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MP Board Class 12th Hindi Swati Solutions पद्य Chapter 1 भक्ति काव्य
भक्ति काव्य अभ्यास
भक्ति काव्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मीरा की भक्ति किस भाव की थी? (2014)
उत्तर:
मीरा की भक्ति दाम्पत्य (प्रेम) भाव की थी। उनके आराध्य श्रीकृष्ण हैं।
प्रश्न 2.
मीराबाई कैसा वेश रखना चाहती हैं? (2015)
उत्तर:
मीराबाई अपने स्वामी श्रीकृष्ण के लिए बैरागिन का वेश धारण करना चाहती हैं। इसके अलावा वह वही वेश धारण करना चाहती हैं, जिससे श्रीकृष्ण प्रसन्न हों।
प्रश्न 3.
‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:
‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता केशवदास हैं।
प्रश्न 4.
गजमुख का मुख कौन देखता है? (2010, 15)
उत्तर:
गजमुख का मुख दसमुख (रावण) देखता है।
भक्ति काव्य लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मीरा के अनुसार देह का गर्व क्यों नहीं करना चाहिए? (2014)
उत्तर:
मीरा के अनुसार देह का गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शरीर मृत्यु के बाद मिट्टी में मिल जाता है। यह शरीर पाँच तत्वों से निर्मित बताया जाता है-आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि और जल। यह शरीर मृत्यु के पश्चात् इन्हीं तत्वों में मिल जाता है।
प्रश्न 2.
मीरा को हरि से मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हैं? (2010, 17)
उत्तर:
मीरा को हरि से मिलने में निम्नलिखित कठिनाइयाँ हैं-
- मीरा के चारों मार्ग (कर्म, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य) बन्द हैं अर्थात् इनमें से कोई भी मार्ग मीरा के लिए खुला नहीं है।
- हरि का महल इतना ऊँचा है कि मीरा वहाँ तक चढ़ने में असमर्थ है।
- मीरा का मार्ग इतना सँकरा है कि चलते हुए डगमगाती है अर्थात् गिरने का डर लगा रहता है।
- विधाता ने मीरा का गाँव हरि से बहुत दूर बना दिया है।
प्रश्न 3.
भगवान गणेश भक्तों की विपत्तियों को किस प्रकार हर लेते हैं?
उत्तर:
जिस प्रकार एक बालक कमल की डंडी को आसानी से तोड़ देता है उसी प्रकार गणेश जी भक्त के विघ्नों को हर लेते हैं। जिस प्रकार कमलिनी कीचड़ से अलग रहती है उसी प्रकार गणेश जी के भक्त संसार के विघ्नों से दूर रहते हैं। शंकर जी जैसे चन्द्रमा को निष्कलंक कर अपने शीश पर धारण करते हैं उसी प्रकार गणेश जी अपने भक्त को निष्कलंक कर देते हैं।
प्रश्न 4.
माँ सरस्वती की वन्दना कौन-कौन करता है? (2015, 16)
उत्तर:
माँ सरस्वती की वन्दना देवगण, ऋषिगण,श्रेष्ठ तपस्वी, भूत, भविष्य और वर्तमान को जानने वाले,उनके पति ब्रह्मा जी,शंकर जी और कार्तिकेय करते हैं।
भक्ति काव्य दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
“मीरा का सम्पूर्ण काव्य भाव-विह्वलता के गुणों से पूरित है।” सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
मीरा के काव्य में भाव-विह्वलता’ कूट-कूटकर भरी है।
(i) विरह-वेदना :
मीराबाई भगवान कृष्ण के प्रेम की दीवानी थीं। उन्होंने आँसुओं के जल से सींच-सींच कर प्रेम की बेल बोई थी। मीरा ने अपने प्रियतम (श्रीकृष्ण) के विरह में जो कुछ लिखा उसकी तुलना कहीं पर भी नहीं की जा सकती।
(ii) रस और माधुर्य भाव :
मीरा के साहित्य में माधुर्य भाव को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनकी रचनाओं में माधुर्य भाव प्रधान है। उसमें शान्त रस और श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।
(iii) रहस्यवाद :
मीरा के अधिकतर पदों में उनका रहस्यवाद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस रहस्यवाद में प्रियतम के प्रति उत्सुकता, मिलन और वियोग के सजीव चित्र हैं।
प्रश्न 2.
मीरा अपने मन को ईश्वर के चरण कमलों में ही क्यों लीन रखना चाहती हैं?
उत्तर:
मीरा श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में ही अपने मन को लगाना चाहती हैं। जिस किसी को उनके चरण कमलों के अपनी भृकुटि के मध्य दर्शन हो गए वह संसार से ऊपर उठ गया अर्थात् उसका उद्धार हो गया। तीर्थ एवं व्रत करने, काशी में रहकर मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा करने से कुछ नहीं होता और न ही संसार को त्याग करके संन्यासी होने से कुछ होगा। मीरा के अनुसार तो श्रीकृष्ण के चरणों में ध्यान लगाने से ही जीवन सफल होगा। मीरा के प्रभु ही जन्म-मरण के बन्धन को काटने वाले हैं। इसलिए वह श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में ही अपने मन को लगाना चाहती हैं।
प्रश्न 3.
‘कठिन क्रूर अक्रूर आयो’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मथुरा का राजा कंस श्रीकृष्ण का वध करना चाहता था इसलिए उसने नन्दबाबा के मित्र अक्रूर को श्रीकृष्ण को मथुरा लाने के लिए भेजा। उसे विश्वास था कि अक्रूर के साथ नन्दबाबा कृष्ण को मथुरा अवश्य भेज देंगे। अत: वह रथ लेकर श्रीकृष्ण को लेने आया था। अक्रूर का अर्थ यद्यपि दयालु होता है, लेकिन वह कठोर बनकर इस कार्य को करने आया था। श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाकर उसने क्रूरता दिखाई है।
प्रश्न 4.
‘बानी जगरानी की उदारता’ का बखान करना क्यों सम्भव नहीं है?
उत्तर:
जगत वन्दनीया सरस्वती की उदारता (दया) का वर्णन संसार में कोई नहीं कर सकता है। देव, सिद्ध मुनि,श्रेष्ठ तपस्वी सभी उनकी उदारता का वर्णन करते-करते थक गए पर उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर सके। भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञाता भी इस बारे में असमर्थ रहे। उनके पति ब्रह्मा जी, पुत्र शिवजी और नाती कार्तिकेय ने भी उनकी उदारता का बखान किया, पर हर बार उन्हें उनमें कुछ नवीनता ही दिखाई दी।
प्रश्न 5.
श्रीराम वन्दना में राम के नाम की क्या महिमा बताई गई है?
उत्तर:
श्रीराम परिपूर्ण परमात्मा हैं। ये पुराण पुरुषोत्तम हैं। भक्त उनका दर्शन पाकर भी उनको नहीं समझ पाता है क्योंकि वेदों में ‘न इति’, ‘न इति’ कहकर उस भेद को वहीं छोड़ दिया है। केशवदास कवि श्रीराम नाम का निरन्तर जाप करते हैं इसलिए उन्हें जन्म-मरण से डर नहीं लगता अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन से वह छूट जाएँगे। श्रीराम का रूप अणिमा सिद्धि (सूक्ष्मता) प्रदान करता है,उनका गुण गरिमा सिद्धि प्रदान करता है,उनकी भक्ति महिमा नामक सिद्धि प्रदान करती है और उनका पावन नाम मुक्ति प्रदान करता है।
प्रश्न 6.
केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
केशव की भाषा के दो रूप हैं-संस्कृतनिष्ठ भाषा और हिन्दी में प्रचलित शब्दों को लिए हुए हिन्दी भाषा। संस्कृत के अतिरिक्त इन्होंने बुन्देलखण्डी,अवधी और अरबी-फारसी के शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है। केशव के काव्य में अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। इन्होंने जितनी अधिक संख्या में ‘छन्दों का प्रयोग किया है,उतना आज तक किसी भी हिन्दी कवि ने नहीं किया है।
केशव हिन्दी साहित्य के प्रथम एवं सर्वाधिक प्रौढ़ आचार्य हैं। काव्यशास्त्र का जितना व्यापक और प्रौढ़ विवेचन इन्होंने किया है उतना परवर्ती कोई भी आचार्य नहीं कर सका है। केशव की रचनाओं में परिस्थिति और क्रियान्विति के आधार पर सभी रसों की निष्पत्ति हुई है। इन्होंने दोहा, कवित्त, सवैया, चौपाई, सोरठा आदि का प्रयोग किया है। केशव हिन्दी के प्रमुख आचार्य हैं। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी वे पूरे आस्तिक थे।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(अ) बाल्हा मैं बैरागिण………..साधाँ संग रहूँगी हो॥
(ब) भज मन चरण………..जनम की फाँसी।
(स) बालक मृणालनि……….गजमुख-मुख को।
(द) भावी भूत वर्तमान…………..नई-नई॥
उत्तर:
(अ) सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘भक्ति काव्य’ के शीर्षक ‘मीरा के पद’ से अवतरित है। इसकी रचयिता मीराबाई हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में भक्त कवयित्री मीरा ने अपने स्वामी श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए वैरागिण होने और शील, सन्तोष आदि गुणों को धारण करके अपनी अनन्य भक्ति का उल्लेख किया है।
व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि हे स्वामी मैं बैरागिन (संन्यासी) होकर संसार को त्याग दूंगी और जिस भेष (स्वरूप) से मेरे स्वामी कृष्ण प्रसन्न होंगे वैसा ही वेष मैं धारण करूँगी। अपने हृदय में शील और सन्तोष धारण करके सब लोगों के साथ समान व्यवहार करूँगी अर्थात् समता की राह पर चलूँगी। जिसका नाम निरंजन (पवित्र) है,उसी प्रभु का ध्यान मैं हमेशा अपने हृदय में धारण करूंगी। मैं अपने शरीर रूपी वस्त्र को गुरु के ज्ञान रूपी रंग से रंग लूँगी और मन रूपी मुद्रिका (अंगूठी) पहनूंगी। मैं प्रेम से प्रभु के गुणों का वर्णन करूँगी और उन्हीं के चरणों में लिपट कर पड़ी रहूँगी अर्थात् श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय ग्रहण करूँगी। अपने इस शरीर को तन्तु वाद्य बनाकर अपनी जिह्वा से राम नाम को रटती रहूँगी। मेरा शरीर और जिह्वा श्रीकृष्ण के नाम लेने के काम में ही आवे मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर गोपाल हैं। मैं उन्हें प्रसन्न करने के लिए और उनका गुणगान करने के लिए साधुओं के साथ रहकर अपना जीवन सफल बनाऊँगी।
(ब) सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में मीरा श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का भजन करने के लिए अपने आपको प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित कर रही है।
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि हे मन ! तू श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का भजन कर। जिसने भी गिरधर के चरणों के दर्शन अपनी भृकुटि के बीच में कर लिए उसको तो संसार फीका लगता है। जब तक प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों के दर्शन नहीं हुए तो तीर्थ करने,व्रत करने और काशी में शरीर त्यागने से भी कोई लाभ नहीं होता। मनुष्य को इस शरीर का गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शरीर एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। इस संसार का आनन्द तो हार जीत की शर्त के समान है जो शाम होते ही उठ जाता है। जैसे बाजार की चहल-पहल दिन में ही रहती है,शाम होते ही समाप्त हो जाती है। गेरुए वस्त्र धारण कर और घर त्याग कर संन्यासी होकर यदि ईश्वर को प्राप्त करने की युक्ति नहीं जानी तो फिर यह सब व्यर्थ है। फिर दोबारा संसार के जन्म-मरण के चक्कर में फंसना पड़ता है। मीरा के प्रभु तो गिरधर गोपाल हैं,वही उनके जन्म-मरण की रस्सी को काटकर उसे जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करेंगे।
(स) सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश केशवदास द्वारा रचित ‘वन्दना’ के शीर्षक ‘गणेश वन्दना’ से उद्धृत है।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि केशवदास ने विघ्नहारी गणेश जी की वन्दना की है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जैसे बालक कमल की डाल को किसी भी समय आसानी से तोड़ डालता है। उसी प्रकार गणेश असमय में आए विकराल दुःख को भी दूर कर देते हैं। जैसे कमल के पत्ते पानी में फैली कीचड़ को नीचे भेज देते हैं और स्वयं स्वच्छ होकर ऊपर रहते हैं, उसी प्रकार गणेश हर विपत्ति को दूर कर देते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा को निष्कलंक कर शिवजी ने अपने शीश पर धारण किया उसी प्रकार गणेश जी अपने दास को कलंक रहित कर पवित्र कर देते हैं। गणेश जी बन्धन से अपने दास को मुक्त कर देते हैं। रावण भी गणेश जी के मुख की तरफ देखकर अपनी बाधाओं को दूर करने की आशा रखता है।
(द) सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद ‘केशवदास’ द्वारा रचित ‘वन्दना’ के शीर्षक ‘सरस्वती वन्दना’ से उद्धृत है।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने सरस्वती की उदारता का वर्णन किया है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जगत में पूज्य सरस्वती की उदारता का वर्णन नहीं किया जा सकता। संसार में ऐसी श्रेष्ठ बुद्धि किसी में नहीं है जो उनकी उदारता का वर्णन कर सके देवता, सिद्ध मुनि,श्रेष्ठ तपस्वी सभी कह-कह कर हार गये, लेकिन कोई भी उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर सका। भूत, वर्तमान और भविष्य बताने वाले सभी ने वर्णन किया, लेकिन केशवदास कहते हैं कि कोई भी सरस्वती की दया (उदारता) का वर्णन नहीं कर सका। उनके पति ब्रह्माजी ने, पुत्र शंकर जी ने और उनके नाती कार्तिकेय ने भी सरस्वती की उदारता का वर्णन किया लेकिन वे भी उनकी उदारता का पार नहीं पा सके। (शंकर जी का जन्म ब्रह्माजी की भौंहों से होने के कारण उनको पुत्र कहा गया है और कार्तिकेय शिवजी के पुत्र होने के नाते सरस्वती के नाती हुए।)
भक्ति काव्य काव्य सौन्दर्य
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के हिन्दी मानक रूप लिखिए।
उत्तर:
प्रश्न 2.
‘म्हारों’, ‘सूँ’ आदि राजस्थानी शब्दों का प्रयोग मीरा के पदों में हुआ है। ऐसे ही अन्य शब्दों का चयन कर उनका अर्थ लिखिए।
उत्तर:
प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:
रसना – जिह्वा,जीभ,रसना।
पथ – मार्ग,पथ,राह।
गगन – नभ, आकाश, व्योम।
देह – तन,बदन,शरीर।
जगत – संसार,जग, दुनिया।
मुख – मुँह, वदन, आनन।
भव – जन्म,उत्पत्ति,संसार।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित पंक्तियों में अलंकार पहचान कर लिखिए
(क) ‘सोच सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाइ।’
(ख) भज मन चरण कँवल अविनासी।’
(ग) ‘बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल।’
(घ) विपति हरत हठि पद्मिनी के पात सम।’
(ङ) पूरण पुराण अरु पुरुष पुराण परिपूरण ‘
(च) ‘दरसन देत जिन्हें दरसन सुमुझै न।’
उत्तर:
(क) अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
(ख) रूपक अलंकार
(ग) उत्प्रेक्षा अलंकार
(घ) उपमा अलंकार
(ङ) अनुप्रास अलंकार
(च) यमक अलंकार।
प्रश्न 5.
रस की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की सहायता से पुष्ट होकर स्थायी भाव जब परिपक्व अवस्था को प्राप्त होता है, तो रस कहलाता है।
प्रश्न 6.
‘केशवदास’ की संकलित वन्दनाओं में कौन-सा रस है?
उत्तर:
शान्त रस।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों में निहित रस तथा उसके विभिन्न अंगों को समझाइए-
बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ,
ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध रिषिराज तपबृद्ध,
कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
उत्तर:
उक्त पंक्तियों में शान्त रस है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है। यहाँ आलम्बन विभाव सरस्वती जी हैं तथा आश्रय भक्त, गुणों का गान, अनुभव, धृति, मति आदि संचारी भाव हैं।
मीरा के पद भाव सारांश
‘मीरा के पद’ नामक कविता की रचयिता ‘मीराबाई हैं। उन्होंने इन पदों में श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार कर प्रेमभाव से समन्वित भक्ति को ही अपनी साधना का आधार बनाया।
भक्तिकाल में भक्ति का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति के साथ-साथ समाज कल्याण की भावना की परिपुष्टि भी रही है। संकलित पदों में मीरा का दृढ़ संकल्प,उनकी सत्संग की प्रबल-चाह, उनकी भक्ति-यात्रा में आने वाले विघ्न, उन पर सद्गुरु की असीम कृपा तथा कृष्ण-कृपा की एकनिष्ठ आकांक्षा का उल्लेख है। मीरा के अनुसार, वह अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए कोई भी वेष धारण कर सकती हैं। पिय से मिलने में कठिनाई है। संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि बाधाएँ प्रभु के पास जाने से रोकते हैं। मीरा के सतगुरु ने गिरधर नागर को ही उनका प्रभु बताया है। लाज के कारण मीरा कृष्ण के साथ मथुरा नहीं जा सकीं। श्याम के बिछड़ने से हृदय में पीड़ा हुई। संसार से उद्धार पाने के लिए देह का गर्व छोड़कर श्रीकृष्ण के चरण कमलों की वन्दना करनी चाहिए। श्रीकृष्ण से मीराबाई की यही प्रार्थना है कि वे उनका जन्म-मरण के बन्धन से उद्धार कर दें।’
मीरा के पद संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
(1) बाल्हा मैं बैरागिण हूँगी हो।
जो-जो भेष म्हाँरो साहिब रीझै, सोइ-सोइ भेष धरूँगी, हो।
सील सन्तोष धरूँ घट भीतर, समता पकड़ रहूँगी, हो।
जाको नाम निरजण कहिये, ताको ध्यान धरूँगी, हो।
गुरु ज्ञान रंगू, तन कपड़ा, मन मुद्रा पेरूँगी, हो।
प्रेम प्रीत सँ हरि गुण गाऊँ चरणन लिपट रहँगी, हो।
या तन की मैं करूँ कीगरी, रसना नाम रदूँगी, हो।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर, साधाँ संग रहूँगी, हो।
शब्दार्थ :
बाल्हा = स्वामी; म्हाँरो = मेरे; साहिब = आराध्य (कृष्ण); सील = शील, लज्जा; घट = हृदय; समता = बराबरी; निरजण = निरंजन (दोष रहित); या तन = यह शरीर; कीगरी = तंतु वाद्य; रसना = जिह्वा (जीभ); गिरधर नागर = गिरिराज पर्वत को धारण करने वाले श्रीकृष्ण; साधौँ = साधुओं के।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘भक्ति काव्य’ के शीर्षक ‘मीरा के पद’ से अवतरित है। इसकी रचयिता मीराबाई हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में भक्त कवयित्री मीरा ने अपने स्वामी श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए वैरागिण होने और शील, सन्तोष आदि गुणों को धारण करके अपनी अनन्य भक्ति का उल्लेख किया है।
व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि हे स्वामी मैं बैरागिन (संन्यासी) होकर संसार को त्याग दूंगी और जिस भेष (स्वरूप) से मेरे स्वामी कृष्ण प्रसन्न होंगे वैसा ही वेष मैं धारण करूँगी। अपने हृदय में शील और सन्तोष धारण करके सब लोगों के साथ समान व्यवहार करूँगी अर्थात् समता की राह पर चलूँगी। जिसका नाम निरंजन (पवित्र) है,उसी प्रभु का ध्यान मैं हमेशा अपने हृदय में धारण करूंगी। मैं अपने शरीर रूपी वस्त्र को गुरु के ज्ञान रूपी रंग से रंग लूँगी और मन रूपी मुद्रिका (अंगूठी) पहनूंगी। मैं प्रेम से प्रभु के गुणों का वर्णन करूँगी और उन्हीं के चरणों में लिपट कर पड़ी रहूँगी अर्थात् श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय ग्रहण करूँगी। अपने इस शरीर को तन्तु वाद्य बनाकर अपनी जिह्वा से राम नाम को रटती रहूँगी। मेरा शरीर और जिह्वा श्रीकृष्ण के नाम लेने के काम में ही आवे मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर गोपाल हैं। मैं उन्हें प्रसन्न करने के लिए और उनका गुणगान करने के लिए साधुओं के साथ रहकर अपना जीवन सफल बनाऊँगी।
काव्य सौन्दर्य :
- भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मीरा की भक्ति भावना और श्रद्धा व्यक्त हुई है।
- अनुप्रास, रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।
- दास्य भाव की प्रधानता है।
- राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
- शान्त रस का प्रयोग।
(2) गली तो चारों बन्द हुई, मैं हरि से मिलूँ कैसे जाइ।
ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराइ।
सोच-सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाइ।
ऊँचा नीचा महल पिया का, हमसे चढ्या न जाइ।
पिया दूर पथ म्हारो झीणों, सूरत झकोला खाइ।
कोस कोस पर पहरा बैठ्या, पैड़ पैड़ बटमार।
हे विधना कैसी रच दीन्हीं, दूर बस्यौ म्हाँरो गाँव।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सतगुरु दई बताय।
जुगन जुगन से बिछड़ी मीरा, घर में लीन्हीं लाय॥
शब्दार्थ :
गली = रास्ता; राह = मार्ग; रपटीली = चिकनी;जतन से = प्रयास से; डिग जाय = फिसल जाता है; झीणों = पतला, सँकरा; सूरत = शरीर;झकोला = हिल जाना; कोस = दो मील की दूरी;पैड़ = जगह; बटमार = राह का कर लेने वाले विधना = विधाता; बस्यौ = स्थित; म्हाँरो = मेरा; जुगन-जुगन = युग-युग से (युग चार होते हैं-सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग); बिछड़ी = बिछड़ गई है; लाय = अग्नि।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में मीराबाई ने अपने स्वामी श्रीकृष्ण से मिलने में संसार में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया है।
व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि प्रभु से मिलने के चारों रास्ते (कर्म, भक्ति,ज्ञान, वैराग्य) बन्द हैं तो फिर वह कैसे प्रभु से मिलें अर्थात् न तो कर्म अच्छा है,न भक्ति है,न ज्ञान है और न ही वैराग्य है जिससे कि प्रभु के पास जाया जा सकता है। उनसे मिलने का मार्ग ऊँचा-नीचा और रपटीला है जिस पर पैर ठहर नहीं पाते हैं अर्थात् चलने के लिए खड़े होते ही गिर जाते हैं। यहाँ पर प्रभु-मार्ग में आने वाली कठिनाइयों की ओर संकेत किया गया है। मन में बार-बार सोच-विचार कर आगे बढ़ने का प्रयत्न करती हूँ फिर भी पैर आगे नहीं बढ़ पाते। मेरे प्रिय श्रीकृष्ण का महल बहुत ऊँचा है जिसमें चढ़ने में मैं अपने को असमर्थ पाती हूँ। मेरे प्रियतम दूर बसे हैं और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग बहुत सँकरा है जिस पर चलते ही शरीर डगमगाता है और नीचे गिरने का भय बना रहता है। हर कोस पर पहरेदार बैठे हैं और जगह-जगह पर कर वसूल करने वाले (लूटने वाले लुटेरे-काम, क्रोध,लोभ,मोह) बैठे हुए हैं जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा उत्पन्न करते हैं। विधाता ने कुछ ऐसा नियम बनाया है जिसके कारण मेरा गाँव मेरे पिया से बहुत दूर है। मीरा को उसके सद्गुरु ने यह बताया है कि उसके प्रभु (स्वामी) तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं। उनसे बिछड़े हुए कई युग बीत गये हैं। मीरा के घर में आग लगी हुई है जिसके कारण न तो घर में रह सकती है और बाहरी संसार उसे रहने नहीं देता। ऐसे में प्रभु श्रीकृष्ण ही उसे अपना कर उसकी रक्षा कर सकते हैं।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा, पद गेय एवं लालित्यपूर्ण है।
- अनुप्रास अलंकार।
- गुण माधुर्य।
- शान्त रस है।
3. सखी री लाज बैरन भई।
श्री लाल गोपाल के संग काहे नाहिं गई।।
कठिन क्रूर अक्रूर आयो, साजि रथ कह नई।
रथ चढ़ाय गोपाल लैगो, हाथ मीजत रही।।
कठिन छाती स्याम बिछुरत, बिरह में तन तई।
दासी मीरा लाल गिरधर, बिखर क्यों न गई।
शब्दार्थ :
लाज = लज्जा; बैरन = दुश्मन; काहे = क्यों; क्रूर = कठोर; साजि = सजाकर; हाथ मीजत रही = पछता कर रह गई; बिरह = वियोग; तन = शरीर;तई = कढ़ाई; बिखर = नष्ट होना।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्यांश में मीराबाई ने विरह जनित पीड़ा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। लोकलाजवश वह श्रीकृष्ण के साथ नहीं जा पाईं और उनके मथुरा चले जाने पर पछता कर रह गई।
व्याख्या :
मीराबाई कहती हैं कि हे सखी ! मेरी लाज ही मेरी दुश्मन हो गई। उसने मुझे गोपाल श्रीकृष्ण के साथ नहीं जाने दिया। मथुरा से कठोर हृदय वाला अक्रूर आया और अपने साथ सुन्दर रथ सजाकर लाया जिसमें कि श्रीकृष्ण को बिठाकर मथुरा ले गया और मैं अपने मन में पश्चाताप करती हुई रह गई। श्रीकृष्ण के वियोग में मेरा हृदय कठोरता का अनुभव करने लगा और मेरा शरीर उनके विरह में कढ़ाई के समान जलने लगा। मीरा तो गोपाल श्रीकृष्ण की दासी है। उन्होंने ही भक्तों के हित में गोवर्धन पर्वत उठाया था। मीरा को इस बात का दुःख है कि वह श्रीकृष्ण के विरह में नष्ट क्यों नहीं हो गई।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा,पद गेय है एवं लालित्यपूर्ण है।
- रस वियोग शृंगार।
- अनुप्रास व उपमा अलंकार।
- विरह का अनूठा वर्णन।
4. भज मन चरण कँवल अविनासी।
जे ताई दीसे धरण गगन बिच, ते ताइ सब उठि जासी।
कहा भयो तीरथ ब्रत कीन्हें, कहा लिए करवत कासी।
इस देही का गरब न करणा, माटी में मिल जासी।।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पड्यो उठ जासी।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भये संन्यासी।।
जोगी होइ जुगत नहि जाणी, उलटि जनम फिर आसी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, काटो जनम की फाँसी।। (2009)
शब्दार्थ :
कँवल = कमल; अविनासी = जिसका नाश न हो; करवत कासी = काशी में मृत्यु होने पर; देही = शरीर; गरब = घमण्ड; चहर = रौनक; बाजी = हार जीत पर कुछ लेन-देन की शर्त; भगवा = गेरुए कपड़े; जुगत = युक्ति।
सन्दर्भ :
पूर्ववत्।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में मीरा श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का भजन करने के लिए अपने आपको प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित कर रही है।
व्याख्या :
मीराबाई कहती है कि हे मन ! तू श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का भजन कर। जिसने भी गिरधर के चरणों के दर्शन अपनी भृकुटि के बीच में कर लिए उसको तो संसार फीका लगता है। जब तक प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों के दर्शन नहीं हुए तो तीर्थ करने,व्रत करने और काशी में शरीर त्यागने से भी कोई लाभ नहीं होता। मनुष्य को इस शरीर का गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शरीर एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। इस संसार का आनन्द तो हार जीत की शर्त के समान है जो शाम होते ही उठ जाता है। जैसे बाजार की चहल-पहल दिन में ही रहती है,शाम होते ही समाप्त हो जाती है। गेरुए वस्त्र धारण कर और घर त्याग कर संन्यासी होकर यदि ईश्वर को प्राप्त करने की युक्ति नहीं जानी तो फिर यह सब व्यर्थ है। फिर दोबारा संसार के जन्म-मरण के चक्कर में फंसना पड़ता है। मीरा के प्रभु तो गिरधर गोपाल हैं,वही उनके जन्म-मरण की रस्सी को काटकर उसे जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करेंगे।
काव्य सौन्दर्य :
- ब्रजभाषा है,पद गेय एवं लालित्यपूर्ण है।
- अनुप्रास एवं उपमा अलंकार है।
- गुण-माधुर्य
- शान्त रस है।
वन्दना भाव सारांश
‘वन्दना’ नामक कविता के रचयिता नीतिनिपुण एवं स्पष्टवादी ‘केशवदास’ हैं। इसमें उन्होंने प्रथम पूज्य गणेश, विद्या की देवी सरस्वती एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम की वन्दना की है।
भक्ति केवल भक्तिकाल तक सीमित भाव नहीं है, यह काव्य के लिए एक शाश्वत-भाव भी है। इसलिए अन्य काल के कवियों में भी भक्ति-तत्व के दर्शन होते हैं; जैसे’केशवदास’-वे रीतिकाल के कवि माने जाते हैं, किन्तु उनकी कविता में भी भक्ति-भावना का निदर्शन हुआ है। प्रस्तुत काव्यांश में केशवदास द्वारा की गई देव वन्दना परक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं। भक्ति’ के अन्तर्गत ‘इष्ट’ के वन्दन-अर्चन की प्रक्रिया है। वे गणेश, सरस्वती और श्रीराम की वन्दना करते हुए इनकी महिमा का वर्णन करते हैं। वे गणेश की कष्ट निवारक क्षमता,सरस्वती की उदारता और श्रीराम की मुक्ति प्रदायिनी क्षमता का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं।
वन्दना संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या
1. गणेश वन्दना
बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल,
कठिन कराल त्यों अकाल दीह दुःख को।
बिपति हरत हठि पद्मिनी के पात सम,
पंक ज्यों पताल पेलि पठवै कलुष को।
दूरि कै कलंक-अंक भव-सीस-ससि सम,
राखत है केशोदास दास के बपुष को।
साँकरे की साँकरनि सनमुख होत तोरै,
दसमुख मुख जोवै गजमुख-मुख को।।
शब्दार्थ :
मृणालनि = कमल की नाल; कराल = विकराल; अकाल = असमय; दीह = बड़ा,लम्बा; पद्मिनी = कमलनी; पात = पत्ता;पंक = कीचड़; पेलि = हठपूर्वक; पठवै = भेज देता है; कलुष = पाप; अंक = गोद; वपुष = देह; सनमुख = सामने दसमुख = रावण; गजमुख = गणेश।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश केशवदास द्वारा रचित ‘वन्दना’ के शीर्षक ‘गणेश वन्दना’ से उद्धृत है।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि केशवदास ने विघ्नहारी गणेश जी की वन्दना की है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जैसे बालक कमल की डाल को किसी भी समय आसानी से तोड़ डालता है। उसी प्रकार गणेश असमय में आए विकराल दुःख को भी दूर कर देते हैं। जैसे कमल के पत्ते पानी में फैली कीचड़ को नीचे भेज देते हैं और स्वयं स्वच्छ होकर ऊपर रहते हैं, उसी प्रकार गणेश हर विपत्ति को दूर कर देते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा को निष्कलंक कर शिवजी ने अपने शीश पर धारण किया उसी प्रकार गणेश जी अपने दास को कलंक रहित कर पवित्र कर देते हैं। गणेश जी बन्धन से अपने दास को मुक्त कर देते हैं। रावण भी गणेश जी के मुख की तरफ देखकर अपनी बाधाओं को दूर करने की आशा रखता है।
काव्य सौन्दर्य :
- भक्ति रस का प्रयोग हुआ है।
- अनुप्रास, उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग।
- गुण-माधुर्य।
2. सरस्वती वन्दना
बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ
ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध रिषिराज तपवृद्ध
कहि-कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत वर्तमान जगत बखानत है,
केशोदास क्योंहू ना बखानी काहू पै गई।
पति बनें चार मुख पूत बर्ने पाँच मुख,
नाती बनें घटमुख तदपि नई-नई। (2009)
शब्दार्थ :
बानी = सरस्वती;जगरानी = जगत् की पूज्य; उदारता = दयालुता; बखानी = वर्णन करना;मति = बुद्धि; उदित = उदय होना; तपवृद्ध = श्रेष्ठ तपस्वी; भावी भूत वर्तमान = भूत, वर्तमान और भविष्य; चारमुख = ब्रह्मा; पाँच मुख = शिवजी; षटमुख = कार्तिकेय; तदपि = फिर भी।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद ‘केशवदास’ द्वारा रचित ‘वन्दना’ के शीर्षक ‘सरस्वती वन्दना’ से उद्धृत है।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने सरस्वती की उदारता का वर्णन किया है।
व्याख्या :
कवि कहता है कि जगत में पूज्य सरस्वती की उदारता का वर्णन नहीं किया जा सकता। संसार में ऐसी श्रेष्ठ बुद्धि किसी में नहीं है जो उनकी उदारता का वर्णन कर सके देवता, सिद्ध मुनि,श्रेष्ठ तपस्वी सभी कह-कह कर हार गये, लेकिन कोई भी उनकी उदारता का वर्णन नहीं कर सका। भूत, वर्तमान और भविष्य बताने वाले सभी ने वर्णन किया, लेकिन केशवदास कहते हैं कि कोई भी सरस्वती की दया (उदारता) का वर्णन नहीं कर सका। उनके पति ब्रह्माजी ने, पुत्र शंकर जी ने और उनके नाती कार्तिकेय ने भी सरस्वती की उदारता का वर्णन किया लेकिन वे भी उनकी उदारता का पार नहीं पा सके। (शंकर जी का जन्म ब्रह्माजी की भौंहों से होने के कारण उनको पुत्र कहा गया है और कार्तिकेय शिवजी के पुत्र होने के नाते सरस्वती के नाती हुए।)
काव्य सौन्दर्य :
- सरस्वती वन्दना में उनके प्रति आस्था का निष्पादन हुआ है।
- ब्रजभाषा में रचना है।
- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
- भाषा में मधुरता का गुण है।
- शान्त रस का प्रयोग।
3. श्रीराम वन्दना
पूरण पुराण अरु पुरुष पुराण परिपूरण,
बतावै न बतावै और उक्ति को।
दरसन देत जिन्हें दरसन सुमुझैं न,
नेति-नेति कहैं वेद छाँड़ि भेद जुक्ति को।
जानि यह केशोदास अनुदिन राम-राम,
स्टत रहत न डरत पुनरुक्ति को।
रूप देहि अणिमाहि गुन देई गरिमाहि
भक्ति देई महिमाहि नाम देई मुक्ति को।
शब्दार्थ :
पूरण पुराण = पूर्ण ब्रह्म; परिपूरण = पूरे; पुरुष पुराण = पुरुषोत्तम; उक्ति = उपाय; दरसन = दर्शन; नेति-नेति = इतना ही नहीं; वेद = वेद चार हैं-सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद, भेद जुक्ति = भेद करने की युक्ति; अनुदिन = प्रतिदिन; पुनरुक्ति = बार-बार संसार में आना; अणिमाहि = सूक्ष्मता, अणिमा सिद्धि; गुन = गुण; गरिमा = अष्ट सिद्धियों में से एक; गुरुत्व,महिमा = आठ सिद्धियों में से एक (महिमा); मुक्ति = जन्म मृत्यु से छुटकारा।
सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश ‘केशवदास’ द्वारा रचित ‘वन्दना’ के शीर्षक ‘श्रीराम वन्दना’ से लिया गया है।
प्रसंग :
यहाँ पर कवि ने श्रीराम की वन्दना का वर्णन किया है।
व्याख्या :
केशवदास कहते हैं कि और कोई उक्ति बताये या न बताये श्रीराम पूर्ण ब्रह्म पुरुषोत्तम हैं। उनका दर्शन पाकर भी कोई उन्हें समझ नहीं पाता है क्योंकि वेद भी ‘न इति’ ‘न इति’ कहकर उस भेद को वहीं छोड़ देते हैं। यह जानकर केशवदास प्रतिदिन राम-राम रटते रहते हैं जिसके कारण उन्हें जन्म-मरण का डर नहीं रहता,क्योंकि राम-राम रटने से जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। श्रीराम का रूप अणिमा सिद्धि (सूक्ष्मता) प्रदान करता है, उनका गुण गरिमा सिद्धि (गुरुत्व) प्रदान करता है, उनकी भक्ति महिमा (बड़प्पन) सिद्धि प्रदान करती है और उनका नाम मुक्ति प्रदान करता है।
काव्य सौन्दर्य :
- श्रीराम की महानता का बड़ा विशद वर्णन है।
- भक्ति रस समाया हुआ है।
- अनुप्रास, श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकारों का प्रयोग।
- ब्रजभाषा में मधुरता का गुण है।