवन में यथार्थता लाने की।

  • रचनाएँ
  1. रामचरित मानस-यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति, धर्मदर्शन, भक्ति और कवित्व का अद्भुत् समन्वयकारी ग्रन्थ है।
  2. विनय पत्रिका-विनय पत्रिका भक्ति रस का अद्वितीय काव्य है। ब्रजभाषा में रचित ‘भक्तों के गले का हार’ है।
  3. कवितावली-कवितावली में कवित्त-सवैया छंदों में राम कथा का गायन किया गया है।
  4. गीतावली-गीतावली गेय-पद शैली का श्रेष्ठ कवित्व-प्रधान रामकाव्य है।
  5. बरवै रामायण’-यह बरवै छंद में रचित श्रेष्ठ काव्यकृति है। उपर्युक्त काव्य रचनाओं के अलावा तुलसीदास द्वारा रचित कृतियाँ हैं-
  6. रामलला नहरु,
  7. रामाज्ञा प्रश्नावली,
  8. वैराग्य संदीपनी,
  9. दोहावली,
  10. जानकी मंगल,
  11. पार्वती मंगल,
  12. हनुमान बाहुक तथा
  13. कृष्ण गीतावली।
  • भाव-पक्ष

(क) शक्ति, शील और सौन्दर्य का समन्वय-तुलसी ‘राम भक्ति’ शाखा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने भगवान राम के मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श रूप प्रतिपादित किया और अपने इष्ट राम में शील-शक्ति और सौन्दर्य का समन्वित स्वरूप देखा। इस तरह समग्र तुलसी-काव्य में भाव लोक की सम्पन्नता द्रष्टव्य है।

(ख) समन्वयवादी व्यापक दृष्टिकोण-तुलसी का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक एवं समन्वयवादी था। इन्होंने राम के भक्त होते हुए भी अन्य देवी-देवताओं की वंदना की है। तुलसी के काव्य में भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक विचारधारा पूर्णतः परिलक्षित हुई है। मानव मन की उदात्त भावनाओं, कर्त्तव्यपरायणता एवं लोक कल्याण का जैसा सुन्दर संदेश इनके काव्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं।

(ग) रससिद्धता-तुलसी रससिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में श्रृंगार, शान्त, वीर रसों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। शृंगार रस के दोनों पक्षों-संयोग व वियोग का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया गया है। रौद्र, करुण, अद्भुत रसों का सजीव चित्रण किया गया है। विनय पत्रिका’ में भक्ति और विनय का उत्कृष्टतम स्वरूप मिलता है।

(घ) लोकहित एवं लोक जीवन-तुलसी के काव्य में मानव हृदय की दशाओं का चित्रण सहज और प्राकृतिक है। उन्होंने लोकहित और लोक जीवन को सुखी बनाने के लिए माता-पिता, गुरु, पुत्र, सेवक, राजा-प्रजा का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। इनकी ‘ईश्वर भक्ति-विनय, श्रद्धा एवं करुणा से अभिभूत है। तुलसी के रामराज्य की कल्पना एक आदर्श है। इन्होंने मानवीय सिद्धान्तों पर आधारित समाज और शासन पद्धति के वृहद् स्वरूप को प्रस्तुत किया है।

(ङ) मतमतान्तरों में समन्वय-तुलसी के काव्य में सर्वोत्कृष्ट विशेषता है उनका समन्वयवादी स्वरूप। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें परस्पर समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-तुलसी के काव्य का कला-पक्ष भी भाव-पक्ष के ही समान पर्याप्त समृद्ध है। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस तरह उन्होंने अन्य बहुत-सी भाषाओं-ब्रज, अवधी आदि पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किया हुआ था और इन भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट कृतियों की रचना की। उनकी कृतियों में सभी भाषाओं के शब्दों का सहज समावेश है। तुलसीदास मुख्य रूप से अवधी भाषा के कवि हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। अवधी के साथ तुलसी ने ब्रजभाषा का भी प्रयोग किया है। रामचरित मानस अवधी में तथा कवितावली, गीतावली और विनय पत्रिका ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं। उनकी भाषा का गुण साहित्यिकता है। उनकी भाषा में सरलता, बोधगम्यता, सौन्दर्य चमत्कार, प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि सभी गुणों का समावेश है।

(2) शैली-तुलसीदास ने अपने समय की सभी प्रचलित काव्य शैलियों में रचनाएँ प्रस्तुत करके अपने वृहद् समन्वयवादी स्वरूप को प्रदर्शित किया। विभिन्न मतों, सम्प्रदायों और सिद्धान्तों की कटुता को मिटाकर उनमें समन्वय स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। तुलसीदास ने भाषा और छन्द विषयक क्षेत्र में भी समन्वयवादी प्रवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने अवधी, ब्रज-भाषाओं में समान रूप से रचनाएँ की हैं। इस समय प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सर्वया आदि सभी छन्दों का प्रयोग किया है।

(3) छन्द योजना-तुलसीदास ने जायसी की दोहा-चौपाई छन्दों में रामचरित मानस की रचना की। सूरदास की पद शैली में उन्होंने विनय पत्रिका और गीतावली रची। सवैया शैली में उन्होंने कवितावली की रचना की। दोहा का प्रयोग उन्होंने दोहावली में किया है।

(4)अलंकार-योजना-तुलसीदास का अलंकार विधान भी अत्यन्त मनोहर बन पड़ा है। उनकी उपमाएँ अति मनोहर हैं। उनके उपमा अलंकार को ही हम कहीं पर रूपक, कहीं उत्प्रेक्षा, तो कहीं दृष्टान्त के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं।

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  • साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास लोककवि हैं। उनके काव्य से जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उनकी लोकप्रियता के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि वास्तव में तुलसी ही हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं। तुलसीदास को गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़ा लोकनायक माना जाता है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने सच ही कहा है-

“कविता करके तुलसी न लसै,
कविता लसी या तुलसी की कला।”

2. मीराबाई
[2009, 12. 15]

  • जीवन-परिचय

हिन्दी साहित्य में मीराबाई का विशेष महत्त्व है। मीरा भक्त कवयित्री हैं। उनकी रचनाएँ हृदय की अनुभूति मात्र हैं। इस कारण इनकी रचनाएँ सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं।

मीराबाई का जन्म राजस्थान में जोधपुर में मेड़ता के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग हुआ था। ये राठौर रत्नसिंह की पुत्री थीं। बचपन में ही मीरा की माता का निधन हो गया। इस कारण ये अपने पितामह राव दूदाजी के साथ रहती थीं। राव दूदा जी कृष्णभक्त थे। उनका मीरा पर गहरा प्रभाव पड़ा। मीरा का विवाह चित्तौड़ के राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही वर्ष बाद इनके पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य कष्ट ने इनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया। इससे उनमें विरक्ति का भाव पैदा हो गया। वे साधु सेवा में ही जीवन यापन करने लगीं। वे राजमहल से निकलकर मन्दिरों में जाने लगी तथा साधु संगति में कृष्ण कीर्तन करने लगी। इसे चित्तौड़ के तत्कालीन राणा ने प्रतिष्ठा के विरुद्ध मानकर, उन्हें भाँति-भाँति की यातनाएँ देना शुरू कर दिया जिससे ऊबकर मीरा कृष्ण की लीलाभूमि मथुरा-वृन्दावन चली गयी और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया। इस तरह मीरा का समग्र जीवन कृष्णमय था। मीरा की भक्ति भावना बढ़ती गई और वे प्रभु-प्रेम में दीवानी बन गईं। संसार से विरक्त, कृष्ण भक्ति में लीन मीरा की वियोग भावना ही इनके साहित्य का मूल आधार है। मीरा अपने जीवन के अन्तिम दिनों में द्वारका पहुँच गईं। रणछोड़ भगवान् की भक्ति करने लगीं। वहाँ ही सन् 1546 ई. (संवत् 1603 वि.) में स्वर्ग सिधार गईं।

  • साहित्य-सेवा

मीराबाई द्वारा सृजित काव्य साहित्य में उनके हृदय की मर्मस्पर्शिनी वेदना है, प्रेम की आकुलता है तथा भक्ति की तल्लीनता है। उन्होंने अपने मन की अनुभूति को सीधे ही सरल, सहज भाव में अपने पदों में अभिव्यक्ति दे दी है। उनका साहित्य, भक्ति के आवरण में वाणी की पवित्रता व शुचिता को लिए हुए संगीत का माधुर्य है जिनसे सभी अनुशीलन कर्ताओं को मनोमुग्ध किया हुआ है। भक्तिमार्ग की पुष्टि करने में, मन को शान्ति देने में, मीरा की साहित्य सेवाएँ उत्कृष्ट हैं।

  • रचनाएँ

मीरा की रचनाओं में नरसी जी का मायरा, गीत-गोविन्द की टीका, राग गोविन्द, राग-सोरठा के पद प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में अपने आराध्य श्रीकृष्ण-गिरधर गोपाल के प्रति प्रेम के आवेश में गाये पदों के संग्रह मात्र हैं। मीराबाई की रचनाएँ वियुक्त हृदय की अनुभूति हैं। उनमें हृदय की टीस है, माधुर्य है, लालित्य है।

  • भाव-पक्ष
  1. विरह वेदना-मीराबाई भगवान कृष्ण के प्रेम की दीवानी थीं। उन्होंने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर प्रेम की बेल बोई थी। मीरा ने अपने प्रियतम (भगवान कृष्ण) के विरह में जो कुछ लिखा, उसकी तुलना कहीं पर भी नहीं की जा सकती। मीरा की विरह वेदना अकथनीय और अनुभूतिपरक है।
  2. रस और माधुर्य भाव-मीरा के साहित्य में माधुर्य भाव को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनकी रचनाओं में माधुर्य भाव प्रधान है, शान्त रस और श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।
  3. रहस्यवाद-मीरा के बहुत से पदों में उनका रहस्यवाद स्पष्ट प्रदर्शित होता है। इस रहस्यवाद में प्रियतम के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के सजीव चित्र हैं।
  • कला-पक्ष

(1) भाषा–मीरा की भाषा राजस्थानी-संस्कार से संयुक्त ब्रजभाषा है। उन्होंने राजस्थानी शब्दों और उच्चारणों का खूब प्रयोग किया है। परन्तु अपने पदों की रचना, उस युग की काव्यभाषा ब्रजभाषा में ही की। उनके कुछ पदों में भोजपुरी भाषा का भी पुट दिया हुआ है। मीरा की भाषा को शुद्ध साहित्यिक भाषा नहीं कहा जा सकता। वरन् उनकी भाषा जनभाषा ही कही जा सकती है, इसी जनभाषा का प्रयोग उनके समग्र साहित्य में मिलता है।

(2) शैली-मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। उनके पदों में गेयता है। गीति शैली पर रचित प्रत्येक पद-गिरधर गोपाल के प्रति आलम्बन प्रधान है तथा उसमें ‘माधुर्यता’ की उपस्थिति गायक और श्रोताओं को भावविलोडित करने वाली है। भाव-सम्प्रेषणता मीरा की गीति शैली की प्रधान विशेषता है। शैलीगत-प्रवाह-भाव को झंकृत कर बैठता है।

(3) अलंकार-मीराबाई ने अपनी रचना-कविता करने के उद्देश्य से नहीं की है। अतः हृदय से निकले गान में अलंकार अपने आप ही आकर जुड़ते रहे हैं। अधिकतर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि अलंकारों को इनकी रचनाओं में सर्वत्र देखा जा सकता है।

  • साहित्य में स्थान

मीरा ने हृदय में व्याप्त अपनी वेदना और पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मीरा को तीव्र वेदना की मूर्ति के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

3. सूरदास
[2008, 09, 13, 16]

  • जीवन-परिचय

महात्मा सूरदास का जन्म सन् 1478 ई. (संवत् 1535 वि.) में आगरा से मथुरा जाने वाले राजमार्ग पर स्थित रुनकता नामक गाँव में हुआ था। परन्तु कुछ अन्य विद्वान दिल्ली के समीप ‘सीही’ को इनका जन्म स्थान मानते हैं। पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु बल्लभाचार्य जी इनकी प्रतिभा से बहुत ही प्रभावित थे अतः आपकी नियुक्ति श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनिया के रूप में कर दी। महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा ‘अष्टछाप’ की स्थापना की और अष्टछाप के कवियों में सूरदास’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया। इस प्रकार आजीवन गऊघाट पर रहते हुए श्रीमद्भागवत के आधार पर प्रभु श्रीकृष्ण लीला से सम्बन्धित पदों की सर्जना करते थे और उनका गायन अत्यन्त मधुर स्वर में करते थे।

महात्मा सूरदास जन्मान्ध थे, यह अभी तक विवादास्पद है। सूर की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि एक जन्मान्ध द्वारा इतना सजीव और उत्तमकोटि का वर्णन नहीं किया जा सकता।

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एक किंवदन्ती के अनुसार, वे किसी स्त्री से प्रेम करते थे, परन्तु प्रेम की सम्पूर्ति में बाधा आने पर उन्होंने अपने दोनों नेत्रों को स्वयं फोड़ लिया। परन्तु जो भी कुछ तथ्य रहा हो, हमारे मतानुसार तो सूरदास बाद में ही अन्धे हुए हैं। वे जन्मान्ध नहीं थे।

सूरदास का देहावसान सन् 1583 ई. (संवत् 1640 वि.) में मथुरा के समीप पारसोली नामक ग्राम में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी की उपस्थिति में हुआ था। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के समय सूरदास “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान अपने तानपूरे पर अत्यन्त मधुर स्वर में कर रहे थे।

  • साहित्य-सेवा

सूरदास हिन्दी काव्याकाश के सूर्य हैं, जिन्होंने अपने काव्य कौशल से हिन्दी साहित्य की अप्रतिम सेवा की और अपने गुरु बल्लभाचार्य के सम्पर्क में आने के बाद पुष्टिमार्ग में दीक्षा ग्रहण की और दास्यभाव एवं दैन्यभाव के पदों की रचना करना छोड़ दिया। इसके स्थान पर वात्सल्य प्रधान सखाभाव की भक्ति के पदों की रचना करना शुरू कर दिया। अष्टछाप के भक्त कवियों में सूरदास अग्रणी थे। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य कृष्ण भक्ति का प्रचार करके जनसामान्य में तथा संगीतकारों में भक्ति रस से उनके मन को आप्लावित करना रहा था। इसके अतिरिक्त सूर ने अपने काव्य की साधना से प्रभुभक्ति और पवित्र प्रेम का निरूपण किया। सूर के सम्पूर्ण साहित्य में विनय, वात्सल्य और श्रृंगार ने अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है। वात्सल्य वर्णन को हिन्दी की अमूल्य निधि कहा गया है जिसमें मानव हृदय की प्रकृत अवस्था निर्विघ्न रूप से निरूपित है। बाल मनोविज्ञान के तो सूर अद्वितीय पारखी थे। शिशु चेष्टाओं का आंकलन कवि ने अपने ग्रंथों में स्वाभाविक रूप से किया है, जो बेजोड़ है।

  • रचनाएँ

विद्वानों के मतानुसार सूरदास ने तीन कृतियों का ही सृजन किया था, वे हैं-
(1) सूरसागर,
(2) सूर सारावली,
(3) साहित्य लहरी।

(1) इनमें सूरसागर ही उनकी अमर कृति है। सूरसागर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित सवा लाख गेय पद हैं। परन्तु अभी तक 6 या 7 हजार से अधिक पद प्राप्त नहीं हुए हैं।
(2) सूर सारावली में ग्यारह सौ सात छन्द संग्रहीत हैं। यह सूरसागर का सार रूप ग्रन्थ है।
(3) साहित्य लहरी में एक सौ अठारह पद संग्रहीत हैं। इन सभी पदों में सूर के दृष्ट-कूट पद सम्मिलित हैं। इन पदों में रस का सर्वश्रेष्ठ परिपाक हुआ है।

सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्णोपासक कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उनके काव्य में तन्मयता और सहज अभिव्यक्ति होने से उनका भावपक्ष अत्यन्त सबल और कलापक्ष अत्यन्त आकर्षक और सौन्दर्य प्रधान हो गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. भक्तिभाव-सूरदास कृष्ण के भक्त थे। काव्य ही भगवत् भजन एवं उनका जीवन था। एक भक्त हृदय की अभिव्यक्ति उनके काव्य में हुई है। सूर की भक्ति सखा भाव की भक्ति थी। कृष्ण को सखा मानकर ही उन्होंने अपने आराध्य की समस्त बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का वर्णन पूर्ण तन्मयता से किया है।
  2. सहृदयता और भावुकता-सूरदास ने अपने पदों में मानव के अनेक भावों का बड़ी सहृदयता से वर्णन किया है। उस वर्णन में सखा गोप-बालकों के, माता यशोदा के और पिता नंद के विविध भावों की यथार्थता और मार्मिकता मिलती है। कृष्ण और गोपी प्रेम में प्रेमी केहदय के भाव पूर्णत् सरोवर में लहराती तरंगें हैं।
  3. उत्कृष्ट रस संयोजना-सूर की उत्कृष्ट रस संयोजना के आधार पर डॉ. श्यामसुन्दर दास ने उन्हें रससिद्ध कवि’ कहकर पुकारा है। सूर के काव्य में शान्त, श्रृंगार और वात्सल्य रस की त्रिवेणी प्रवाहित है।
  4. अद्वितीय वात्सल्य-सूरदास ने कृष्ण के बाल-चरित्र, शरीर सौन्दर्य, माता-पिता के हृदयस्थ वात्सल्य का जैसा स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक सरस वर्णन किया है, वैसा वर्णन सम्पूर्ण विश्व साहित्य में दुर्लभ है। सूर वात्सल्य के अद्वितीय कवि हैं।
  5. श्रृंगार रस वर्णन-सूर ने अपनी रचनाओं में श्रृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग का चित्रण करके उसे रसराज सिद्ध कर दिया है। आचार्य रामचन्द्र शक्ल ने कहा है, “श्रृंगार का रस-राजत्व यदि हिन्दी में कहीं मिलता है तो केवल सूर में।”
  • कला-पक्ष
  1. लालित्य प्रधान ब्रजभाषा-सूरदास ने बोलचाल की ब्रजभाषा को लालित्य-प्रधान बनाकर उसमें साहित्यिकता पैदा कर दी है। उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा-सरल, सरस एवं अत्यन्त प्रभावशाली है जिससे भाव प्रकाशन की क्षमता का आभास होता है। सूरदास ने अवधी और फारसी के शब्दों का प्रयोग करके एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से अपनी भाषा में चमत्कार एवं सौन्दर्य उत्पन्न कर दिया है। भाषा माधुर्य सर्वत्र ही विद्यमान है। इस प्रकार सूर की काव्य भाषा एक आदर्श काव्य भाषा है।
  2. गेय-पद शैली-सूर ने गेय-पद शैली में काव्य रचना की है। माधुर्य और प्रसाद गुण युक्त शैली वर्णनात्मक है। उनकी शैली की वचनवक्रता और वाग्विदग्धता एक प्रधान विशेषता है।
  3. आलंकारिकता की सहज आवृत्ति-सूरदास के काव्य में अलंकार अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के साथ प्रविष्ट से होते जाते हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे हाथ जोड़कर दौड़ पड़ता है। उपमानों की बाढ़ आ जाती है। रूपकों की वर्षा होने लगती है।”
  4. छन्द योजना की संगीतात्मकता-सूरदास ने मुक्तक गेय पदों की रचना की है। इन पदों में संगीतात्मकता सर्वत्र विद्यमान है।
  • साहित्य में स्थान

सूर अष्टछाप के ब्रजभाषा कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। बाल प्रकृति-चित्रण, वात्सल्य तथा श्रृंगार में तो सूर अद्वितीय हैं। सूर का क्षेत्र सीमित है, पर उसके वे एकछत्र सम्राट हैं। जब तक सूर की प्रेमासिक्त वाणी का सुधा प्रवाह है, तब तक हिन्दू जीवन से समरसता का स्रोत कभी सूखने नहीं पाएगा और उसका मधुर स्वर सदैव हिन्दी जगत में गूंजता रहेगा।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि सूरदास अपनी रचनाओं, काव्य कला और साहित्यिक प्रतिभा के कारण निःसन्देह साहित्याकाश के ‘सूर’ ही हैं। इन सभी विशेषताओं के कारण यह

दोहा अक्षरशः सत्य है
“सूर सूर तुलसी ससी,
उडुगन केसव दास।
अब के कवि खद्योत सम,
जहँ-तहँ करत प्रकाश।।”

4. स्वामी रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’

  • जीवन-परिचय

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ का जन्म जनवरी महीने की चौदहवीं तारीख को सन् 1950 ई. में उत्तर-प्रदेश के जौनपुर जिले के गाँव शाणीपुर में हुआ था। इनका पूरा नाम स्वामी रामभद्राचार्य है। दो वर्ष की अल्पायु में ही इनके दोनों नेत्रों की ज्योति सदा के लिए चली गई और ये कुछ भी देख नहीं सकते थे। इन्होंने अपने ही अध्यवसाय से और निरुत्साहित हुए बिना ही विद्यार्जन का उपाय स्वयं ढूंढ़ निकाला और अभ्यास करके ही श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामचरितमानस इन्हें कंठस्थ हो गये। श्री ‘गिरिधर’ जी (जो इसी उपनाम से प्रसिद्ध हैं और लोगों द्वारा समादरित होते हैं) ने अपनी सभी परीक्षाओं में प्रथम से लेकर एम. ए. तक-99 (निन्यानवे) प्रतिशत अंक प्राप्त किये। आपके ऊपर माँ शारदा के असीम कृपा और वरदहस्त रहा है। ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात वाली कहावत अक्षरशः सत्य सिद्ध होती है। वे उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के प्रत्येक अवसर को प्राप्त करने में कभी पीछे नहीं रहे। इन्होंने संस्कृत व्याकरण सम्बन्धी किसी महत्वपूर्ण विषय में पी-एच. डी. की डिग्री प्राप्त करके अपनी कुशाग्र बुद्धित्व का परिचय दिया तथा कुछ समय के बाद संस्कृत के किसी अति महत्वपूर्ण विषय में डी. लिट. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।

उपर्युक्त विवरण हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। परि श्रम और निरन्तर अध्यवसाय से मनुष्य अपने ध्येय तक पहुँचने में सफल हो सकता है। सफलता के शिखर पर उत्साही और अपनी क्षमताओं में अटूट विश्वास रखने वाले ही पहुँचकर अपने देश और समाज को उन्नति पथ पर ले जाते हैं। ऐसे ‘गिरिधर’ जी को हम सम्मान प्रतिष्ठा देते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

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  • साहित्य-सेवा

श्री ‘गिरिधर जी ने हिन्दी साहित्य और संस्कृत साहित्य के विकास के लिए निरन्तर प्रयास किया। उन्होंने दोनों भाषाओं में अनन्यतम ग्रंथों की सर्जना करके सूरकालीन भक्तियुग की परम्पराओं को अक्षुण्य बनाने का सतत् प्रयास किया है। उनका प्रयास अत्यन्त स्तुत्य है। भाषा में शास्त्रीयता विद्यमान है, साथ ही साथ लोकभाषा के प्रयोग एवं उसके सम्वर्द्धन के प्रयास अभी भी निरन्तर किए जा रहे हैं। संस्कृत भाषा को सामान्य जनभाषा के रूप में विकसित करने का तथा उसके प्रयोग की विधि में सरलता, सरसता एवं प्रवाह उत्पन्न करने का प्रयत्न आपके द्वारा किया जा रहा है। हमें विश्वास है कि ‘गिरिधर’ जी के दिशा निर्देशन में हिन्दी साहित्य एवं संस्कृत साहित्य अपने चरम विकास को प्राप्त कर सकेगा।

  • रचनाएँ

स्वामी रामभद्राचार्य द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं

  1. प्रस्थानमयी काव्य-प्रस्थानमयी काव्य की रचना आचार्य जी ने संस्कृत भाषा में की है। इस ग्रंथ की भाषा में सरसता और सरलता है तथा भाव-सम्प्रेषण की क्षमता विद्यमान है।
  2. भार्गव राघवीयम् महाकाव्य-‘भार्गव राघवीयम्’ एक महाकाव्य है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में की गई है। अपने प्रकार का यह अद्वितीय महाकाव्य है।
  3. अरुन्धती महाकाव्य-इस महाकाव्य की रचना कवि श्री रामभद्राचार्य जी ने हिन्दी भाषा में की है। विषयवस्तु समाज के परिवेश में नवीनता उत्पन्न करके सुधार की परिकल्पना से सम्बन्ध रखती है।

उपर्युक्त के अलावा राघवगीत गुंजन, भक्तिगीत सुधा एवं अन्य 75 ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में की गई है। हिन्दी का स्वरूप परिष्कृत और परिमार्जित है।

साहित्य और शिक्षा क्षेत्र के विकास के लिए आपने ‘जगद्गुरु’ रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ की स्थापना चित्रकूट में की है। शासन द्वारा आपको इस विश्वविद्यालय का जीवनपर्यन्स कुलाधिपति बनाया गया है।

साहित्य सेवा के लिए पुरस्कार-आपको भारतीय संघ के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा

  1. महर्षि वेदव्यास वादरायण पुरस्कार दिया गया है। इस पुरस्कार के लिए जीवनपर्यन्त एक लाख रुपये प्रतिवर्ष दिए जाते हैं।
  2. भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। इसके लिए पचास हजार रुपये दिये जाते हैं।
  3. दो लाख का श्री वाणी अलंकरण-यह पुरस्कार रामकृष्ण डालमिया वाणी न्यास, नई दिल्ली द्वारा दिया गया।
  • भाव-पक्ष
  1. प्रेम और हृदय की उदात्तता-कविरामभद्राचार्य की रचनाओं के भाव पक्षीय सबलता स्तुत्य है। हृदयगत भाव वास्तुजगत के प्रभाव से अनुभूतिजन्य हैं जिनमें प्रेम और हृदय की उदात्तता परिलक्षित होती है।
  2. वात्सल्य रस, भक्ति रस के परिपाक से सम्प्रक्त होकर अति पुष्ट होता गया है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-भाषा भावानुकूल प्रयुक्त हुई है। उसमें शास्त्रीयता का प्राधान्य है। भाषा का परिष्कृत स्वरूप लोकभाषा के विकास को नई दिशा देते हैं। अतः लोकभाषा में प्रवाह की प्रबलता है।
    कवि ने भाव को स्पष्ट करने के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग किया है।
  2. शैली-कवि ने सूरदास की मुक्तक गेय-पद शैली को अपनाया है। उसमें विषय की विशदता और गम्भीरता को अनायास ही सरसता देकर एक विशेष शैली का अन्वेषण किया है।
  3. अलंकार योजना-कवि का अपने काव्य में अलंकार संयोजन सप्रयोजन नहीं होता है। वह तो अनायास ही भाव के अभिव्यक्तिकरण के लिए अपने आप ही प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। इनकी कृतियों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास आदि महत्त्वपूर्ण सभी अर्थालंकारों और शब्दालंकारों का प्रयोग परिलक्षित होता है।
  4. छंद-योजना-कवि ने मुक्तक-छंद की संयोजना की है जिसे हम भक्तियुगीन सूरदास के छंद विधान के समकक्ष पाते हैं। अन्तर है, तो केवल भाषा का। सूर की भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा है और रामभद्राचार्य जी की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली हिन्दी।
  • साहित्य में स्थान

कवि रामभद्राचार्य ‘गिरिधर’ हिन्दी और संस्कृत भाषा के विकास के लिए प्रयासरत हैं। उनके रचित ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत साहित्य की अक्षुण्यनिधि हैं। हम आशा करते हैं कि आपके द्वारा संस्कृत और हिन्दी साहित्य का विकास दिशा निर्दिष्ट होता रहेगा। हिन्दी और संस्कृत जगत आपके नृत्य कार्यों के लिए चिरऋणी है।

5. पद्माकर
[2011]

  • जीवन-परिचय

पद्माकार रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनके पूर्वज दक्षिण भारत के तेलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिताजी का नाम श्री मोहनलाल भट्ट था। वे मध्य प्रदेश के सागर में आकर बस गए थे। यी (सागर में ही) पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। सागर के तालाब घाट पर पद्माकर जी की मूर्ति स्थापित है। पद्माकर एक प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। ‘कवित्त’ छन्द की रचना करने की अलौकिक क्षमता व कौशल उन्हें वंश-परम्परा से प्राप्त था। कवित्त शक्ति और क्षमता सम्पन्न पद्माकर ने मात्र नौ वर्ष की उम्र से ही कवित्त-रचना करना शुरू कर दिया था।

पद्माकर जी रीतिकालीन कवि थे। वे राजदरबारी श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने राजाओं की प्रशंसा में अनेक कृतियों की रचना की। राजाओं की प्रशंसा करते हुए उन्होंने हिम्मत बहादुर विरुदावली, प्रतापसिंह विरुदावली और ‘जगत-विनोद’ की रचना की। समय की प्रबलता से जीवन के अन्तिम समय में उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। उस रोग की मुक्ति के लिए उन्होंने गंगाजी की स्तुति की। गंगा की स्तुति में उन्होंने गंगा-लहरी’ काव्य की रचना की। इस काव्यकृति की रचना करते हुए ही यहीं पर 80 वर्ष की उम्र में सन् 1833 ई. में उनका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

पद्माकर जी ने जीवन पर्यन्त साहित्य की अचूक सेवा की। राजदरबार में रहकर श्रेष्ठ काव्य-साहित्य की रचना करना अपने आप में एक बहत ऊँची साधना की। रीतिकालीन परम्पराओं का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने आश्रयदाता राजा-महाराजाओं की प्रशंसा करने में शृंगार प्रधान रचनाओं की सर्जना की। वे निरन्तर ही साहित्य सेवा में संलग्न रहे। रीति युग की विशेषताओं का समावेश पद्माकर की काव्य प्रणाली बन चुकी थी। श्रृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोगावस्था व वियोगावस्था में नायक और नायिकाओं के चित्रण अद्वितीय काव्य कौशल से उभारे हैं। समय-समय पर अपनी काव्यकृतियों की भाव-व्यंजना के लिए पद्माकर जी को अन्य राजाओं ने पुरस्कृत करके सम्मानित भी किया।

पद्माकर अपनी साहित्य सेवाओं के लिए सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। उन्होंने अपने कवित्त छंद के प्रयोग के माध्यम से प्रकृति, प्रेम भक्ति और रूप का चित्रण किया है। उन्होंने अलौकिक भाव-भंगिमाओं के चित्र उकेरते हुए अपने मनोभावों की सूक्ष्मता को स्पष्ट किया है।

  • रचनाएँ

पद्माकर ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। वे इस प्रकार हैं-

  1. पद्माभरण,
  2. जगत विनोद,
  3. आलीशाह प्रकाश,
  4. हिम्मत बहादुर विरुदावली,
  5. प्रतापसिंह विरुदावली,
  6. प्रबोध पचासा,
  7. गंगालहरी तथा
  8. राम रसायन।

पद्माकर के काव्य ग्रंथों की विषय-वस्तु-पद्माकर द्वारा प्रणीत ग्रंथ अपने आप में हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनके द्वारा कवि ने प्रकृति के विविध स्वरूपों का चित्र उकेरा है। इनका षट्ऋतु वर्णन बहुत ही प्रसिद्ध है। प्रत्येक ऋतु के प्रभाव और मानव-मन में उत्पन्न होते विकारों का बेलाग वर्णन पद्माकर जी की विविधतामयी बुद्धि कौशल की देन है। इसके अतिरिक्त पद्माकर ने प्रेम को ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठापित किया है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सिद्धान्त निरूपति करते हुए कहा है कि-

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  1. लौकिक प्रेमानुभूति ही अलौकिक (ईश्वरीय) प्रेम की अनुभूति का आधार है।
  2. लौकिक प्रेम ही मानवीय रचनात्मकता से सीधा सम्बन्ध रखता है।
  • भाव-पक्ष

(1) प्रकृति चित्रण-पद्माकर ने अपने काव्य कौशल से प्रकृति के उद्भ्रान्त स्वरूप को षट्ऋतु वर्णन में अनेक अनुभूतियों के माध्यम से वर्णन करके प्रस्तुत किया है। प्रकृति और मानव सम्बन्धों की घनिष्ठता को काव्यभाषा ब्रजभाषा के प्रयोग से परिभाषित किया है।

(2) भक्ति-पद्माकर अपनी बढ़ती उम्र के पड़ाव पर पहुँचकर शारीरिक कष्टों से पीड़ित करने लगे। अत: उनका स्वाभाविक रूप से झुकाव ईश्वर और इष्ट-भक्ति की ओर हो चला था। पद्माकर की वैराग्य भावना का प्राकट्य उनकी अमर कृतियों-गंगा-लहरी, प्रबोध पचासा तथा राम रसायन में अपने आप ही हो चला है।

(3) रस-संयोजना-पद्माकर की सभी कृतियों में प्रेम का विस्तार और विकास भक्ति, वात्सल्य तथा दाम्पत्य भाव के अन्तर्गत हुआ है। प्रेम की पृष्ठभूमि ‘रति’ नामक स्थायी भाव से होती है। अतः कवि ने श्रृंगार रस का प्रयोग अपनी संयोग और वियोग की दोनों ही अवस्था में चरम तक पहुँचा दिया है। कवि द्वारा संयोगवस्था में प्रिय और प्रियतमा की रूप चेष्टा का वर्णन उनकी काव्य कला की अनुपम धरोहर बन चुकी है। इसके विपरीत वियोग की अवस्था में प्रिय से वियुक्त हुई प्रियतमा स्मृतिजन्य वेदना-व्यथा से व्यथित होती हुई प्रेम की केन्द्रीय भावभूमि में पहुँच चुकी होती है। इस प्रकार पद्माकर के काव्य में प्रेम और श्रृंगार का अनुभूतिपरक चित्रण हुआ है जो अनुपमेय है। उनके द्वारा किया गया प्रेम की एकान्तिक दशा तथा प्रेम परिपूर्ण बहानों का विवेचन इस बात को स्पष्ट करता है कि पद्माकर मनोभावों की सूक्ष्मता के पारखी थे।

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-पद्माकर ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में (कविता में) बुन्देली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस बुन्देली के साथ ही कहीं उर्दू, फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। पद्माकर की भाषा परिष्कृत और बोझिल सी प्रतीत होती है। यद्यपि उन्हें भाषा पर अप्रतिम रूप से अधिकार प्राप्त था।
(2) शैली-पद्माकर एक राजदरबारी कवि थे अतः उनकी शैली वर्णन प्रधान थी। चित्रोपम वर्णन अपनी काव्यकृति के लिए उनकी अनूठी देन है। उन्होंने अलंकार प्रधान शैली का विकास स्वयं ही किया है। यह शैली प्रायः सभी राजदरबारी कवियों के काव्य में प्रतिष्ठापित हुई है। अतः यह परम्परागत शैली है जो रीतिकालीन काव्य की विशेषताओं में से एक अन्यतम विशेषता है।
(3) अलंकार-पद्माकर ने अपनी काव्य कृतियों में यथास्थान अलंकारों का प्रयोग किया है। अनुप्रास अलंकार उनका अति प्रिय अलंकार है। इसके प्रयोग के सौन्दर्य का अवलोकन एक ही उदाहरण से हो जाएगा

“कूलन में, केलिन में, कछारन में, कुंजन में।
क्यारिन में, कलिन कलीन किलकत हैं।।”

पद्माकर ने अनुप्रास के अतिरिक्त यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया है। अनुप्रास के प्रयोग से ध्वनि चित्र खड़ा करने में पद्माकर अद्वितीय हैं।

(4) मुहावरे व लोकोक्तियाँ-पद्माकर की कविताओं में भाव को स्पष्टता प्रदान करने के उद्देश्य से मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग सफलता के साथ किया गया है। द्रष्टव्य है

“नैन नचाइ कही मुसकाइ, लला फिर आइयो खेलन होरी।” और
“अब तो उपाय एकौ चित्त पै चट्टै नहीं।।”

  • साहित्य में स्थान

पद्माकर निःसन्देह रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक थे। इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा की विशेषता के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने लिखा है-“भाषा की सब प्रकार की शक्तियों (अभिधा व्यंजना आदि) पर इनका अधिकार स्पष्ट दीख पड़ता है। एक महान कवि की भाषा में अनेकरूपता हुआ करती है, उस सबका साक्षात् रूप पद्माकर की कविता में परिलक्षित होता है। आपने साहित्यिक अभिव्यक्ति और विकास की जो दिशा अपनी काव्यकृतियों के माध्यम से हिन्दी जगत को दिखाई है, उसके लिए अध्येता जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। वास्तविकता यह है कि पद्माकर रीतिकालीन परम्परा के उत्तरार्द्ध के प्रतिनिधि कवि हैं।

6. मतिराम

  • जीवन-परिचय

कविवर मतिराम के पिताजी का नाम रत्नाकर था। ये कानपुर के एक गाँव तिकवांपुर के रहने वाले थे। मतिराम के जन्म की निश्चित तिथि का निर्णय नहीं हो सका है। परन्तु इनका जन्म 17वीं शताब्दी में हुआ था। वे बूंदी के महाराज भावसिंह के दरबारी कवि थे। जन्मतिथि के समान ही मतिराम के निधन के सम्बन्ध में भी विवादास्पद स्थिति बनी हुई है।

मतिराम और भूषण दोनों ही सगे भाई थे। दोनों ही उच्चकोटि के कवि हुए। हिन्दी साहित्य में यह एक उदाहरण है। काव्य के क्षेत्र में इन दोनों (मतिराम और भूषण ने) ही ने उत्कृष्ट ख्याति प्राप्त की।

  • साहित्य-सेवा

मतिराम के काव्य के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि उन्होंने उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त की होगी और श्रेष्ठ ग्रन्थों के प्रतिपादन में अपनी शास्त्रीय क्षमताओं का उपयोग किया। मतिराम ने कई ग्रंथों की रचना की है। उन सभी ग्रंथों में काव्य लक्षण निर्दिष्ट करते हुए विशिष्ट कवि कौशल को प्रदर्शित किया था। चमत्कार प्रदर्शन करने वाले लक्षण ग्रंथ हिन्दी साहित्य की अनूठी निधि हैं।

  • रचनाएँ

मतिराम ने कुल नौ ग्रंथों की रचना की है। लेकिन उनमें से कुल चार ग्रंथ ही उपलब्ध हैं, जो अग्रलिखित हैं

  1. फूल मंजरी,
  2. रसराज,
  3. ललित ललाम,
  4. मतिराम सतसई। (मतिराम सतसई में 703 दोहे सकंलित हैं।)

काव्य विषय-फूल मंजरी, रसराज, ललित ललाम उच्चकोटि के शास्त्रीय लक्षण ग्रंथ हैं। मतिराम सतसई में नीतिपरक दोहे हैं जिनमें व्यावहारिक पक्ष को स्पष्टता प्रदान की है। व्यवहार का उत्कृष्ट स्वरूप निखर आया है। लक्षण ग्रंथों में छंद, रस, काव्यांग, अलंकार प्रयोग की विधि, रूप सौन्दर्य वर्णन आदि प्रमुख विषय वस्तु रहे हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) प्रेम-मतिराम ने अपनी काव्यकृति में सहज प्रेम के मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव व्यक्त किए हैं, वे सभी सामान्य लोगों की सामान्य अनुभूति के अंग हैं।
(2) माधुर्य एवं रस प्रयोग-मतिराम की कविता में माधुर्यता सबसे अधिक है। ‘रसराज’ शीर्षक ग्रंथ में कवि ने रसों के प्रयोग किये हैं जिन्हें हम लाक्षणिकता से पूर्ण मान सकते हैं। श्रृंगार रस की भी प्रचुरता रही है। मतिराम का श्रृंगार वर्णन अद्वितीय है। संयोग और वियोग में मतिराम ने राधा-कृष्ण के माध्यम से श्रृंगार के विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का मधुरिम चित्रण किया है। शील और सौन्दर्य चित्रण में कवि की विदग्धता परिलक्षित होती है।

  • कला-पक्ष
  1. भाषा-मतिराम की भाषा के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा है।
  2. शैली-मतिराम-रीतिबद्ध कवियों में शामिल किए जाते हैं। फिर भी इनकी कविता में कृत्रिमता नहीं है। काव्य में वास्तविक और व्यावहारिक शैली की प्रधानता होने से वर्णन प्रधान हो गई है। शैली में अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना आदि भाषायी शक्तियों का प्रयोग कवि ने अपनाया
  3. छन्द-योजना-कवि ने अपनी कृतियों में कवित्त, सवैया और दोहे आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कवित्त और सवैया के माध्यम से उन्होंने अपने शास्त्रीय प्रयोग की उत्कृष्टता परिलक्षित कर दी है। उन्होंने छन्दों के प्रयोग में चमत्कार प्रदर्शन को दूर ही रखा है।
  4. अलंकार का चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन-मतिराम अपनी सभी कृतियों के शब्द और अर्थ तथा अलंकार के प्रयोग में चमत्कारपूर्ण प्रदर्शन को अधिक पसन्द नहीं करते हैं। आपकी रचनाओं में अलंकारों का ही सर्वाधिक वर्णन किया गया है क्योंकि वे लक्षण ग्रन्थ हैं। अतः कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग उपयुक्त ही किया गया है। मतिराम का अलंकार विधान स्वाभाविक है। इससे उनकी रचना में सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो गई है।

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  • साहित्य में स्थान

मतिराम रीतिकाल के शीर्षस्थ कवियों में माने जाते हैं। वे अपने सहज कृतित्व के लिए अति प्रसिद्ध हैं, इसलिए रीतिकालीन कवियों में उनका सबसे उच्च स्थान है। लक्षण ग्रन्थ के प्रणेता के रूप में सर्वत्र ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व के धनी मतिराम हिन्दी साहित्य जगत में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। वे अपने कर्त्तव्य कौशल से आचार्यत्व को प्राप्त महाकवि हैं।

7. कविवर वृन्द

  • जीवन-परिचय

रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत कवि वृन्द का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृन्द का जीवन परिचय भी प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

पं. रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् 1643 ई. में मथुरा (उत्तर प्रदेश) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं। परन्तु डॉ. नगेन्द्र का मत है कि कवि वृन्द का जन्म मेड़ता, जिला जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। इनका पूरा नाम वृन्दावन था। विद्याध्ययन के लिए इन्हें काशी भेज दिया गया। उस समय इनकी अवस्था सम्भवतः दस वर्ष की रही होगी। काशी में रहकर इन्होंने व्याकरण, साहित्य, वेदान्त तथा गणित दर्शन विषय का अध्ययन किया और ज्ञान प्राप्त किया। इसके साथ ही इन्होंने काव्य की रचना करना भी सीखना शुरू कर दिया। मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबार में ये दरबारी कवि रहे। सन् 1723 ई. में इनको देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

कवि वृन्द ने लोक जीवन का गहन अध्ययन करके काव्य में अपने अनुभवों का विशद विवेचन किया है। वृन्द के ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन मिलता है। भाव-पंचासिका’ में शंगार के विभिन्न भावों के अनुसार सरस छंद लिखे गए हैं। ‘शंगार-शिक्षा’ में नायिका भेद के आधार पर आभषण और अंगार के साथ नायिकाओं का चित्रण किया गया है। ‘नयन पचीसी’ में नेत्रों के महत्व का चित्रण है। छन्दों के लक्षणों के सन्दर्भ में ही इसी कृति में दोहा, सवैया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग भी हुआ है। ‘नयन पचीसी’ में ऋतु वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। हिन्दी में वृन्द के समान सुन्दर दोहे बहुत ही कम कवियों ने लिखे हैं। उनके दोहों का प्रचार शहरों से लेकर गाँवों तक में है। पवन पचीसी में षड्ऋतु वर्णन के अन्तर्गत वृन्द ने पवन के वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के स्वरूप और प्रभाव का वर्णन किया है।

उद्देश्य (ध्येय)-काव्य द्वारा जीवन को संस्कार युक्त बनाया जाता है। अगली पीढ़ियों तक जीवन के उच्च अनुभवों को संप्रेषित करने की शक्ति काव्य में होती है। जीवन जीना यदि एक कला है, तो इस कला की शिक्षा काव्य में समायी रहती है। व्यक्ति और समाज के स्वस्थ तालमेल में ही व्यक्ति के स्व-विकास का सही और उच्चकोटि की भूमिका निर्धारित होती है। इस तरह से जीवन-विकास की शिक्षा देने वाला काव्य ही नीतिपरक काव्य कहा जाता है। सभी युगों में कविता का जीवन-शिक्षा से गहरा सम्बन्ध रहा है। अत: कवि वृन्द ने अपने काव्य में नीति को स्थान दिया है।

विषय-वृन्द के दोहे जीवन शिक्षा के कोश हैं। उनका प्रत्येक दोहा जीवन के किसी न किसी अमूल्य अनुभव से परिपूर्ण है। प्रस्तुत दोहों में शिक्षाप्रद जीवन-सूत्रों को संकलित किया गया है। अवसर के अनुकूल बात कहना अति महत्वपूर्ण है। एक बार ही किसी को धोखा देकर सफलता प्राप्त की जा सकती है-बार-बार नहीं क्योंकि काठ की हाँड़ी एक बार ही चूल्हे पर चढ़ती है; फिर से चढ़ाने में तो वह अग्नि से नष्ट हो जाती है। वृन्द के दोहों की विषयवस्तु बहुत ही विस्तृत और विशद है। इसका प्रचलन जनसामान्य तक है।

  • रचनाएँ

कवि वृन्द की निम्नलिखित रचनाएँ अति महत्वपूर्ण हैं। इनके माध्यम से कवि ने काव्य रचना के अपने ध्येय की सम्पूर्ति की है। ये रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. बारहमासा,
  2. भाव पंचासिका,
  3. नयन पचीसी,
  4. पवन पचीसी,
  5. श्रृंगार शिक्षा,
  6. यमक सतसई। यमक सतसई में 715 दोहे हैं।

कवि वृन्द के द्वारा रचित दोहों को ‘वृन्द विनोद सतसई’ में संकलित किया गया है।

  • भाव-पक्ष
  1. नीति तत्त्व-कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के अन्तर्गत नीति तत्त्व को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके उन्हें आत्मविकास का पथ प्रदर्शित किया है। नीतिगत बात कहना, उसके अनुसार आचरण करना स्तुत्य होता है। ज्ञान प्राप्त करके प्रबुद्धजन समाज को विकास की दिशा निर्दिष्ट करते हैं।
  2. व्यावहारिक तत्त्व-कवि वृन्द ने अपने काव्य के माध्यम से व्यावहारिक पक्ष को उन्नत बनाये रखने की शिक्षा दी गई है।
  3. धैर्य गुण-धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहने से जीवन सफलता की ओर अग्रसर होता रहता है।
    इस तरह कवि वृन्द ने अपनी कृतियों के द्वारा प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली महत्त्वपूर्ण बातों की शिक्षा देते हुए व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को सापेक्षक बनाने का प्रयास किया है।
  4. रस-कवि वृन्द ने ‘भाव पंचासिका’ में श्रृंगार के विभिन्न भावों की अनुभूति कराने वाले छन्द लिखे हैं। नायिकाओं के श्रृंगार सम्बन्धी चित्रण अति मनमोहक बन पड़े हैं जिनके द्वारा संयोग और वियोग की अवस्थाओं की अभिव्यक्ति विषय और वातावरण के अनुकूल हुई है। नीति व व्यवहारपरक दोहों में शान्त रस का परिपाक हुआ है।
  5. प्रकृति चित्रण-कवि के द्वारा अपने ‘बारहमासा’ में बारह महीनों का सुन्दर वर्णन किया गया है। प्रत्येक महीने के बदलते स्वरूप का चित्रण मनुष्य के जीवन चक्र को प्रदर्शित करता है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-कवि वृन्द के अपने काव्य में ब्रजभाषा के मिश्रित रूप को अपनाया है, जो आंचलिक शब्दावली से परिनिष्ठित है। भाषा के आंचलिक प्रयोग कवि के भाव को पाठकों तक सम्प्रेषित करने में पूर्ण सक्षम हैं। कवि के सूक्ष्मदर्शी व्यक्तित्व को उनकी भाषा पूर्णतः अभिव्यक्ति देने में सफल सिद्ध है। ब्रजभाषा के माध्यम से अपने काव्य में लोक जीवन को, अपने अनुभवों को, नीति भक्ति और लोकदर्शन आदि का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है।
  2. शैली-वृन्द की रचनाएँ रीति परम्परा की हैं। उनकी ‘नयन-पचीसी’ युगीन परम्परा से जुड़ी हुई कृति है। इनकी कृतियों में किसी भी व्यवहार तत्त्व को सहज-सरस अभिव्यक्ति देकर लोकोक्ति का स्वरूप दे दिया गया है। जिसका प्रभाव सामान्य लोक जीवन पर प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है। अलंकार प्रधान शैली को बारहमासा और षड्ऋतु वर्णन में अपनाया गया है। वस्तुतः वृन्द ने नीति शैली, आलंकारिक शैली, सूत्रशैली का प्रयोग अपने सम्पूर्ण काव्य में किया है।
  3. छन्द-कवि वृन्द का सर्वप्रिय छंद दोहा है। लेकिन दोहा के अतिरिक्त उन्होंने सवैया, घनाक्षरी छन्दों का भी प्रयोग किया है। इन छन्दों के प्रयोग से एवं विषयवस्तु के प्रतिपादन की शैली से कवि वृन्द के आचार्यत्व गुण व विशेषता का आभास होता है।।
  4. अलंकार-कवि वृन्द का यमक अलंकार के प्रति अत्यधिक झुकाव है। उन्होंने अपनी ‘यमक-सतसई’ में यमक अलंकार के विविध स्वरूप को अनेक प्रकार से स्पष्टता प्रदान की है। इस प्रकार से ‘यमक-सतसई’ लक्षण ग्रंथ ही है।
  • साहित्य में स्थान

कवि वृन्द ने अपने दोहों में लोक व्यवहार के अनेक अनुकरणीय सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। उनकी रचनाएँ रीतिबद्ध परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी रचनाओं में सरसता-सरलता, अभिव्यक्ति की सहजता एवं वाणी की विदग्धता विद्यमान है। अपनी साहित्यिक सेवा के लिए रीतिकाल के सभी कवियों में कविवर वृन्द अपना विशेष स्थान रखते हैं।

8. रहीम

  • जीवन-परिचय

रहीम का जन्म सन् 1556 ई. में हुआ था। इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। वे अकबर के अभिभावक सरदार बैरम खाँ खानखाना के पुत्र थे। रहीम जी अकबर के एक मनसबदार थे और दरबार के नवरत्नों में प्रमुख थे। मुगल साम्राज्य के लिए इन्होंने अनेक युद्ध लड़े थे। परिणामतः अनेक प्रदेशों में जीत भी प्राप्त की थी। जागीर में इन्हें बड़े-बड़े सूबे और किले मिले हुए थे। किन्तु अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीर ने इन्हें राजद्रोही ठहराया और बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया था। उनकी जागीरें जब्त कर ली गई थीं। इनकी मृत्यु सन् 1626 ई. में हो गयी।

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  • साहित्य-सेवा

रहीम हिन्दी साहित्य की दिव्य विभूति हैं। उनकी वाणी में जो माधुर्य है, वह हिन्दी के बहुत थोड़े कवियों की रचनाओं में मिलता है। वे हिन्दी के ही नहीं, फारसी और संस्कृत के भी विद्वान थे। हिन्दी में वे अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन दोहों में नीति, ज्ञान, श्रृंगार और प्रेम का इतना सुन्दर समन्वय हुआ है कि मानव हृदय पर उसका बहुत गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ता है। अपनी विविध आयामी सेवाओं से रहीम ने हिन्दी साहित्य की सेवा की है। उनकी साहित्यिक सेवाओं से हिन्दी साहित्य विकसित होकर पुष्ट भी हुआ है। . विषय तथा उद्देश्य-रहीम की कविता का विषय नीति और प्रेम है। अनेक सूक्तियों और नीति सम्बन्धी दोहे आज भी मनुष्य जाति का पथ-प्रदर्शन करते हैं। रहीम की मित्रता उस समय के लोक कवि एवं लोकनायक तुलसीदास जी से थी।

रहीम के दोहों की विषयवस्तु विविधता लिए हुए है। रहीम जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, नीति, सत्संग, प्रेम, परिहास, स्वाभिमान आदि सभी विषयों पर सफलतापूर्वक अपने भावों को अपने छोटे से दोहा छंद में अभिव्यक्ति दी है। इस्लामी सभ्यता के परिवेश में रहीम जी का परिपालन और पोषण हुआ, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति रखते थे। तात्पर्य यह है कि रहीम जी हिन्दू संस्कृति, सभ्यता, दर्शन और धर्म तथा विश्वासों के प्रति निष्ठावान् थे।

रहीम की लोकप्रियता-रहीम, वस्तुतः अपने नीति के दोहों के लिए ही हिन्दी भाषा-भाषी जनता में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। अपने नीति के दोहों में वह एक शिक्षक और उपदेशक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति सरल, सुबोध शब्दों में की है।

  • रचनाएँ

रहीम की निम्नलिखित काव्य कृतियाँ बहुत ही प्रसिद्ध हैं

  1. रहीम सतसई-यह रहीम के नीति परक दोहों का संग्रह है। इन दोहों में जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्र से सम्बन्धित नीतियों का प्रतिपादन किया गया है। अभी तक इसके तीन सौ के लगभग दोहे प्राप्त हुए हैं।
  2. शृंगार सतसई-यह शृंगार प्रधान काव्य रचना है। अभी तक इसके कुल छः छन्द ही उपलब्ध हुए हैं।
  3. मदनाष्टक-इसमें कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेममयी लीलाओं का भावपूर्ण वर्णन किया गया है।
  4. बरवै नायिका भेद-यह 115 छन्दों का नायिका भेद पर लिखित ग्रंथ है। सम्भवतः यह हिन्दी का सबसे पहला काव्य ग्रंथ है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त रहीम की अन्य रचनाओं में-श्रृंगार सोरठा, रास-पञ्चाध्यायी, नगर शोभा, फुटकल बरवै तथा फुटकल कवित्त सवैये भी प्रसिद्ध हैं।

  • भाव-पक्ष
  1. हृदय पक्ष की प्रधानता-रहीम भक्ति एवं नीति के प्रसिद्ध कवि हैं। वे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक थे। इनकी कविता में हृदयपक्ष की प्रधानता तथा भाव अभिव्यंजना की अपूर्व शक्ति मिलती है।
  2. काव्यगत मार्मिकता-रहीम जी अपने जीवन में सरल, सरस और उदार प्रकृति के बने रहे, उसी तरह इनकी कविता में भी सरलता एवं मार्मिकता के दर्शन होते हैं। इनकी कविताएँ हृदय की सच्ची अनुभूति से सम्पुक्त अभिव्यक्ति हैं। इस कारण वे अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक
  3. नीति, श्रृंगार और प्रेम का समन्वय-रहीम काव्य क्षेत्र में अत्यन्त कौशल प्राप्त विद्वान कवि थे और कृष्ण उपासक भी। इनके काव्य में गहरे अनुभवों की छाप सर्वत्र मिलती है, विशेषतः दोहों में। इनके दोहे संवेदनशील हृदय की मार्मिक उक्तियाँ हैं। इनमें नीति, श्रृंगार और प्रेम का बहुत सुन्दर समन्वय हुआ है।
  • कला-पक्ष
  1. भाषा-रहीम ने ब्रजभाषा और अवधी दोनों ही भाषाओं में काव्य-रचना की है। उनका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। वे हिन्दी, संस्कृत, अरबी और फारसी के उच्चकोटि के विद्वान थे। अतः इन सभी भाषाओं के शब्दों की आवृत्ति इनकी रचनाओं में खूब होती रही है।उनकी भाषा में बाह्य आडम्बर अथवा पाण्डित्य प्रदर्शन की भावना नहीं है। उसमें स्वाभाविक सौन्दर्य है। उनकी भाषा, परिमार्जित, परिष्कृत और माधुर्य गुण प्रधान है।
  2. शैली-रहीम की शैली सरल, सरस और सुबोध है। उनकी शैली अपने अनुभवजन्य रत्नों से परिपूर्ण है। भावों की व्यंजना करना इनकी शैली की अप्रतिम विशेषता है।
  3. रस-रहीम के काव्य में शृंगार, शान्त एवं हास्य रसों की निष्पत्ति सर्वत्र होती है। उन्होंने श्रृंगार रस के दोनों ही पक्षों-वियोग व संयोग का चित्रण बहुत ही अनूठे ढंग से किया है।
  4. अलंकार-रहीम की रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
  5. छन्द-दोहों को छोड़कर रहीम ने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद आदि सभी छन्दों में रचनाएँ की हैं। बरवै छन्द के तो वे जनक ही कहे जाते हैं।
  6. मुहावरे व लोकोक्तियाँ-रहीम ने अपनी रचनाओं में मुहावरे और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है जिससे विषय बोध में सरलता हो गई है।
  • साहित्य में स्थान

हिन्दी साहित्य में रहीम की रचनाएँ प्रत्येक हिन्दी भाषा-भाषी का पथ प्रशस्त करती रहेंगी। कवित्व क्षेत्र में दिया गया उनका योग अविस्मरणीय है।

9. सेनापति

  • जीवन-परिचय

हिन्दी काव्य के प्रांगण में प्रकृति-चित्रण की अनुपम छटा बिखेरने वाले कवियों में सेनापति का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। सेनापति की प्रमाणित जीवनी अन्य अनेक प्राचीन कवियों की भाँति उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन के विषय में कुछ सूचनाएँ उन्हीं के द्वारा लिखित एक कवित्त के आधार पर उपलब्ध हैं, जिसके अनुसार उनका जन्म उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित अनूपशहर (बुलन्दशहर जनपद) में सन् 1589 के आस-पास हुआ था। इनके पिता गंगाधर दीक्षित थे। इनके पितामह परशुराम दीक्षित ने इन्हें हीरामणि दीक्षित नामक किसी काव्यज्ञ से काव्यशास्त्र की शिक्षा में दीक्षित करवाया। आश्चर्य है कि सेनापति ने अपने वास्तविक नाम का उल्लेख कहीं नहीं किया है। सेनापति उनका उपनाम था, जिसका उपयोग उन्होंने अपनी कविता में किया है। उनकी रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि वे कई राजाओं और नवाबों के दरबार में रहे थे। उनके आश्रयदाताओं ने उन्हें पर्याप्त सम्मान भी दिया था। जीवन के अन्तिम दिनों में वे विरक्त होकर वृन्दावन में रहने लगे थे। उन्होंने लिखा है सेनापति चाहता है सफल जनम करि।

वृन्दावन सीमा तें बाहर न निकसिबो। सेनापति का निधन सन् 1649 ई. में हुआ था। साहित्य-सेवा कविवर सेनापति रीतिकाल के उल्लेखनीय और विशिष्ट कवियों की श्रेणी में आते हैं। उन्होंने मानव सहचरी प्रकृति का चित्रण अपने सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर किया है। सेनापति ने प्रकृति की बदलती छवियों का मनोहारी दिग्दर्शन अपने कलात्मक परिवेश में कराया है। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में संवेदनाओं से भरपूर हृदय वाले कवि सेनापति ने अपने काव्य में हमारी जीवन पद्धति को चित्रांकित कर यह उपदेश दे दिया है कि परिवर्तन का यह दिशाचक्र बिना रुके मानव को गतिशील बनाए रखता है। क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है, तो गतिहीनता मृत्यु।

ध्येय-कवि का कर्तृत्व (काव्य) सोद्देश्य होता है। प्रकृति ने मनुष्य की संवेदनाओं को विस्तार दिया है और प्रकृति ही मनुष्य के भाव जगत को व्यापकता प्रदान करती है। आलम्बन और उद्दीपन रूप में अभिव्यक्त प्रकृति मनुष्य को अपने उदार भावों-दयालुता, धीरता, उद्देश्य की दृढ़ता एवं आत्म-क्षमताओं का विकास करने का सदुपदेश देकर एक शिक्षक और हितोपदेशक का कार्य करती है। इसी ध्येय से कवि ने अपने द्वारा रचित काव्य में अपने काव्य-कौशल का दिग्दर्शन कराया है।

  • रचनाएँ

इनकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं-‘काव्यकल्पद्रुम’ और ‘कवित्त रत्नाकर’। पहली रचना अप्राप्य है। ‘कवित्त रत्नाकर’ में पाँच तरंगें हैं और कुल 394 छन्द हैं। पहली तरंग में श्लेष, दूसरी में श्रृंगार, तीसरी में ऋतु वर्णन, चौथी में रामकथा और पाँचवीं में भक्ति विषयक पद संकलित हैं।

  • भाव-पक्ष

(1) भक्ति भावना-सेनापति की कविताओं में उनकी भक्ति-भावना प्रकट हुई है। वे अपनी भक्ति-भावना के क्षेत्र में वैष्णव-सम्प्रदाय से बहुत प्रभावित थे। वे राम के अनन्य भक्त थे। किन्तु कृष्ण और शिव से भी उन्हें प्रेम था। वैष्णव-भक्त कवियों की भाँति वे गंगा में आस्था रखते थे।
(2) रस-कवि सेनापति ने अपनी कविताओं में रसोत्कर्ष पर ध्यान दिया है। उनमें रस निष्पत्ति भरपूर हुई है। कहीं-कहीं उनके काव्य में रसानुभूति का प्रवाह कुछ मन्द हुआ है, क्योंकि वहाँ अलंकारों का उत्कर्ष और चमत्कार बढ़ गया है। उनके काव्य में शृंगार, भक्ति और वीर रस की प्रधानता है। उन्होंने शृंगार के दोनों पक्षों का निरूपण बहुत गम्भीरता से किया है।

द्रष्टव्य है-

आयो सखि सावन, विरह सरसावन।
लग्यौ है बरसावन, सलिल चहु और तै।।

(3) ऋत वर्णन-सेनापति के काव्य की विशेषता है उनका ऋत वर्णन। रीतिकाल के कवियों ने ऋतु वर्णन उद्दीपन-विभाव के अन्तर्गत किया है। किन्तु सेनापति ने ऋतु वर्णन आलम्बन विभाग के अन्तर्गत किया है। आलम्बन विभाव के अन्तर्गत प्रकृति के स्वतन्त्र रूप का चित्रण किया जाता है। उस पर नायक अथवा नायिका की भावनाओं का आरोप नहीं है। सेनापति ने अपने ऋतु वर्णन में अपने देश की छ: ऋतुओं को स्थान दिया है और वर्ण्य वस्तुओं की संश्लिष्ट योजना की है।

(4) प्रकृति चित्रण-प्रकृति चित्रण सेनापति की अपनी एक विशिष्टता है। कवि स्वयं प्रकृति की प्रत्येक क्षण बदलती छवि पर मन्त्रमुग्ध प्रतीत होता है। उनके द्वारा रचित कवित्तों में प्रकृति के स्वरूप को इस तरह प्रस्तुत किया है-द्रष्टव्य है

“मेरे जान पौनों,
सीरी ठौर को पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है।”
“कातिक की राति थोरि-थोरि सियराति।”

  • कला-पक्ष

(1) भाषा-सेनापति ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उनकी ब्रजभाषा के मुख्यतः दो रूप हैं-

  • क्लिष्ट ब्रजभाषा,
  • सरल ब्रजभाषा।

उन्होंने क्लिष्ट ब्रजभाषा का प्रयोग क्लिष्ट रचनाओं में किया है, जबकि चलती हुई एवं सरल ब्रजभाषा का प्रयोग उनकी रस-प्रधान रचनाओं में अनुभूत है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ ही आपने अरबी और फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। वे अपनी भाषा में शब्दों की तोड़-मरोड़ कभी नहीं करते। ओज, प्रसाद और माधुर्य उनकी भाषा में सर्वत्र देखे जा सकते हैं। उनकी भाषा सरल, सरस, कर्णप्रिय
और सुबोध है। कवि ने अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों का आविष्कार किया है, जिनसे काव्य में संगीतात्मकता उत्पन्न हो गई है।

(2) शैली-सेनापति की शैली की दृष्टि से उनकी रचनाओं को दो रूपों में बाँटा जा सकता है-

  1. भावात्मक,
  2. वर्णनात्मक।

भावात्मक शैली में उन्होंने अनुभूतियों का और वर्णनात्मक शैली में घटनाओं, ऋतुओं, दृश्यों आदि का चित्रण किया है। इन दोनों प्रकार की शैलियों की भाषा अलंकार प्रधान है।

(3) अलंकार-सेनापति काव्य के क्षेत्र में अलंकारवादी सम्प्रदाय से प्रभावित थे। उनके अलंकारवादी होने का तात्पर्य यह नहीं कि उन्होंने रस के उत्कर्ष पर ध्यान नहीं दिया हो। इनकी रचनाओं में अलंकारों का उत्कर्ष है एवं चमत्कार से परिपूर्ण हैं। परन्तु यह कहा जाता है कि जिन रचनाओं में अलंकारों की चकाचौंध है, उनमें रस का प्रवाह बहुत ही मन्द है। सेनापति का सबसे प्यारा अलंकार श्लेष है। अनुप्रास, यमक, प्रतीप, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान, सन्देह और श्लेष आदि अलंकारों से उनकी कविता जगमगाती है।

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(4) छन्द-सेनापति के छन्दों में मनहरण कवित्त ही सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसके अतिरिक्त उन्होंने घनाक्षरी, छप्पय और दोहे भी लिखे हैं।

  • साहित्य में स्थान

रीतिकालीन कवियों में प्रचलित परम्परा से हटकर काव्य रचना करने वाले कवियों में सेनापति का विशिष्ट स्थान है। आपका प्रकृति चित्रण तो अप्रतिम है। सेनापति की कविता शब्द चमत्कार तथा उक्ति वैचित्र्य की दृष्टि से अन्य कवियों के बीच सहज ही पहचानी जा सकती हैं। आपका ऋतु वर्णन हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इन सभी विशेषताओं के कारण हिन्दी जगत अपने आपको आपके द्वारा बहुत ही उपकृत समझता है। हिन्दी साहित्य में आपका नाम सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

10. सुमित्रानन्दन पन्त।
[2009, 11, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

प्रारम्भ में छायावादी फिर प्रगतिवादी और अन्त में आध्यात्मवादी सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय की अनन्त सौन्दर्यमयी प्रकृति की गोद में बसे कर्माचल प्रदेश (अल्मोड़ा जिला) के कौसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. (संवत् 1957 वि.) में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद इनकी माता सरस्वती देवी का देहावसान हो गया था। मातृहीन बालक ने प्रकृति माँ की गोद में बैठकर घण्टों तक चिन्तनलीन होना सीख लिया। इससे आभ्यन्तरिक विचारशीलता का संस्कार विकसित होने लगा। अपने गाँव और अल्मोड़ा के शासकीय हाईस्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की और काशी से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। सेन्ट्रल म्योर कॉलेज में एफ. ए. की कक्षा में अध्ययनरत सुमित्रानन्दन पन्त सन् 1921 ई. गाँधी जी के प्रस्तावित असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए। कॉलेज पढ़ाई छूट गई। बाद में स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत एवं बंगला साहित्य का गहन अध्ययन किया। 29 सितम्बर, सन् 1977 ई. को प्रकृति का गीतकार हमारे बीच से उठ गया।

  • साहित्य-सेवा

इनका बचपन का नाम गुसाई दत्त था। कविता करने की रुचि बचपन से ही थी। इनकी प्रारम्भिक कविता ‘हुक्के का धुंआ’ थी। काव्य की निरन्तर साधना से शीर्षस्थ कवियों में प्रतिष्ठित हुए। कालाकांकर नरेश के सहयोगी रहे। ‘रूपाभ’ पद के सम्पादक का कार्य सफलतापूर्वक किया। बाद में सन् 1950 ई. में आकाशवाणी में अधिकारी बने। अविवाहित पन्त ने सारा जीवन साहित्य साधना में ही समर्पित कर दिया। साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने ‘पद्म-भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुए।

पन्त जी हिन्दी की नई धारा के जागरूक कवि और कलाकार हैं। प्रकृति सुन्दरी की गोदी में जन्म लेने तथा विद्यार्थी जीवन में अंग्रेजी कवि शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ की स्वच्छन्द प्रवृत्तियों से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वे नई दिशा में अग्रसर हो गए। वे प्रकृति और जीवन की कोमलतम विविध भावनाओं के कवि हैं। प्रकृति की प्रत्येक छवि को, जीवन के प्रत्येक रूप को उन्होंने आत्म-विभोर और तन्मय होकर देखा है। उनके काव्य में दो धाराओं का समावेश हो गया है-एक में उनके कवि हृदय का स्पन्दन है, तो दूसरी में विश्व जीवन की धड़कन।

ध्येय-मुख्य रूप से पन्त जी दृश्य जगत के कवि हैं। पहले वे प्राकृतिक सौन्दर्य के कवि थे। बाद में, वे जीवन सौन्दर्य के कवि के रूप में बदल गए। पन्त जी विश्व में ऐसा समाज चाहते हैं जो एक-दूसरे के सुख-दुःख का सहगामी हो सके। पन्त की पंक्तियों में झाँककर देखिए-

“जग पीड़ित रे अति दुःख से, जग पीड़ित रे अति सुख से।
मानव जग में बट जाए, दुःख-सुख से और सुख-दुःख से।।”

  • रचनाएँ

पन्त जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. वाणी-प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति चित्रों से युक्त प्रथम रचना।
  2. पल्लव-छायावादी शैली पर आधारित काव्य संग्रह।
  3. गुञ्जन-सौन्दर्य की अनुभूति प्रधान गम्भीर रचना।
  4. युगान्त,
  5. युगवाणी,
  6. ग्राम्य-प्रगतिशील विचारधारा की मानवतावादी कविताएँ,
  7. स्वर्ण किरण,
  8. स्वर्ण धूलि,
  9. युगपथ,
  10. उत्तरा,
  11. अतिमा,
  12. रजत-रश्मि,
  13. शिल्पी,
  14. कला और बूढ़ा चाँद,
  15. चिदम्बरा,
  16. रश्मिबन्ध,
  17. लोकायतन महाकाव्य आदि उनके काव्य संग्रह हैं।।

उपर्युक्त के अतिरिक्त ‘ग्रन्थि’ (खण्डकाव्य), ज्योत्सना, परी, रानी आदि नाटक, हाट’ (उपन्यास), पाँच कहानियाँ (कहानी संग्रह), मधु ज्वाल’ उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद, तथा ‘रूपाभ’ पत्र का सम्पादन उनकी प्रतिभा का प्रमाण है।

उपाधि एवं पुरस्कार-लोकायतन-महाकाव्य है-उ. प्र. सरकार द्वारा दस हजार रुपये से पुरस्कृत।
‘कला और बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी का पाँच हजार रुपये से पुरस्कृत। ‘चिदम्बरा’ पर एक लाख रुपए का पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा दिया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिन्दी के सबसे पहले कवि थे पन्त जी। भारत सरकार ने ‘पद्य भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया।

  • भाव-पक्ष

(1) सुकुमार भावना और कोमल कल्पना-पन्त जी स्वभाव से अत्यन्त कोमल और सुकुमार स्वभाव थे। अतः उन्होंने अपने काव्य में कोमल बिम्बों का ही विधान किया है। उन्हें ‘कोमल भावनाओं का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।
(2) वेदना की अनुभूति-पन्त के अनुसार कविता विरह से उठा हुआ गान होती है।

“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर नयनों से चुपचाप, वही होगा कविता अनजान।।”

(3) प्रकृति का सजीव चित्रण-पन्त जी का सारा जीवन प्रकृति की गोद में बीता, अतः प्रकृति के साथ ही उन्होंने भावात्मक तल्लीनता स्थापित कर ली। पन्त जी की कविता में प्रकृति के रूप, रंग, रस, गन्ध, ध्वनि तथा गति के चित्र प्राप्त होते हैं। गंगा में उतराती नाव का गतिमय चित्र प्रस्तुत है

‘मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर।
लघु तरणि हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर।।’

पन्त जी ने प्रकृति में आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण और एक उपदेशिका के रूप को देखा है। इस तरह वे प्रकृति के अप्रतिम चितेरे हैं।

(4) प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण-चिरकुमार कवि पन्त जी की कविता छायावादी है। इन्होंने प्रेम की भावना को और सूक्ष्म भावों के चित्रों को काव्य में उभारा है। संयोग और वियोग की अनुभूतियाँ भी चित्रोपम हैं।
(5) रहस्य भावना-अज्ञात और दिव्य सत्ता के प्रति जिज्ञासा को अपने ‘मौन-निमंत्रण’ में कहते हैं न जाने कौन, अये द्युतिमान आन मुझको अबोध अज्ञान।

सुझाते हो तुम पथ अनजान।
फेंक देते छिद्रों में गान।’
यह जिज्ञासा ही उनके रहस्यवाद की द्योतक है।

(6) मानवतावादी दृष्टिकोण-कवि मानव के आन्तरिक और बाह्य रूप पर अपनी दृष्टि डालते हैं

“सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर,
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।।”

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(7) नारी के प्रति सहानुभूति-चिर पीड़िता नारी के प्रति अनन्त करुणा और सहानुभूति द्रष्टव्य है
“मुक्त करो नारी को मानव ! चिर वन्दिनी नारी को।”

(8) प्रगतिवाद-पन्त जी पर कार्ल मार्क्स का प्रभाव था। वे आदर्शों के आकाश से ठोस धरती पर उतरकर आने का स्वर-‘युगान्त’, ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में गुंजायमान करते हैं।
(9) दार्शनिकता-पन्त जी ने जीवन, जगत् और ईश्वर पर अपने दार्शनिक विचार व्यक्त किये हैं।

  • कला-पक्ष
  1. सशक्त भाषा-पन्त जी का भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त, सहज और सुकुमार है। उसमें चित्रमयता, लालित्य और ध्वन्यात्मकता विद्यमान है। माधुर्य प्रधान अनूठा शब्द चयन है। भावानुसार भाषा कोमलता को त्यागकर भयानकता को प्राप्त हो उठती है।
  2. छायावादी लाक्षणिक शैली-छायावाद से प्रभावित इनकी रचनाओं में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता तथा सजीव बिम्ब-विधान सर्वत्र द्रष्टव्य है।
  3. स्वाभाविक अलंकरण-इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, रूपकातिशयोक्ति एवं अन्योक्ति अलंकारों का मौलिक प्रयोग किया गया है। मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि नवीन अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है।
  4. लय प्रधान छन्दों की योजना-पन्त जी ने अपनी कविताओं में तुकान्त और अतुकान्त सभी प्रकार के परम्परागत व नवीन छन्दों का प्रयोग किया है। उनके छन्दों में लय है एवं संगीत तत्व की प्रधानता है।

साहित्य में स्थान पन्त जी का काव्य, भाव और कला दोनों पक्षों में सशक्त और समृद्ध है। भाव कल्पना, चिन्तन, कला सभी दृष्टियों से काव्य उत्कृष्ट है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के शीर्षस्थ कवियों में पन्त जी का अति महत्वपूर्ण स्थान है।

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