MP Board Class 12th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 6-11)
6. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’
[2010]
- जीवन परिचय
साठोत्तरी हिन्दी नाटककारों में डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। आपका जन्म 8 फरवरी,सन् 1936 को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) जिले के राजापुर गढ़ेवा ग्राम में हुआ था। आपने एम. ए. और पी-एच.डी. तक शिक्षा ग्रहण की है।
- साहित्य सेवा
डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ आधुनिक नाट्यशास्त्र को नई दिशा की ओर मोड़ने वाले एक प्रतिभासम्पन्न नाटककार के रूप में सुविख्यात हैं। आपने अब तक सोलह नाटक, चार एकांकी संग्रह,दो कविता-संग्रह,एक उपन्यास,आत्मकथा तथा समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखे हैं। लेखन का यह तीव्र क्रम वर्तमान में भी जारी है।
- रचनाएँ
इनकी अनेक रचनाएँ हैं, जिनमें ऐतिहासिक तथा समाज की विसंगतियों का सरलता से बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है। इनके द्वारा लिखे गये एकांकियों में ‘स्वप्न का सत्य’, ‘टूटते हुए’,’बहुरुपिए’, ‘मुखौटे बोलते हैं’, ‘गृह कलह’, कायाकल्प’,’समर्पण’,’प्रायश्चित’ आदि प्रमुख।
- वर्ण्य विषय
इनके नाटक व एकांकी सम-सामायिक समाज की स्थिति तथा ऐतिहासिकता को लेकर रचे गये हैं, जिनके पात्र भी ऐतिहासिक व सत्य हैं। सामाजिक रचनाओं में इन्होंने समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता और अन्धविश्वास पर करारा व्यंग्य किया है।
- भाषा
इनकी भाषा सरल, अभिनेय और मंचीय है। वाक्य छोटे होने के साथ बोधगम्य तथा सरल हैं। भाषा में प्रवाह है तथा वह संवाद तथा कथ्य को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्थ है। कहीं-कहीं संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। कथ्य को प्रभावशाली बनाने के लिए विदेशी, देशज इत्यादि शब्दों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया गया है। भाषा में महावरों तथा कहावतों का प्रयोग भी देखने को मिलता है; जैसे—आस्तीन का साँप, इज्जत धूल में मिलाना इत्यादि। भाषा पात्रों के अनुकूल है।
- शैली
जहाँ एक ओर आपने सामाजिक बुराइयों को उजागर कर उन्हें दूर करने के लिए व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर आपने अपने समस्त नाटक नाट्य-शैली में प्रस्तुत किये हैं। संवादों की लघुता, भावों की गहराई का परिचय देती है। एकांकियों की शैली मंचीय है। व्यंग्यात्मक स्थानों में उद्धरण, व्याख्या, व्यास और सूक्ति शैली को अपनाया गया है।
- साहित्य में स्थान
नई पीढ़ी के नाटककारों में डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ को एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आपने नाटक,कहानी,एकांकी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा तथा समीक्षात्मक विधाओं में हिन्दी साहित्य को अनुपम कृतियाँ प्रदान की हैं। कृतियों की मौलिकता के कारण डॉ.शक्ल अग्रणी साहित्यकारों में गिने जाते हैं।
7. पं. रामनारायण उपाध्याय
[2009, 11, 14, 17]
घर के विद्वत् वातावरण तथा संस्कृतनिष्ठ संस्कारों से युक्त पं. रामनारायण उपाध्याय ने मध्य प्रदेश की आदिवासी संस्कृति को साहित्य में उतारने का प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका साहित्य ग्रामीण को उजागर करने में सफल रहा है। वह अपने पाठकों को अपनी बात बताने में सहजता की डोर पकड़े रहते हैं।
- जीवन परिचय
पं.रामनारायण उपाध्याय का जन्म 20 मई,सन् 1918 को कालमुखी नामक ग्राम,जिला (खण्डवा) मध्य प्रदेश में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री सिद्धनाथ तथा माता का नाम दुर्गादेवी था। आपने साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की और पण्डित कहलाने लगे। आपने अंग्रेजी-हिन्दी का विशद अध्ययन किया जिस कारण आपका जीवन दृष्टिकोण भी अति उदार तथा विशाल बना। आप ग्रामीण जीवन व माटी से जुड़े रहे। यही ग्रामीण वातावरण आपके साहित्य में परिलक्षित होता है। आप गाँधीवादी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित थे। आपकी लेखनी सत्य और मानव कल्याण के लिये थी। ग्राम संस्कृति के चितेरे पं.रामनारायण उपाध्याय 20 जून,सन् 2001 को स्वर्गवासी हए।
- साहित्य सेवा
निमाडी लोक साहित्य के मर्मज्ञ पं. उपाध्यायजी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। ‘ अत: लिखने के लिए एकान्त के अतिरिक्त उन्हें किसी वस्तु व साधन की आवश्यकता नहीं थी। वे ‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्-भोपाल’ तथा ‘राष्ट्र भाषा परिषद भोपाल’ के संस्थापक सदस्य रहे। आपने अपनी पत्नी शकुन्तला देवी की स्मृति में ‘लोक-संस्कृति न्यास की स्थापना 27 नवम्बर, सन् 1989 को की। आपको लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू (राजस्थान) द्वारा ‘निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’ पर झवेर चन्द मेधाणी स्वर्णपदक (1982) में, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान (1986) में, इंडियन फोकलोर सोसायटी, कलकत्ता द्वारा भोजपुरी सम्मेलन, रेणुकूट, वाराणसी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’ (1993) में,तथा मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा 11000 रुपये का भवभूति अलंकरण’ (1996) में प्राप्त हुआ। पंडितजी की प्रकाशित रचनाओं की संख्या चालीस से अधिक है। ‘कुंकुम-कलश और आम्रपल्लव’, ‘हम तो बाबुल तोरे बाग की चिड़िया’, ‘कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, ‘चतुर चिडिया’ तथा ‘निमाड़ का लोक-साहित्य और उसका इतिहास’ उनकी पुरस्कृत रचनाएँ हैं।
- रचनाएँ
पं. उपाध्याय जी ने साहित्य की विविध विधाओं; जैसे-व्यंग्य, निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज,लघु कथाएँ आदि में लिखा।
- संस्मरण-कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, जिन्हें भूल न सका।
- व्यंग्य–’बख्शीश नामा’, ‘घुघराले काँच की दीवार’।
- ललित निबन्ध–’जनम-जनम के फेरे’, ‘आओ अब घर चलें’ ‘आस्थाओं की जमीन’।
- लोक साहित्य-निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’, ‘लोक जीवन में राम’।
- पत्र-संग्रह–’चिट्ठी-पत्री’।
- व्यक्तित्व-कृतित्व-‘मामूली आदमी’, ‘धरती का बेटा’। वर्ण्य विषय बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं.उपाध्याय जी को अपने गाँव से ही साहित्य रचने की प्रेरणा मिली। उनकी सम्पर्क-शीलता, जनसाधारण से पत्र-व्यवहार और परिचय की व्यापकता ने
उन्हें साहित्य रचना का वर्ण्य-विषय प्रदान किया। निमाड़ी लोक-जीवन को साहित्य में उतारने का सराहनीय कार्य पंडितजी ने किया। एक सच्चे किसान की भावुकता,सहृदयता और क्रियाशीलता उनके साहित्य में सर्वज्ञ दिखाई देती है। गाँधीवादी जीवन और विचारधारा के साथ ग्राम और ग्राम्य संस्कृति उनकी रचनाओं के आधार हैं।
- भाषा
लोक साहित्यविद् पंडितजी की भाषा भी लोकभाषा ही है। लेकिन संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में विदेशी शब्द, जैसे-ऑर्डर, स्टेशन इत्यादि का प्रयोग है। साथ ही, साधारण बोलचाल के आंचलिक शब्दों का प्रयोग भाषा को मधुरता देता है। पंडितजी को शब्दों से मोह नहीं है। वह तो यन्त्र के पुजों की तरह फिट बैठने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं। कहीं-कहीं वाक्यों में सूत्रता आ जाती है। अधिकतर वाक्य छोटे व विचारपूर्ण हैं। परन्तु लघु गद्यांश रूप में भी वाक्यों का प्रयोग करने में वे नहीं चूकते। इस प्रकार उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण तथा बोधगम्यतापूर्ण है।
- शैली
पं.रामनारायण उपाध्याय जी की शैली में विविधता है। “मैं क्यों लिखता हूँ?” निबन्ध में उन्होंने आत्मपरक शैली को अपनाया। लोक साहित्य में वर्णनात्मक शैली को निभाया। इस शैली की भाषा सरल व प्रवाहपूर्ण है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने यत्र-तत्र सूत्रात्मक शैली को अपनाया है। व्यंग्यात्मक निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया तो संस्मरणों में भावात्मक शैली को। इस प्रकार लेखक ने समय के अनुसार विविध शैलियों का प्रयोग करके अपने साहित्य का कलेवर सजाया है।
- साहित्य में स्थान
लोक-संस्कृति-पुरुष के रूप में पंडित जी ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की है। हिन्दी साहित्य के भण्डार को विविध साहित्यिक विधाओं से भरने के कारण उनका एक विशिष्ट स्थान है। ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति ने उनके साहित्य को अनुपम बना दिया है। हिन्दी गद्य साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा।
8. डॉ. रघुवीर सिंह [2009, 11, 12, 13]
इतिहास को साहित्य में पिरोने वाले डॉ.रघुवीर सिंह इतिहास एवं संस्कृति के प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं। एक राजघराने में जन्म लेकर भी आप साहित्य-सृजन के कष्टपूर्ण और तपस्या के मार्ग पर बड़ी सफलता से आगे बढ़े। इनके भावात्मक निबन्धों के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं-~-“ये हृदय के मर्मस्थल से निकले हैं और सहृदयों के शिरीष-कोमल अन्तस्तल में सीधे जाकर सुखपूर्वक आसन जमाएँगे।”
- जीवन परिचय
डॉ. रघुवीर सिंह का जन्म सन् 1908 ई. में मन्दसौर जिले के सीतामऊ के राजघराने में हुआ था। इनके पिता मालवा की सीतामऊ रियासत के महाराज थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर तथा उच्च शिक्षा होल्कर कॉलेज, इन्दौर में हुई। आपने आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा एल. एल. बी. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। ‘मालवा में युगान्तर’ नामक शोधग्रन्थ पर आगरा विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट. की उपाधि प्रदान की। सन् 1991 में इनका निधन हो गया।
- साहित्य सेवा
राजघराने से सम्बन्धित होते हुए भी रघुवीर सिंह ने साहित्य-साधना के कठिन मार्ग को अपनाया। ये प्रमुख रूप से निबन्ध लेखक थे। इनके निबन्धों की शैली सजीव एवं ओजपूर्ण है। ‘शेष स्मृतियाँ’ इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक है। ‘ताज’, ‘फतेहपुर सीकरी’ पर आलंकारिक शैली में निबन्ध लिखकर इन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की।
• रचनाएँ
(1) इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ–’पूर्व मध्यकालीन भारत’, ‘मालवा में युगान्तर’, ‘पूर्व आधुनिक राजस्थान’।
(2) साहित्यिक कृतियाँ-‘शेष स्मृतियाँ’, ‘सप्तदीप’,’बिखरे फूल’ तथा ‘जीवन कण’।
• वर्ण्य विषय
रघुवीर सिंह प्रसिद्ध इतिहास लेखक तथा गद्यकाव्य सर्जक हैं। ‘मध्य युग का इतिहास’ उनके साहित्य का विषय था। इतिहास के ज्ञाता होने के साथ-साथ तथा सहृदय सौन्दर्य उपासक होने के कारण वे साहित्य में भी अपनी गहरी पैठ बना सके। आप हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक निबन्धकार के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसी कारण इनके साहित्यिक निबन्धों में भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का आश्रय विद्यमान है, जिसमें तत्कालीन युग-जीवन मुखर है। सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘शेष स्मृतियाँ’ ऐतिहासिक आधार पर लिखे गये भावात्मक निबन्धों का संग्रह है।
- भाषा
डॉ. रघुवीर सिंह की भाषा सरल, स्पष्ट और सुबोध है। यद्यपि भाषा संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से युक्त है तथापि यथावसर उर्दू शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं किया गया है। इसी कारण विषय-प्रतिपादन में प्रवाह और प्रभावोत्पादकता आ गई है। भाषा ललित हो गई है जो सहज ही पाठक को भाव-प्रवण और संवेदनशील बना देती है। तत्सम शब्दों की प्रधानता है, जैसे-द्युति, स्मृति, विरक्त, तृप्त आदि। कहावतों,मुहावरों और अलंकारों के प्रयोग ने भाषा को गति प्रदान की है। ‘प्यार की ठण्डी दुलारी बयार’ जैसे शब्द-समूहों के प्रयोग से भाषा सजीव हो उठी है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए कहावतों,मुहावरों का सटीक चयन किया गया है।
- शैली
डॉ. रघुवीर सिंह की शैली की प्रमुख विशेषता-रोचकता, चित्रात्मकता, भावुकता तथा अलंकार योजना है।
- भावात्मक शैली–अधिकांश निबन्ध भावात्मक शैली में हैं जिनकी भाषा काव्यात्मक एवं सरस हो गई है; जैसे- “दिवस भर के उत्थान के बाद संध्या समय अपने पतन पर क्षुब्ध मरीत्तिमाली जब प्रतीची के पादप पुंज में अपना मुख छिपाने को दौड़ पड़ते हैं और विदा होने से पूर्व अश्रुपूर्ण नेत्रों से जब वे उस अमर करुण कहानी की ओर एक निराशपूर्ण दृष्टिं डालते हैं तब तो वह पुराना किला रो पड़ता है।”
- चित्रात्मक शैली इस शैली का सहारा लेकर एक चित्रकार की भाँति इन्होंने अपने भावों को पाठकों के समक्ष रखा है; जैसे-“सन्दरता में ताज का प्रतियोगी. एत्मादोला का मकबरा, भाग्य की चंचलता का मूर्तिमान रूप है।”
- आलंकारिक शैली-आलंकारिक शैली के प्रयोग से इनके निबन्धों में सजीवता तथा प्रभावोत्पादकता आ गई है। उपमा, रूपक, अतिश्योक्ति इत्यादि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है। विरोधाभास अलंकार का उदाहरण देखिए-यशोधरा कहती है, “हिमालय की छाँह में रहकर भी मेरा यह ताप किसी प्रकार घटता नहीं है।”
- विचारात्मक शैली-गम्भीर विषयों की विवेचना में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का सहारा लिया गया है; जैसे-“मानव जीवन एक पहेली है और उससे भी अधिक अनबूझ वस्तु है विधि का विधान।”
- वर्णनात्मक शैली इतिहासकार होने के कारण आपकी रचनाओं में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग स्वाभाविक ही है।
- साहित्य में स्थान
रघुवीर सिंह मुख्यतः ऐतिहासिक विषयों के निबन्धकार माने जाते हैं। इनके निबन्ध दार्शनिक चिन्तन,शोधपरक अनुसन्धान और सांस्कृतिक आलोचना की छत्र-छाया माने जाते हैं। इनकी इस शोध चिन्तन एवं सांस्कृतिक साहित्यिक अभिरुचि का मूर्तरूप ‘नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ’ है। यहाँ साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति में शोध की अनेक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इनके निबन्धों को वर्णन, चित्र एवं भाव-निरूपण की दृष्टि से अमूल्य समझा जाता है। हिन्दी साहित्य में इनकी उत्कृष्ट कृतियों के कारण इन्हें प्रतिभाशाली साहित्यकार के रूप में माना जाता है।
9. जैनेन्द्र कुमार
आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य में उपन्यास एवं कहानियों के लेखन में जैनेन्द्रजी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये प्रेमचन्दोत्तर युग के श्रेष्ठ कथाकार माने जाते हैं। ये हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषणात्मक लेखन के पुरोधा हैं।
- जीवन परिचय
गहन चिन्तनशील जैनेन्द्र कुमार का जन्म अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक कस्बे में सन् 1905 ई.में हुआ। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामदेवी था। पिता की मृत्यु के समय ये मात्र दो वर्ष के थे। इनका पालन-पोषण माताजी तथा नानाजी ने किया। इनका बचपन का नाम आनन्दीलाल था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल “ऋषि ब्रह्मचर्य आश्रम” में हुई और यहीं इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रखा गया। सन् 1912 में गुरुकुल छोड़कर 1919 में पंजाब से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और काशी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। सन् 1921 में पढ़ाई छोड़कर असहयोग आन्दोलन तथा स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा। इन्होंने माताजी की सहायता से व्यापार भी किया परन्तु असफल होने पर साहित्य क्षेत्र में प्रवेश किया। दिल्ली में रहकर स्वतन्त्र रूप से साहित्य सेवा करते हुए 24 दिसम्बर, सन् 1988 को इनका देहान्त हो गया।
- साहित्य सेवा
इनकी प्रथम कहानी ‘खेल’ सन् 1928 ई.में ‘विशाल भारत’ में छपी थी। सन् 1929 में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ प्रकाशित हुआ जिस पर साहित्य अकादमी ने 500 रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। जीवन-पर्यन्त साहित्य साधना में संलग्न रहकर जैनेन्द्र जी ने हिन्दी साहित्य को उपन्यास,कहानी, निबन्ध,संस्मरण, अनुवाद और विविध विधाओं की रचना से धनी बनाया।
- रचनाएँ
प्रेमचन्द के बाद जैनेन्द्र ही कथा साहित्य के सरताज हैं। परन्तु यश उन्हें निबन्ध के क्षेत्र में ही मिला।
- कहानी-संग्रह–फाँसी’, ‘एक रात’, ‘स्पर्धा’, ‘पाजेब’, ‘वातायण’, ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘ध्रुवयात्रा’, ‘दो चिडिया’ आदि। ‘जैनेन्द्र की कहानियाँ’ नाम से दस भागों में आपकी कहानियाँ संगृहीत हैं।
- उपन्यास-परख’, ‘सुनीता’, ‘त्याग-पत्र’, कल्याणी’, ‘विवर्त’, ‘सुखदा’ ‘व्यतीत’, ‘मुक्तिबोध’।
- निबन्ध-संग्रह–’प्रस्तुत प्रश्न’, पूर्वोदय’, ‘जड़ की बात’,’साहित्य का श्रेय और प्रेम’, ‘मन्थन’,’गाँधी-नीति’,’काम-प्रेम और परिवार’ आदि।
- संस्मरण ‘ये और वे’।
- अनुवाद–’मंदालिनी’ (नाटक), पाप और प्रकाश’ (नाटक), प्रेम और भगवान’ (कहानी)।
- वर्ण्य विषय
बहुमुखी प्रतिभा के धनी जैनेन्द्र जी ने कहानी, उपन्यास, निबन्ध,संस्करण, अनुवाद आदि अनेक गद्य विधाओं को अपना वर्ण्य विषय बनाया। एक ओर उनकी रचनाओं में पात्रों के अन्तर्मन एवं बाह्य रूप की झाँकी में दार्शनिकता मिलती है तो दूसरी ओर मानव जीवन के वर्तमान समय में उपस्थित विविध प्रश्नों के साथ-साथ उसकी शाश्वत समस्याओं का उद्घाटन भी मिलता है। उनके निबन्धों का वर्ण्य विषय साहित्य,समाज,राजनीति, धर्म,संस्कृति आदि है। आपका दृष्टिकोण मानवतावादी है। मनोवैज्ञानिकता आपकी रचनाओं का आधार थी। हाड़-माँस के पात्र जो अच्छाइयों और बुराइयों के समवेत पुंज हैं, इनकी रचनाओं के वर्ण्य विषय हैं। इन पात्रों के चरित्र की आधारशिला बुद्ध की करुणा, महावीर की अहिंसा और महात्मा गाँधी की सहनशीलता है। इसी कारण इनकी कथावस्तु संक्षिप्त और पात्र कम होते हैं। इनकी तुलना प्रेमचन्द से की जाती है। प्रेमचन्द का रचना-क्षेत्र ग्रामीण समाज और उसके शोषण पर केन्द्रित था, परन्तु जैनेन्द्र शहरी समाज की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियों पर कलम चलाते हैं।
- भाषा
उनकी भाषा के कई रूप हैं—पहला, उनके उपन्यासों और कहानियों में है। जो सरल, सुबोध और संस्कृतनिष्ठ है। दूसरा रूप निबन्धों में है जिसमें गम्भीरता व दुरूहता आ गई है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल परिवर्तित हो जाती है। भाषा की गम्भीरता के समय वाक्य बड़े तथा तत्सम शब्दावली से युक्त हैं। वर्णनात्मकता के समय वाक्य छोटे और अन्य भाषाओं के शब्दों से युक्त हैं, जैसे-“वायसरायगिरी करते हैं जो बेहद जिम्मेदारी का काम है।” दूसरी भाषाओं, जैसे-अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत के शब्दों को अपनाने में उदारता है। भाषा में प्रभाव व चमत्कार उत्पन्न करने के लिए मुहावरे और कहावतों का भी प्रयोग है, जैसे-दर-दर भटकना, ठन-ठन गोपाल होना,पूँछ हिलाना आदि।
- शैली
जैनेन्द्रजी की शैली के निम्नलिखित तीन रूप देखने को मिलते हैं
- विचार-प्रधान विवेचनात्मक शैली-इनका रूप निबन्धों में देखने को मिलता है, जिसमें विचारों की गम्भीरता और चिन्तन की दुरूहता है। “पर अहंकार हवा में थोड़े उड़ जाता है। साधना से उसे धीमे-धीमे हल्का और व्यापक बनाना होता है।”
- मनोविश्लेषणात्मक शैली कहानी और उपन्यास के पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व और बहिर्द्वन्द्व की अनुभूतियों को स्पष्ट करने के लिए इस शैली का प्रयोग किया गया है।
- व्यावहारिक शैली कथा में जीवन्तता लाने के लिए इस शैली का प्रयोग किया गया है। वार्तालाप के माधुर्य और सहज व्यंग्यात्मकता के कारण इसमें रोचकता आ गयी है। प्रसादगुण इस शैली की विशेषता है। इसमें वाक्य छोटे व सहज हैं।
- साहित्य में स्थान
गहन चिन्तनशील जैनेन्द्रजी ने मनोवैज्ञानिकता प्रधान उपन्यास और कहानी की एक विशेष धारा प्रारम्भ की थी। आपके चिन्तन तथा नवीन शैली विधान ने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की है। आपका सरल, सुबोध अभिव्यक्ति-कौशल, कथा को मार्मिक और प्रभावपूर्ण बनाता है। अपने इसी विशिष्ट रचना-कौशल और सामाजिक सम्बद्धता के बल पर आपने हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान बनाया है।
10. डॉ. शिवप्रसाद सिंह
[2009]
प्रेमचन्द की परम्परा को पुनः जीवित करके उसे आधुनिक मान देने वाले डॉ. शिवप्रसाद सिंह हिन्दी साहित्य में अपनी बहुमुखी प्रतिभा और लेखन-सामर्थ्य का परिचय देने वाले हैं।
- जीवन परिचय
डॉ.शिवप्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त,सन् 1929 ई.में वाराणसी जनपद के एक कृषक परिवार में हुआ। इनकी शिक्षा वाराणसी के उदय प्रताप विद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई। इन्होंने एम. ए. करने के पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर पद पर अध्यापन कार्य किया तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे और उसी पद से सेवानिवृत्त हुए।
- साहित्य सेवा
डॉ. शिवप्रसाद सिंह का लेखन-क्षेत्र बहुत व्यापक है। इन्होंने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, नाटक,जीवनी, आलोचना एवं सम्पादन इत्यादि सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है। आपको ‘नीला चाँद’ उपन्यास के लिए 1992 में व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया। ‘अलग-अलग वैतरणी’ उपन्यास ने उन्हें साहित्य जगत् में चर्चा का केन्द्र बनाया। उनकी कहानियाँ चरित्र-प्रधान होने के साथ-साथ अतीत से प्रेरणा ग्रहण करती हैं। उनके ललित निबन्धों में उनकी संवेदनशील आध्यात्मिक व्यक्तित्व की छवि है।
- रचनाएँ
डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं
- कहानी-‘आर-पार की माला’, ‘कर्मनाशा की हार’, ‘मुरदा सराय’, इन्हें भी इन्तजार है’, भेड़िया’ तथा ‘अंधेरा हँसता है’ प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
- उपन्यास–अलग-अलग वैतरणी’, ‘गली आगे मुड़ती है’, ‘वैश्वानर’, ‘चाँद फिर उगा’, ‘नीला चाँद’ आदि प्रमुख उपन्यास हैं।
- नाटक-‘घंटिया गूंजती हैं।
- निबन्ध-संग्रह-‘शिखरों के सेतु’,’चतुर्दिक’, कस्तूरी मृग’ इत्यादि निबन्ध-संग्रह हैं।
- समीक्षा-‘कीर्तिलता’, विद्यापति’, लेखन और नवालेखन’ आदि आलोचनाएँ हैं।
- सम्पादन–आपने ‘शिवालिक’ और ‘कल्पना’ का सम्पादन भी किया।
- वर्ण्य विषय
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लेखनी चलाई। कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, समीक्षा, सम्पादन आदि सभी पर लिखा। मनुष्य और मनुष्यता के विविध सन्दर्भ और रूप उनके लेखन को व्यापकता प्रदान करते हैं। मनुष्य और प्रकृति का तादात्म्य उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। यथार्थ के उद्घाटन में व्यंग्य का धरातल है। कहानियों में ग्राम्य कथानक के साथ सामाजिक समस्याओं का भी समाधान है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपने साहित्य-सृजन में बदलते मूल्यों को स्वीकार किया है।
- भाषा
डॉ.शिवप्रसाद सिंह की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है,जिसमें मुहावरों का सटीक प्रयोग विद्यमान है; जैसे-रंग जमता है,रंग उखड़ता है,रंग चढ़ता है,दाल में काला होना,खाक छानना इत्यादि। संस्कृत शब्दावली के प्रयोग से भाव-ग्रहण में कहीं-कहीं क्लिष्टता आ गई है; जैसे-स्निग्धाभिन्नाञ्जनाभा, विद्रुमभंगलोहित, श्वेत-तुषार-मण्डित। उर्दू के भी प्रचलित शब्दों का प्रयोग है; जैसे—मजेदार, चीजें, खूब, सैलाब, हौसला आदि। आंचलिक अथवा ग्रामीण शब्दावली है; जैसे–मानुष,डीह,टेस, बिरबा, चौरा आदि।
इस प्रकार भाषा में विभिन्न शब्दों के प्रयोग से प्रसंगों को जीवन्त और प्रवाहपूर्ण बनाते हुए भाषा को सजीवता प्रदान की गई है।
- शैली
डॉ.शिवप्रसाद सिंह ने शैली के निम्नलिखित कई रूपों को अपनाया है-
- उद्धरण शैली-डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए स्थान-स्थान पर संस्कृत व हिन्दी के लेखकों के अनेकों उदाहरण दिये हैं; जैसे-तुलसी-‘गिरा अनयन नयन बिनु पानी’। इसमें लघु वाक्यों का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
- सामासिक पद शैली-इनकी शैली में सामासिक पद शैली के द्वारा विचारों को स्पष्ट करने का सफल प्रयास परिलक्षित होता है; जैसे—“रंग-भ्रान्ति और रंग-परिवर्तन विर-वर्णनों में स्वभावतः अधिक दिखाई पड़ते हैं।” इस शैली के माध्यम से वाक्य की संक्षिप्तता सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक है।
- भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग कहानियों में किया गया है। इस शैली में भाषा अपेक्षाकृत कठिन हो जाती है। ‘कर्मनाशा की हार’ कहानी में भावात्मक शैली के दर्शन होते हैं।
- साहित्य में स्थान
कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार एवं समीक्षक डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपनी प्रबल लेखनी के जाद से हिन्दी गद्य साहित्य को एक नया रूप प्रदान किया है। आपने अब तक अनछुए विषयों पर लिखकर अपनी लेखन कुशलता का परिचय दिया है। रचनाओं की मौलिकता तथा अभिव्यक्ति के कारण डॉ.शिवप्रसाद सिंह वर्तमान युग के अग्रणी साहित्यकार माने जाते हैं।
11. आचार्य विनोबा भावे
- जीवन परिचय
आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर,1895 को महाराष्ट्र में कोंकण क्षेत्र के एक छोटे से गाँव नागोदा में हुआ था। आपका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। माता का नाम रुक्मिणी था जो एक विदुषी तथा धार्मिक महिला थीं तथा पिता नरहरि भावे को गणित एवं विज्ञान के प्रति गहन अनुराग था। माँ उन्हें प्यार से विन्या पुकारती थीं। आपने सन् 1915 में हाईस्कूल पास किया। बम्बई में इण्टर करने गये परन्तु पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। माँ से भक्ति-आध्यात्म चिन्तन मिला,पिता से वैज्ञानिक सूझ-बूझ तो गुरु रामदास,संत ज्ञानेश्वर तथा शंकराचार्य से ब्रह्मचर्य पालन व संन्यास की प्रेरणा मिली और सन्त विनोबा बने। आपने किसानों के लिए एक स्वप्न देखा कि प्रत्येक किसान के पास एक जमीन का टुकड़ा हो। इसके लिए आपने एक ‘भूदान आन्दोलन’ शुरू किया। आप एक आदर्श नेता एवं संगठनकर्ता भी थे। जीवन का संध्याकाल पुनार (महाराष्ट्र) के आश्रम में गुजारते हुए आप 15 नवम्बर,1982 को अनन्त में विलीन हो गए।
- साहित्य सेवा
विनोबा भावे एक आदर्श छात्र, विचारक, लेखक, दर्शनशास्त्री, प्रवचनकर्ता थे तो एक अनुवादक तथा भाषाविद भी थे। संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद के द्वारा आपने दर्शन को आम आदमी तक पहुँचाया। मराठी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत एवं कन्नड़ पर उनका पूर्ण अधिकार था। कन्नड़ को वह सभी भाषाओं की रानी कहते थे। उन्होंने भगवद्गीता को अपने जीवन की सास मानते हुए उसकी व्याख्या व आलोचना की तथा उसके दर्शन को जनता तक पहुंचाया। आपने आदिगुरु शंकराचार्य, बाईबिल तथा कुरान पर भी कार्य किया। संत ज्ञानेश्वर की कविताओं पर गहन अध्ययन किया। ‘गीता प्रवचन’ तथा ‘संतप्रसाद’ जैसी पुस्तकें उनकी मौलिकता का परिचय देती हैं। सन् 1931 में माँ के कहने पर आपने गीता का मराठी में अनुवाद किया। आपने वर्धा आश्रम में ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन किया। आप देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। इस हेतु आपने ‘नागरी लिपि संगम’ की स्थापना की। इस प्रकार साहित्य जगत में मूल रूप से न रहते हुए भी आपने साहित्य की अनुपम सेवा की।
- रचनाएँ
भगवद्गीता, बाईबिल तथा कुरान जैसे अनेक धार्मिक ग्रन्थों पर कार्य करके उनके दर्शन व रहस्य को बताने वाले विनोबा भावे ने अनेक पुस्तकें लिखीं तथा संस्कृत की अनेक पुस्तकों का मराठी में अनुवाद किया। हिन्दी में निबन्ध लिखे। आपकी रचनाएँ निम्नवत् हैं ‘गीता प्रवचन’, गीता का मराठी में अनुवाद, संतप्रसाद’, ‘गीताई’, ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन, The Essence of Quran (कुरान का सार), The Essence of Christian Teachings (ईसाई शिक्षाओं का सार), Thoughts of Education (शिक्षा पर विचार), ‘स्वराज्य शास्त्र’।
- वर्ण्य विषय
आध्यात्म चेतना के साधक विनोबा भावे का प्रिय विषय दर्शनशास्त्र था। कशाग्र बद्धि विनोबा भावे ने गणित, कविता तथा आध्यात्म को अपना वर्ण्य विषय बनाया। संन्यासी जीवन व्यतीत करते हुए अपरिग्रह, अस्तेय,निस्पृह, निर्लिप्त जीवन की व्याख्या उनके निबन्धों में मिलती है। गीता उन्हें बचपन से कण्ठस्थ थी, अत : गीता का मराठी में अनुवाद, हिन्दी में निबन्ध तथा प्रवचन साधारण मनुष्य को जीवन का संदेश देते हैं। उन्होंने ब्रह्म-जगत-सत्य-संन्यास पर चर्चा की। मात्र 21 वर्ष की अल्पायु में अद्वैतवाद पर बहस की। आदर्श समाज सुधारक के रूप में ‘भूदान आन्दोलन’ चलाया। भारतीय दर्शन की सरल भाषा में व्याख्या करके आपने उसे सामान्य जनता तक पहुँचाया। इसी कारण से आपके निबन्ध, व्याख्या, आलोचना, कविता, अनुवाद, प्रवचन, सम्पादन आदि भारतीय जन को प्रभावित करते हैं।
- भाषा
एक सरल हृदय विचारक की भाषा भी सरल ही होती है। मराठी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत तथा कन्नड़ भाषाओं पर आपको अद्भुत अधिकार प्राप्त था। इसी कारण आपको भाषाविद् भी कहा जाता है। आपकी भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। इसकी वजह से भाषा क्लिष्ट तथा गंभीर हो गई है। अनेक स्थानों पर आपकी भाषा काव्यमयी हो गई है। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए आपने मुहावरों का प्रयोग कर भाषा को सजीव व चुटीला बनाया है। स्वजनासक्ति जैसे संस्कृत के सामासिक शब्दों के प्रयोग के साथ रूपक व उपमा अलंकार के प्रयोग ने आपके गद्य को भी काव्यमय बना दिया है। लघु वाक्य सूत्र का सा आभास देते हैं। इस प्रकार आपकी भाषा में अपार प्रवाह युक्त आकर्षण है।
- शैली
कलम के धनी विनोबा जी की शैली व्याख्यात्मक तथा उदाहरण शैली का नमूना है। आपने निबन्धों में विवरणात्मक शैली को अपनाया है। उर्दू आदि के शब्द प्रयोग से शैली में सरलता आ गई है। अति सूक्ष्म रूप में उपदेशात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य भावों के अनुरूप अति लघु व विस्तृत हो गए हैं। दर्शन और आलोचनात्मक निबन्धों में गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं। विनोबा भावे चिन्तनशील निबन्धकार हैं। आपकी रचनाओं में विचार प्रधान, पांडित्यपूर्ण, प्रौढ़ एवं परिमार्जित शैली विद्यमान है। चिन्तन की उदात्तता पाठक को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।
- साहित्य में स्थान
आचार्य विनोबा भावे अनेक भाषाओं के विद्वान, कुशल राजनीतिज्ञ, मर्मज्ञ साहित्यकार, भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के ज्ञाता, गम्भीर विचारक तथा जागरूक समाज सुधारक के रूप में सामने आते हैं। उनके नाम पर हजारी बाग (झारखण्ड) में विनोबा भावे विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है। केरल राज्य में उन्होंने स्वयं 7 ‘विनोबा भावे आश्रम’ तथा 7 ‘विनोबा निकेतन’ स्थापित किए। सम्पादन के क्षेत्र में आपका अद्वितीय स्थान है। आपकी कृतियों में चिन्तन,मनन और अनुशीलता के बिम्ब दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मूलतः साहित्यकार न होते हुए भी विनोबा भावे का साहित्य में उच्च स्थान है
महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न
- बहु-विकल्पीय प्रश्न
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म हुआ था
(अ) आगरा में, (ब) अगोना में, (स) अजमेर में, (द) अलीगढ़ में।
2. ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ सर्वप्रथम लिखा
(अ) मोहन राकेश ने, (ब) श्यामसुन्दर दास ने, (स) रामचन्द्र शुक्ल ने. (द) डॉ. रघुवीर सिंह ने।
3. उषा प्रियंवदा ने इस विद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की है
(अ) सागर विश्वविद्यालय, (ब) अम्बेडकर विश्वविद्यालय, (स) इलाहाबाद विश्वविद्यालय, (द) दिल्ली विश्वविद्यालय।
4. ‘पचपन खम्भे लाल दीवार’ किसकी रचना है [2012]
(अ) महादेवी वर्मा की,
(ब) मृणाल पाण्डे की, (स) शिवानी की, (द) उषा प्रियंवदा की।
5. सन् 1923 में जीविका की तलाश में उदयशंकर भट्ट गये
(अ) लाहौर, (ब) चटगाँव, (स) इस्लामाबाद, (द) शक्करपुर।
6. उदयशंकर भट्ट ने नागपुर और जयपुर रेडियो केन्द्रों पर इस रूप में कार्य किया
(अ) न्यूज रीडर, (ब) प्रोड्यूसर, (स) स्क्रिप्ट राइटर, (द) संवाददाता।
7. शरद जोशी प्रसिद्ध हैं [2011]
(अ) कवि के रूप में, (ब) गजलकार के रूप में, (स) व्यंग्यन लेखक के रूप में, (द) इतिहासकार के रूप में।
8. प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ किस लेखक की रचना है?
(अ) हरिशंकर परसाई, (ब) शरद जोशी, (स) धर्मवीर भारती, (द) निर्मल वर्मा।
9. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे की लगभग कितनी पुस्तकें प्रकाशित हैं?
(अ) पाँच, (ब) पच्चीस, (स) पाँच सौ, (द) सौ।
10. डॉ. श्यामसुन्दर दुबे के लेखन का इस संस्कृति से गहरा तादात्म्य था
(अ) नागरीय संस्कृति, (ब)लोकसंस्कृति, (स) पाश्चात्य संस्कृति, (द) पूर्वी संस्कृति।
11. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ ने मूलत: हिन्दी साहित्य की इस विधा को अपनी लेखनी का
विषय बनाया (अ) उपन्यास, (ब) संस्मरण, (स) नाटक, (द) रिपोर्ताज।
12. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘तात्या टोपे’ किस प्रकार का एकांकी है?
(अ) सामाजिक, (ब) ऐतिहासिक, (स) राजनैतिक, (द) आर्थिक।
13. ‘निमाड़ी लोक साहित्य’ के मर्मज्ञ गद्य-लेखक कौन थे?
(अ) प्रेमचन्द, (ब) शिवप्रसाद सिंह, (स) जैनेन्द्र, (द) रामनारायण उपाध्याय।
14. रामनारायण उपाध्याय इस महापुरुष के जीवन व विचारधारा से प्रभावित थे
(अ) गाँधीजी, (ब) कार्ल मार्क्स, (स) हिटलर, (द) विनोबा भावे।
15. प्रसिद्ध गद्यकाव्य लेखक हैं
(अ) जैनेन्द्र, (ब) रामचन्द्र शुक्ल, (स) शरद जोशी, (द)डॉ.रघुवीर सिंह।
16. डॉ. रघुवीर सिंह इस विषय के प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं
(अ) हिन्दी, (ब) इतिहास, (स) गणित, (द) संस्कृत।
17. जैनेन्द्र कुमार की तुलना किस महान् गद्य लेखक से की जाती है?
(अ) प्रेमचन्द, (ब) बाबू गुलाबराय, (स) हजारी प्रसाद द्विवेदी, (द) वियोगी हरि।
18. प्रसिद्ध उपन्यास ‘परख’ के लेखक हैं
(अ) जैनेन्द्र कुमार, (ब) यशपाल, (स) भीष्म साहनी, (द) अमरकान्त।
19. डॉ. शिवप्रसाद सिंह किस विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे?
(अ) अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, (ब) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (स) अम्बेडकर विश्वविद्यालय, (द) दिल्ली विश्वविद्यालय।
20. ललित निबन्ध ‘रंगोली’ के लेखक हैं
(अ) डॉ.शिवप्रसाद सिंह, (ब) हजारी प्रसाद द्विवेदी, (स) महादेवी वर्मा, (द) वासुदेवशरण अग्रवाल।
21. ‘महाराष्ट्र धर्म’ पत्रिका का सम्पादन किया
(अ) विनोबा भावे, (ब)रामचन्द्र शुक्ल, (स) धर्मवीर भारती, (द) डॉ.रघुवीर सिंह।
22. ‘गीता प्रवचन’ के लेखक हैं
(अ) वाल्मीकि, (ब) तुलसीदास, (स) आचार्य विनोबा भावे, (द) महर्षि रमण।
उत्तर-
1.(ब), 2. (ब), 3. (स), 4. (द), 5. (अ), 6. (ब), 7. (स), 8. (ब), 9.(ब), 10. (ब), 11. (स), 12. (ब), 13. (द), 14. (अ), 15. (द), 16. (ब), 17. (अ), 18. (अ), 19. (ब), 20. (अ), 21. (अ), 22. (स)।
- रिक्त स्थानों की पूर्ति
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रारम्भिक शिक्षा …….. में हुई।
2. सूत्रात्मक शैली के प्रणेता ……. हैं। [2013]
3. ‘रुकोगी नहीं राधिका’ उपन्यास की लेखिका ……… हैं।
4. ‘फिर बसन्त आया’ ……. का कहानी संग्रह है। [2009]
5. रेडियो प्रसारण की दृष्टि से उदयशंकर भट्ट के ……. अत्यधिक सफल हुए हैं।
6. उदयशंकर भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के ……..” नगर में हुआ।
7. व्यंग्य नाटक ‘एक था गधा’ के लेखक ……. हैं।
8. शरद जोशी हिन्दी के सुप्रसिद्ध ……… लेखक हैं।
9. डॉ.श्यामसुन्दर दुबे शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पद से सेवानिवृत्त हुए।
10. ‘कालमृगया’ डॉ.श्यामसुन्दर दुबे का …… संकलन है।
11. डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ का जन्म ……… के राजापुर गढ़ेवा गाँव में हुआ था।
12. ‘मुखौटे बोलते हैं’,एकांकी के लेखक …….. हैं।
13. ……… रामनारायण उपाध्याय की पुरस्कृत कृति है।
14. ……… में एक सच्चे किसान की सी भावुकता एवं कर्मठता थी।
15. डॉ.रघुवीर सिंह ……. एवं संस्कृति के प्रवक्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं।
16. …… “डॉ. रघुवीर सिंह का उच्चकोटि का गद्यकाव्य है।
17. जैनेन्द्र कुमार की प्रथम कहानी ….. है।
18. जैनेन्द्र कुमार ने अपनी रचनाएँ …. आधार पर लिखी हैं।
19. आधुनिक प्रेमचंद ………. को कहते हैं। [2014]
20. ‘कस्तूरी मृग’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह का प्रसिद्ध ……… है।
21. साहित्य में चर्चा का केन्द्र ……… उपन्यास है।
22. विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर ……. को हुआ था।
23. गीता का मराठी भाषा में अनुवाद ………….” ने किया।
उत्तर-
1. हमीरपुर, 2. रामचन्द्र शुक्ल, 3. उषा प्रियंवदा, 4. उषा प्रियंवदा, 5. गीतिनाट्य, 6. इटावा, 7. शरद जोशी,
8. हास्य-व्यंग्य, 9. प्राचार्य, 10. ललित निबन्ध, 11. उन्नाव जिले, 12. डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’, 13. चतुर चिड़िया,
14. रामनारायण उपाध्याय, 15. इतिहास, 16. यशोधरा, 17. खेल, 18. मनोवैज्ञानिक, 19. जैनेन्द्र कुमार,
20. निबन्ध संग्रह, 21. अलग-अलग वैतरणी, 22. 1895, 23. आचार्य विनोबा भावे।
- सत्य/असत्य
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी शब्द सागर का सम्पादन कार्य किया।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1940 में हुआ।
3. उषा प्रियंवदा का स्वदेश की संस्कृति से तनिक भी लगाव न था।
4. उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में निम्न-मध्यवर्गीय समाज की विसंगतियाँ देखने को मिलती
5. उदयशंकर भट्ट आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।
6. 14 वर्ष की अल्पायु में ही उदयशंकर भट्ट अनाथ हो गये।
7. शरद जोशी प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं। [2009]
8. 1990 में शरद जोशी को पदमश्री से विभूषित किया गया।
9. ललित निबन्ध ‘तिमिर गेह में किरण-आचरण’ में बताया गया है कि आदमी का सदआचरण और श्रम उसे पतन की ओर ले जाता है।
10. मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘वागीश्वरी’ पुरस्कार डॉ. श्यामसुन्दर दुबे को मिला।
11. साठोत्तरी हिन्दी नाटककारों में डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ का अपना विशिष्ट स्थान है।
12. डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ के एकांकी कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से नीरस हैं।
13. रामनारायण उपाध्याय ने ‘लोक संस्कृति’ न्यास की स्थापना अपने माता-पिता की मधुर स्मृति में की।
14. उपाध्यायजी की रचनाएँ ग्राम और ग्राम संस्कृति से पूर्ण नहीं थीं।
15. डॉ.रघुवीर सिंह ने इतिहासपरक रचनाएँ लिखीं।
16. ‘मालवा में युगान्तर’ डॉ. रघुवीर सिंह की एक व्यंग्य रचना है।
17. जैनेन्द्र कुमार की शिक्षा-दीक्षा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई।
18. ‘फाँसी’ जैनेन्द्र का प्रसिद्ध सामाजिक उपन्यास है।
19. ‘रंगोली’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह का प्रसिद्ध ललित निबन्ध है।
20. ‘कीर्तिलता’ तथा ‘विद्यापति’ डॉ.शिवप्रसाद सिंह की समीक्षात्मक कृतियाँ हैं।
21. आचार्य विनोबा भाबे की शैली व्यंग्यात्मक थी।
22. कुरान का सार (The Essence of Quran) आचार्य विनोबा भावे कृत रचना है।
उत्तर-
1. सत्य, 2. असत्य, 3. असत्य, 4. सत्य, 5. असत्य, 6. सत्य, 7. सत्य, 8. असत्य, 9. असत्य,10. सत्य,11. सत्य,12. असत्य,13. असत्य,14. असत्य,15. सत्य, 16. असत्य, 17. असत्य, 18. असत्य, 19. सत्य, 20. सत्य, 21. असत्य, 22. सत्य।
- सही जोड़ी मिलाइए
I. ‘क’
(1) रुकोगी नहीं राधिका – (अ) एकांकी
(2) रामचन्द्र शुक्ल [2011] – (ब) विक्रम और बेताल
(3) समस्या का अन्त – (स) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पुरस्कार
(4) शरद जोशी – (द) उपन्यास
(5) डॉ.श्यामसुन्दर दुबे – (इ) चिन्तामणि
उत्तर-
(1) → (द),
(2) → (इ),
(3) → (अ),
(4) → (ब),
(5) → (स)।
(1) डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ – (अ) लोक-संस्कृति पुरुष
(2) आधुनिक युग का प्रेमचन्द (2012, 15) – (ब) ऐतिहासिक निबन्धकार
(3) रामनारायण उपाध्याय – (स) गृह कलह
(4) डॉ.शिवप्रसाद सिंह – (द) जैनेन्द्र कुमार
(5) डॉ.रघुवीर सिंह – (इ) आदर्श अध्यापक
(6) आचार्य विनोबा भावे – (ई) समाज सुधारक एवं दर्शनशास्त्री
उत्तर-
(1) → (स),
(2) → (द),
(3) → (अ),
(4) → (इ),
(5) → (ब),
(6) → (ई)।
- एक शब्द/वाक्य में उत्तर
प्रश्न 1.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल किस विश्वविद्यालय में कार्यरत थे?
उत्तर-
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय।।
प्रश्न 2.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्धों में किन दो निबन्ध शैलियों का समन्वय है?
उत्तर-
भारतीय एवं पाश्चात्य।
प्रश्न 3.
उषा प्रियंवदा लिखित किसी एक कहानी का नाम क्या है?
उत्तर-
वापसी।
प्रश्न 4.
उषा प्रियंवदा के शोध ग्रन्थ का क्या नाम है?
उत्तर-
आधुनिक अमरीकी साहित्य।।
प्रश्न 5.
उदयशंकर भट्ट लाहौर के एक विश्वविद्यालय में कौन-से विषय पढ़ाते थे?
उत्तर-
हिन्दी और संस्कृत।
प्रश्न 6.
उदयशंकर भट्ट ने अपने नाटकों के लिए किस प्रकार के परिवारों की समस्याओं को चुना है?
उत्तर-
निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार।
प्रश्न 7.
शरद जोशी ने मध्य प्रदेश सूचना विभाग में कितने वर्षों तक सेवा की?
उत्तर-
10 वर्षों तक।
प्रश्न 8.
शरद जोशी लिखित नाटक ‘अन्धों का हाथी’ साहित्य की किस विधा के अन्तर्गत आता है?
उत्तर-
व्यंग्य नाटक।
प्रश्न 9.
डॉ. श्यामसुन्दर दुबे की रचना ‘दाखिल खारिज’ साहित्य की किस विधा को दर्शाती है?
उत्तर-
उपन्यास।
प्रश्न 10.
‘तिमिर गेह में किरण आचरण’ ललित निबन्ध के लेखक कौन हैं? [2009]
उत्तर-
डॉ.श्यामसुन्दर दुबे।।
प्रश्न 11.
‘तात्या टोपे’ रचना लेखन की कौन-सी विधा है?
उत्तर-
एकांकी।
प्रश्न 12.
‘स्वप्न का सत्य’ के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
डॉ.सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’।
प्रश्न 13.
‘निमाड़ी लोक-साहित्य’ रचना के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
रामनारायण उपाध्याय।
प्रश्न 14.
रामनारायण उपाध्याय की माताजी का नाम क्या था?
उत्तर-
दुर्गावती।
प्रश्न 15.
डॉ. रघुवीर सिंह का जन्म कहाँ हुआ? \
उत्तर-
सीतामऊ।
प्रश्न 16.
डॉ. रघुवीर सिंह की शोध, चिन्तन एवं साहित्यिक अभिरुचि का मूर्त रूप क्या है?
उत्तर-
नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ।
प्रश्न 17.
आधुनिक युग का प्रेमचन्द किसे कहा जाता है? [2011]
उत्तर-
जैनेन्द्र कुमार को।
प्रश्न 18.
जैनेन्द्र कुमार ने किस समाज की ग्रन्थियों को खोला है?
उत्तर-
शहरी समाज।
प्रश्न 19.
‘कर्मनाशा की हार’ कहानी के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
डॉ.शिवप्रसाद सिंह।
प्रश्न 20.
डॉ. शिवप्रसाद सिंह किस विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे?
उत्तर-
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
प्रश्न 21.
आचार्य विनोबा भावे के नाम पर स्थापित ‘विनोबा भावे विश्वविद्यालय’ कहाँ स्थित है?
उत्तर-
हज़ारी बाग (झारखण्ड)।
प्रश्न 22.
‘गीता प्रवचन’ तथा ‘संतप्रसाद’ पुस्तकों के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
आचार्य विनोबा भावे।