MP Board Class 12th Special Hindi विचार एवं भाव-विस्तार
विचार एवं भाव-विस्तार की क्रिया को ‘पल्लवन’ भी कहते हैं। यह वह क्रिया है, जिसके अन्तर्गत सूत्रों,सूक्तियों,लोकोक्तियों एवं महत्त्वपूर्ण कथन या भाव को विस्तार से प्रस्तुत किया जाता है। यह संक्षेपण की प्रतिगामी प्रक्रिया है।
भाव-विस्तार करते समय इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है :
- सूक्ति का अर्थ पूरी तरह से समझने के लिए उसका ध्यान से एवं विचारपूर्वक वाचन करना चाहिए। यदि सन्दर्भ के साथ ही सूत्र उपलब्ध हो सके तो सन्दर्भ के साथ उस सूत्र के अर्थ सम्बन्धों पर दृष्टि केन्द्रित रखते हुए वाचन करना चाहिए। वाचन के समय सूत्र के अर्थ मुख्य रूप से और शेष पदों के साथ उसके अर्थगत सम्बन्ध पर ध्यान रखना चाहिए।
- यह आलोचना. टीका-टिप्पणी या व्याख्या से भिन्न है। इसलिए इसमें निरर्थक सन्दर्भो और उदाहरणों का उल्लेख नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही इसे समास शैली और अलंकृत भाषा में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए।
- भाषा-विस्तार करते समय पुनरावृत्ति और अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए। केवल मूल भाव से सम्बद्ध बातें ही लिखनी चाहिए। जो भी कहा जाये वह सटीक और अपेक्षित हो।
- भाव-विस्तार करते समय सुस्पष्ट,सुग्राह्य, सरल और अर्थपूर्ण भाषा का प्रयोग करना चाहिए। छोटे-छोटे वाक्य बनाना चाहिए।
- भाव-विस्तार के लिए अन्य पुरुष की वाक्य-रचना का प्रयोग करना चाहिए। सामान्य प्रचलित शब्दों का उपयोग करना चाहिए।
यहाँ भाव-विस्तार के कुछ उदाहरण दिये गये हैं। –
(1) कउड़े की आग के ताप से दिपदिपाते चेहरों की प्रसन्नता अँधेरे में भी खनक जाती है [2009]
सर्दियों के मौसम में दिनभर कठोर परिश्रम करने के बाद लोग शाम को अलाव जलाकर उसकी गरमाई के चारों ओर बैठकर अपनी दिनभर की थकान उतारते हैं तथा वार्तालाप, हँसी-मजाक, समस्याओं के समाधान आदि से उनके चेहरे पर अन्धकार में भी छायी प्रसन्नता, उनकी बोली से स्पष्ट हो जाती है। यह सुख आज के वैज्ञानिक युग में समाप्त हो गया है।
(2) जवारों से पीताभ गेहूँ के पौधे क्या यह संदेश नहीं देते कि सृजन की यात्रा कभी रुकती नहीं [2009]
गेहूँ का पौधा बढ़कर मनुष्य को प्रेरणा देता है कि निर्माण सदैव विकास की ओर जाता है। सृजन को अँधेरे-बन्द कमरों में बन्द नहीं किया जा सकता है। जैसे-छोटे से दीपक की लौ दूर-दूर तक प्रकाश फैलाती है, उसी प्रकार सृजन का प्रकाश फैलता ही जाता है। व्यक्ति का आचरण,शील, विवेक,मेहनत, ईमानदारी,आस्था, निष्ठा आदि गुण सृजन की यात्रा को आगे की ओर ले जाते हैं। आले में अंकुरित गेहूँ के पौधे मनुष्य को यही प्रेरणा देते हैं।
(3) अपने सारे उजाले को लेकर भी क्या वह सूर्य यशोधरा के उस वियोगी सूने दिल के निराशपूर्ण अन्धकार को यत्किंचित् भी दूर कर सकता था
गौतम ने यशोधरा को त्यागकर उनके हृदय को सूना कर दिया है तथा यशोधरा को अब प्रियतम के मिलने की भी आशा नहीं है। ऐसे दुःख रूपी अन्धकार से भरे हृदय को सूरज, जो संसार के अन्धकार को मिटाकर उजाले से भर देता है,यशोधरा के हृदय को सुख रूपी प्रकाश से नहीं भर सकता अर्थात् सूर्य भी यशोधरा के सूने मन में प्रसन्नता का प्रकाश नहीं कर सकता।
(4) इस कालकूट को पीकर भी यशोधरा नील-कण्ठ नहीं हुई, कैलाशवासी शंकर भी यह देखकर लज्जा के मारे सकुचा गये
गौतम ने मानव के लिए चिर-सुख का अमृत ढूँढ़ने के लिए संसार को त्यागा था, तो यशोधरा के हिस्से में चिर-वियोग का हलाहल आया। उस विष को पीकर भी यशोधरा नील कण्ठा नहीं कहलायी। लेखक ने इस तुलना से यह स्पष्ट करना चाहा है कि समुद्र मंथन से अमृत व विष निकला। भगवान शंकर ने देवताओं की भलाई के लिए विष का पान किया और नीलकण्ठ कहलाये। यशोधरा के इस आजीवन त्याग को देखकर भगवान शंकर भी लज्जित हो गये,क्योंकि यशोधरा का त्याग भगवान शंकर के त्याग से बड़ा था।
(5) वह विरक्त तपस्वी न तो भौंरों की गुनगुनाहट ही सुनेगा और न मेघ के साथ भेजे गये सन्देश ही उस योगी तक पहुँच पायेंगे
गौतम इस संसार से उदासीन थे। इस कारण उन्हें भौंरों का मधुर संगीत यानि संसार की मधुर स्वर-लहरी सुनायी नहीं देती है। उन्हें अपना सन्देश भेजने के लिए यशोधरा यदि बादलों को अपना दूत बनाकर भेजती है, तो संन्यासी गौतम उसे भी सुन व समझ नहीं पायेंगे।
गद्य-काव्य की इस पंक्ति के माध्यम से डॉ. रघुवीर सिंह बताते हैं कि उस वैरागी-संन्यासी को संसार का सौन्दर्य तथा रिश्तों के बन्धन कभी नहीं बाँध सकते हैं।
(6) काले मतवाले हाथी पर सवार विद्युत-झण्डियों वाले वर्षाराज को देखते ही इन्द्रधनुष आँखों में छा जाता है
वर्षा ऋतु में आकाश में हाथी के काले रंग जैसे बादल तथा हाथी के विशालकाय जैसे बादल हाथी के समान झूमते हुए आकाश में विचरण करते हैं, उन बादलों के बीच चमकती बिजली हाथी पर सवार के हाथ में ली हुई विजय पताका के समान लहराती है। आकाश में इस दृश्य को देखकर वर्षा के थमने के बाद आकाश में छाये इन्द्रधनुष की याद आ जाती है। दूसरा भाव है कि इस दृश्य से आँखों में प्रसन्नता छा जाती है। यहाँ पर मतवाले हाथी काले-काले बादल हैं,झण्डियाँ बिजली का आकाश में लहराना है और इन्द्रधनुष मन का प्रसन्न होना है।
(7) रीतिकालीन कवियों की जिन्दादिली तो रंगबाजी में ही दिखाई पड़ती है [2016]
रीतिकाल के श्रृंगारी कवि नायिका के सौन्दर्य-वर्णन में रंगों का खुले हृदय से प्रयोग करते हैं। नायिका की एड़ी के लाल रंग को छुड़ाने के लिए नाइन गुलाब के झाँवे को रगड़ती है तो लाल खून ही निकल आता है। ब्रज की गोपियों को संसार,यमुना,कदम्ब-कुंज,घटा,वनस्पतियाँ सभी श्याममय अर्थात् काली ही दिखाई देती हैं। उनका रंग भेद नष्ट हो जाता है।
(8) कविता तो कोमल हृदय की चीज है [2011]
मानव-मन की कोमलतम भावनाओं की अभिव्यक्ति ही कविता है। कोमल, संवेदनशील और भावुक हृदय के भावना-तन्त्र जब झंकृत होते हैं, तब कविता का जन्म होता है। सामान्यजनों की अपेक्षा कवि अधिक संवेदनशील होता है। जीवन के सुख-दुःख के प्रति उसके कोमल हृदय की प्रतिक्रिया कविता के रूप में फूट पड़ती है। उसका कोमल हृदय अनजाने में ही कविता के रूप में बहने लगता है। संवेदनशीलता का गुण कोमल हृदय में ही पाया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि कविता हृदय की वस्तु है। जो व्यक्ति ज्ञान की गरिमा और विचारों से बोझिल होता है, वह कविता की रचना नहीं कर सकता। कठोर हृदय, संवेदन-शून्य तथा अरसिक व्यक्ति कविता-रचना करना तो दूर, उसकी अर्चना-आराधना भी नहीं कर सकता।
(9) आँखों के अन्धे नाम नयनसुख
संसार में नाम की ही महिमा है, क्योंकि व्यक्ति नाम से जाना-पहचाना जाता है। किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के गुणों और विशेषताओं के आधार पर ही उसका नाम रखा जाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि कभी-कभी व्यक्ति का नाम उसके व्यक्तित्व और गुणों का परिचायक नहीं होता। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे आस-पास मिल जाते हैं, जिसमें व्यक्ति का नाम उसके गुण और प्रकृति के विपरीत होता है। ऐसा व्यक्ति जिसका नाम के अनुरूप व्यक्तित्व नहीं होता, वह प्रायः समाज में हास्य-विनोद का आलम्बन बन जाता है। गुणों के विपरीत नाम की इसी विडम्बनापूर्ण स्थिति को देखकर ही यह कहा जाता है-आँखों के अन्धे नाम नयनसुख।
(10) दूर के ढोल सुहावने होते हैं
यह कहावत है कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।’ इसका अभिधा अर्थ यह है कि यदि ढोल पास में बजे तो उसका शोर बड़ा कर्णकटु और कर्कश होता है। किन्तु यही ढोल की ध्वनि दर से आये तो बड़ी कर्णप्रिय होती है। दूर से आती ढोल की थाप सुनकर मानव-मन पुलकित हो जाता है और कल्पना करने लगता है कि कहीं कोई खुशी मनायी जा रही है। विवाह का ढोल है तो वह फौरन सोचता है कि जरूर उस घर में नववधू लाज से सिमटी सुनहरे सपने देख रही होगी। इस प्रकार की रमणीय कल्पना करके मन पुलकित होता है। इसी प्रकार जिन्दगी के प्रति बुजुर्गों का कहना है कि सचमुच जिन्दगी की कल्पना दूर के ढोल के समान सुहावनी होती है, क्योंकि जीवन का प्रारम्भ प्रेम से परिपूर्ण होता है। पर जब जीवन के कठोर यथार्थ के धरातल पर युवक को चलना पड़ता है तो अनेक कठिनाइयाँ और समस्याएँ सामने खड़ी रहती हैं, तब उसे जीवन की कटुता का अनुभव होता है। प्रेम का उसका कल्पित संसार न जाने कहाँ खो जाता है और वह जीवन-संग्राम से जूझता हुआ यह सोचता है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
(11) धर्म पार्थक्य का नहीं, एकता का द्योतक है [2009]
इस विशाल संसार में अनेक धर्म हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने विश्वास के साथ अपने धर्म का पालन करता है। अलग-अलग होते हुए भी प्रत्येक धर्म पार्थक्य का नहीं, एकता का द्योतक है। किसी भी धर्म में पृथकता या अलगाव की भावना नहीं है। प्रत्येक धर्म घृणा, विद्वेष तथा हिंसा के स्थान पर प्राणिमात्र को प्रेम,सदभाव,मैत्री,एकता और अहिंसा का सन्देश देता है। धर्म उस ईश्वर को पाने का एक साधन है जो सर्वव्यापक है,सबका रक्षक और पालनहार है। साधन भिन्न-भिन्न होते हुए भी प्रत्येक धर्म का साध्य एक है। अत: धर्म के नाम पर संघर्ष का होना बेईमानी है। धर्म के नाम पर वैमनस्य, ईर्ष्या,द्वेष और कटुता की भावना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ‘मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’। इसलिए यह कथन सत्य है कि धर्म तोड़ता नहीं अपितु, जोड़ता है। धर्म पार्थक्य का नहीं अपितु एकता का द्योतक है।
(12) साहित्य को दिशा तो सृष्टा कलाकार ही देता है
साहित्य मानव-जीवन की अभिव्यक्ति है, उसका आख्यान है। जिस साहित्य में मानव जीवन की उदात्त और यथार्थ अभिव्यक्ति होती है, वही साहित्य श्रेष्ठ और स्थायी होता है। साहित्य को यह दिशा साहित्यकार द्वारा मिलती है। साहित्यकार सामान्य हृदय से अधिक संवेदनशील होता है। उसके पास कल्पना करने, विचार करने की अपूर्व क्षमता और उसको मूर्तरूप देने की प्रतिभा होती है। इसके द्वारा ही वह साहित्य की सर्जना करता है। साहित्यकार को किस प्रकार के साहित्य की रचना करनी चाहिए, इसका निर्णय केवल साहित्यकार ही कर सकता है। आलोचक तो मात्र उस साहित्य की समीक्षा कर केवल उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता बता सकता है। वह साहित्यकार को निर्देश नहीं दे सकता। क्योंकि साहित्य का सृजन नियम या निर्देश के आधार पर नहीं हो सकता। इसलिए यह मत समीचीन है कि साहित्य को दिशा तो सृष्टा कलाकार ही देता है।
(13) तुम देखते हो कि जीवन सौन्दर्य है, हम जागते रहते हैं और देखते रहते हैं कि जीवन कर्त्तव्य है
यह एक सैनिक और कवि के वार्तालाप का एक अंश है। सैनिक जीवन की कठोरता और वास्तविकता का तथा कवि जीवन की कल्पना का प्रतीक है। कवि सपनों के संसार में सोते हुए जीवन को सौन्दर्य मानता है,जबकि एक सैनिक यथार्थ के संसार में जागते हुए जीवन को कर्तव्य मानता है। कवि भावुक होता है, इसलिए वह अपनी भावना के द्वारा सौन्दर्य को ही जीवन समझता है तथा जीवन और संसार की वास्तविकता से दूर अपने बनाये हुए काल्पनिक संसार में मग्न रहता है। इसके विपरीत एक सैनिक सदैव चैतन्य रहता है और अपने कर्तव्य का पालन करता है। उसके लिए जीवन का दूसरा नाम ही कर्तव्य का पालन है। वास्तव में,संसार में अपने कर्तव्य का पालन करना ही जीवन है। जीवन सुन्दर है तथा उसकी उपयोगिता कर्त्तव्य-पालन में ही निहित है।
(14) ईश्वर किसी विशेष धर्म या जाति का नहीं होता
यह बात पूर्णतः सत्य है,कि ईश्वर निर्गुण,निराकार,अखण्ड,अजन्मा तथा सर्वत्र व्याप्त है। उसे किसी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है। ईश्वर ही परम पिता है। वह समस्त धर्मों का नियामक है। ईश्वर किसी धर्म या जाति का नहीं होता है। ईश्वर सभी पर दया बरसाता है।
(15) स्वावलम्बन की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष [2009]
अंग्रेजी की एक बड़ी सुन्दर कहावत है-‘God helps those who help themselves.” अर्थात् ईश्वर उन लोगों की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इस बात को एक उर्दू शायर ने इस प्रकार कहा है-“हिम्मते मर्दा मददे खुदा।” कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान और भाग्य भी केवल स्वावलम्बी व्यक्ति की ही सहायता करते हैं। स्वावलम्बी व्यक्ति आत्म-विश्वास और सफलता की जीती-जागती प्रतिमूर्ति होते हैं। स्वावलम्बन का जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। जीवन में केवल वही व्यक्ति सफल होते हैं,जो स्वावलम्बी होते हैं। स्वावलम्बी मनुष्य के सम्मुख संसार की सारी बाधाएँ सिर झुकाती हैं। स्वावलम्बन से व्यक्ति में आत्म-विश्वास और आत्म-गौरव की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, जिनसे उसका व्यक्तित्व विकसित होता है। समाज में भी केवल ऐसा ही व्यक्ति आदर पाता है,जो अपने पैरों पर खड़ा हो। वास्तव में,यदि यह कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि व्यक्ति में स्वावलम्बन की झलक मात्र से उस पर कुबेर का खजाना तक न्यौछावर रहता है।
(16) बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है [2010]
क्रोध यदि आम है तो बैर उसका अचार या मुरब्बा है। जिस प्रकार आम की अपेक्षा उसका अचार या मुरब्बा अधिक लम्बे समय तक उपयोग में लाया जा सकता है अर्थात् अधिक टिकाऊ होता है, उसी प्रकार बैर,क्रोध का स्थायी रूप है। वास्तव में,जो क्रोध तत्काल प्रदर्शित होने से रह जाता है, वह समय आने पर कुछ अवधि के बाद बैर बनकर प्रदर्शित होता है।