MP Board Class 10th General Hindi निबंध लेखन
1. दशहरा (विजयादशमी) अथवा एक भारतीय त्योहार
हमारे देश में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं। उनके विविध कर्म-संस्कार होते हैं। वे अपने कर्मों और संस्कारों को समय-समय पर विशेष रूप से प्रकट करते रहते हैं। इन रूपों को हम आए दिन, त्योहारों, पर्यों, आयोजनों में देखा करते हैं। इस प्रकार के अधिकांश तिथि, पर्व, त्योहार, आयोजन, उत्सव आदि सर्वाधिक हिंदुओं में होते हैं। हिंदुओं के जितने तिथि, त्योहार, पर्व, उत्सव आदि हैं उनमें दशहरा (विजयादशमी) का महत्त्व अधिक बढ़कर है। यह भी कहा जाना कोई अनुचित या अतिशयोक्ति नहीं है कि दशहरा (विजयादशमी) हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ पर्व, त्योहार या उत्सव है।
दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हिंदू धर्म-मत के अनुयायी बड़े ही उल्लास और प्रयत्न के साथ मनाते हैं। यह आश्विन (क्वार) मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (एकम्) से पूर्णिमा (पूर्णमासी) तक बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी तिथि-गणना के अनुसार यह त्योहार अक्टूबर माह . में पड़ता है।
दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार-उत्सव मनाने के कई कारण और मत हैं। प्रायः सभी हिंदू धर्मावलंबी इस धारण से इसे मनाते हैं कि इसी समय भगवान् श्रीराम ने युग-युग सर्वाधिक अत्याचारी लंका नरेश रावण का अंत करके उसकी स्वर्णमयी नगरी लंका पर विजय प्राप्त की थी। चूँकि प्रतिपदा (एकम्) से लेकर दशमी तक (दस दिनों तक) लगातार भयंकर युद्ध करने के उपरांत ही श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इसे विजयादशमी भी कहा जाता है। ‘दशहरा’ शब्द भी ‘विजयादशमी’ शब्द का पर्याय और प्रतीक है।
दशहरा (विजयादशमी) त्योहार, पर्व और पुण्य-तिथि के भी रूप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से बंगाल-निवासी इसे महाशक्ति की उपासना-आराधना के रूप में मनाते हैं। उनका यह घोर विश्वास होता है कि इसी समय महाशक्ति दुर्गा ने असुरों का विध्वंस करके कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। महाशक्ति की पूजा-उपासना, ध्यान-भक्ति आदि के द्वारा वे लगातार नौ दिनों तक अखंड पाठ और नवरातों तक पूजा के दीप जलाया करते हैं। इसलिए इसे लोग ‘नवरात’ भी कहते हैं। दुर्गा के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के भी व्रत, उपासना, पाठ, संकीर्तन आदि पुण्य कार्य-विधान इसी समय सभी श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए निष्ठा से करते हैं।
इस त्योहार के समय सबमें अद्भुत खुशी और उमंग की झलक होती है। प्रकृति देवी अपनी सुंदरता को सुखद हवा, वनस्पतियों के रंग-बिरंगे फूलों फसलों, फलों, और सभी जीवधारियों विशेष रूप से मनुष्यों के रौनकता और चंचलता के रूप में प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। उधर मनुष्य भी अपनी विविध सौंदर्य-सज्जा से पीछे नहीं रहता है। दशहरा (विजयादशमी) के समय जगह-जगह मेलों, दंगलों, सभाओं, उद्घाटनों, प्रीतिभोजों, समारोहों आदि के कारण सारा वातावरण अपने आप में बन-ठनकर अधिक रोचक दिखाई देने लगता है।
दशहरा (विजयादशमी) के त्योहार का बहुत बड़ा संदेश है। वह यह कि सत्य और सदाचार की असत्य और दुराचार पर निश्चय ही विजय होती है। यह त्योहार हमें यह सिखलाता है कि हमें पूरी निष्ठा और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक चेतना का अगर कोई वास्तविक त्योहार है तो सबसे पहले दशहरा (विजयादशमी) ही है।
2. समय का सदुपयोग (समय बहुमूल्य है)
महाकवि तुलसी ने समय का महत्त्वांकन करते हुए लिखा है”का वर्षा जब कृषि सुखानी। समय चूकि पुनि का पछतानी।।”
अर्थात् समय के बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं। दूसरे शब्दों में समय के रहते ही कुछ कर लेने का लाभ होता है। अन्यथा समय बार-बार नहीं मिलता है।
गोस्वामी तुलसीदास के उपर्युक्त उपदेश पर विचारने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समय का महत्त्व समय के सदुपयोग करने से ही होता है। केवल कथा-वार्ता, चर्चा, घटना-व्यापार आदि के अनुभवों के द्वारा हम अच्छी तरह से समझ जाते हैं कि समय का प्रभाव सबसे बड़ा होता है। दूसरे शब्दों में यह कि समय सबको प्रभावित करता है। समय के उपयोग से गरीबी अमीरी में बदल जाती है। असत्य सत्य सिद्ध हो जाता है। लघुता प्रभुता में बदल जाती है। इसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि असंभव संभव में बदल जाता है। इसीलिए कोई भी प्रयत्नशील व्यक्ति-प्राणी समय का सदुपयोग करके मनोनुकूल दशा को प्राप्त करके चमत्कार उत्पन्न कर सकता है।
समय का प्रवाह बहते हुए जल-प्रवाह के समान होता है जिसे रोक पाना सर्वथा कठिन और असंभव होता है। इस तथ्य को बड़े ही सुस्पष्ट रूप से एक अंग्रेज विचारक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है-
“Time and Tide wait for none.”
इसी प्रकार से समय के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए किसी अन्य अंग्रेज चिंतक ने ठीक ही सुझाव किया है कि समय सबसे बड़ा धर्म है। यही सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए सब प्रकार से महान् और सफल जीवन बिताने के लिए समय की पूजा-आराधना करने के सिवा और कोई चारा नहीं है-
“No religion is greater than time, time is the greatest dharma. So believe the time, worship the time if you want to live and if you want to survive.”
समय के महत्त्व को सभी महापुरुषों ने सिद्ध किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सदुपदेश देते हुए स्वयं को समय (काल) की संज्ञा दी है। काल ही विश्व का कारण है। वही विश्व की रचना करता है, विकास करता है और वही इसका विनाश भी करता है। अतः काल ही काल का कारण है। काल ही महाकाल है। महाकाल ही अतिकाल है और अतिकाल ही विनाश, सर्वनाश, विध्वंस और नाश-विनाश को भी सदैव के लिए स्वाहा करने वाला है। इसलिए यह किसी प्रकार से आश्चर्य नहीं कि काल का अभिन्न स्वरूप सभी देव-शक्तियाँ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश काल भी काल के प्रभाव से कभी दूषित, खोटे और निंदनीय कर्म में लिप्त होने से बच नहीं पाते हैं। फिर सामान्य प्राणी जनों की काल के सामने क्या बिसात है।
हम यह देखते हैं और अनुभव करते हैं कि काल अर्थात् समय का सदुपयोग करने वाले विश्व के एक से एक महापुरुषों ने समय के सदुपयोग को आदर्श रूप में व्यक्त किया है। समय का सदुपयोग ही अनंत संभावनाओं के द्वार को खोलता है और अनंत समस्याओं के समाधान को भी प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि आज के वैज्ञानिकों ने अनंत असंभावनाओं को संभावनाओं में बदलते हुए सबके कान खड़े कर दिए हैं। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि संभावनाओं की ओर आकर्षित होकर समय का सदुपयोग करने वाले निरंतर ही समय के एक-एक अल्पांश को किसी प्रकार से हाथ से निकलने नहीं देते हैं। ऐसा इसलिए कि वे भली-भाँति इस तथ्य के अनुभवी होते हैं-
“मुख से निकली बात और धनुष से निकला तीर कभी वापस नहीं आते।”
इसलिए समय का सदुपयोग करने से हमें कभी भी कोई चूक नहीं करनी चाहिए अन्यथा हाथ मल-मल कर पश्चाताप करने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता-
“अब पछताए क्या होत है, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।”
3. सिनेमा या चलचित्र
प्राचीन काल से लेकर अब तक मनुष्य ने अपने शारीरिक और मानसिक थकान और ऊब को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों को तैयार किया है। प्राचीन काल में मनुष्य कथा, वार्ता, खेल-कूद और नाच-गाने आदि के द्वारा अपने . तन और मन की थकान और ऊब को शांत किया करता था। धीरे-धीरे युग का परिवर्तन हुआ और मनुष्य के प्राचीन मनोरंजन और विनोद के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई। आज विज्ञान के बढ़ते-चढ़ते प्रभाव के फलस्वरूप मनोरंजन के क्षेत्र में प्राचीन काल की अपेक्षा कई गुना वृद्धि हुई। पत्र, पत्रिकाएँ, नाटक, ग्रामोफोन, रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर, वी.सी.आर., वी.डी.ओ., फोटो कैमरा, वायरलेस, टेलीफोन सहित ताश, शतरंज, नौकायन, पिकनिक, टेबिल टेनिस, फुटबाल, वालीवाल, हॉकी, क्रिकेट सहित अनेक प्रकार की कलाएँ और प्रदर्शनों ने मानव द्वारा मनोरंजन हेतु आविष्कृत चौंसठ कलाओं में संवृद्धि की है। दूसरे शब्दों में कहना कि पूर्वकालीन मनोरंजन के साधन यथा-कथा, वार्ता, वाद-विवाद, कविता, संगीत, वादन, गोष्ठी, सभा या प्रदर्शन तो अब भी मनोरंजनार्थ हैं ही, इनके साथ ही कुछ अत्याधुनिक और नयी तकनीक से बने हुए मनोरंजन भी हमारे लिए अधिक उपयोगी हो रहे हैं। इन्हीं में से सिनेमा या चलचित्र भी हमारे मनोरंजन का बहुत बड़ा आधार है।
‘सिनेमा’ अंग्रेजी का मूल शब्द है जिसका हिंदी अनुवाद चलचित्र है अर्थात् चलते हुए चित्र। आज विज्ञान ने जितने भी हमें मनोरंजन के विभिन्न स्वरूप प्रदान किए हैं उनमें सिनेमा की लोकप्रियता बहुत अधिक है। इससे हम अब तक संतुष्ट नहीं हुए हैं और शायद अभी और कुछ युगों तक हम इसी तरह से संतुष्ट नहीं हो पाएँगे तो कोई आश्चर्य नहीं। कहने का भाव यह कि सिनेमा से हमारी रुचि बढ़ती ही जा रही है। इससे हमारा मन शायद ही कभी ऊब सके।
चलचित्र या सिनेमा का आविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ। इसके आविष्कारक टामस एल्बा एडिसन अमेरिका निवासी थे जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले-पहल सिनेमा लंदन में ‘कुमैर’ नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया। उसकी काफी प्रशंसा की गई। फिर इसके बाद न जाने आज तक कितने चलचित्र बने और कितनी धनराशि खर्च हुई; यह कहना कठिन है। लेकिन यह तो ध्यान देने का विषय है कि भारत का स्थान चलचित्र की दिशा में अमेरिका के बाद दूसरा अवश्य है। कुछ समय बाद यह सर्वप्रथम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
अब सिनेमा पूर्वापेक्षा रंगीन और आकर्षक हो गया है। इसका स्वरूप अब न केवल नैतिक ही रह गया है अपितु विविध भद्र और अभद्र सभी अंगों को स्पर्श कर गया है। अतः सिनेमा स्वयं में बहुविविधता भरा एक अत्यंत संतोषजनक मनोरंजन का साधन सिद्ध होकर हमारे जीवन और दिलो-दिमाग में भली भाँति छा गया है, सिनेमा से हम इतने बंध गए हैं कि इससे हम किसी प्रकार मुक्त नहीं हो पाते हैं। हम भरपेट भोजन की चिंता न करके सिनेमा की चिंता करते हैं। तन की एक-एक आवश्यकता को भूलकर या तिलांजलि देकर हम सिनेमा देखने से बाज नहीं आते हैं। इस प्रकार सिनेमा आज हमारे जीवन को दुष्प्रभावित कर रहा है। इसके भद्दे, अश्लील और दुरुपयोगी चित्र समाज के सभी वर्गों को विनाश की ओर लिये जा रहे हैं। अतः समाज के सभी वर्ग बच्चा, युवा और वृद्ध, शिक्षित और अशिक्षित सभी भ्रष्टता के शिकार होने से किसी प्रकार बच नहीं पा रहे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हमें अच्छे चलचित्र को ही देखना चाहिए। बरे चलचित्रों से दूर रहने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यही नहीं चरित्र को बर्बाद करने वाले चलचित्रों को विरोध करने में किसी प्रकार से संकोच नहीं करना चाहिए। यह भाव सबमें पैदा करना चाहिए कि चलचित्र हमारे सुख के लिए ही है।
4. किसी यात्रा का रोचक वर्णन या किसी पर्वतीय स्थान का वर्णन
जीवन में कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जिन्हें भूल पाना बड़ा कठिन हो जाता है। दूसरी बात यह कि जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर मिलते हैं। जो अत्यधिक रोचक और आनंददायक बन जाते हैं। सभी की तरह मेरे भी जीवन में कुछ ऐसे अवसर अवश्य आए हैं जिनकी स्मृति कर आज भी मेरा मन बाग-बाग हो उठता है। उन रोचक और सरस क्षणों में एक क्षण मुझे ऐसा मिला जब मैंने जीवन में पहली बार एक पर्वतीय स्थान की सैर की।
छात्रावस्था से ही मुझे प्रकृति के प्रति प्रेमाकर्षण, प्रकृति के कवियों की रचनाओं को पढ़ने से पूर्वापेक्षा अधिक बढ़ता गया। प्रसाद, महादेवी, मुकुटधर पांडेय आदि की तरह कविवर सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं ने हमारे बचपन में अंकुरित प्रकृति के प्रति प्रेम-मोह के जाल को और अधिक फैला दिया। इसमें मैं इतना फँसता गया कि मैंने यह निश्चय कर लिया कि कविवर सुमित्रानंदन पंत का पहाड़ी गाँव कौसानी एक बार अवश्य देखने जाऊँगा। ‘अगर मंसूबे मजबूत हों तो उनके पूरे होने में कोई कसर नहीं रहती है। यह बात मुझे तब समझ में आ गई जब मैंने एक दिन कौसानी के लिए यात्रा करने का निश्चय कर ही लिया।
गर्मी की छुट्टियाँ आ गई थीं। स्कूल दो माह के लिए बंद हो गया था। एक दिन मैंने अपने इष्ट मित्रों से कोई रोचक यात्रा करने की बात शुरू कर दी। किसी ने कुछ और किसी ने कुछ सुझाव दिया। मैंने सबको कौसानी नामक पहाड़ी गाँव की सैर करने की बात इस तरह से समझा दी कि इसके लिए सभी राजी हो गए। एक सुनिश्चित दिन में हम चार मित्र कविवर पंत की जन्मस्थली ‘कौसानी’ को देखने के लिए चल दिए। रेल और पैदल सफर करके हम लोग दिल्ली से सुबह चलकर ‘कौसानी’ को पहुँच गए।
हम लोगों ने देखा कि ‘कौसानी गाँव एक मैदानी गाँव की तरह न होकर बहुत टेढ़ा-मेढ़ा, ऊपर-नीचे बसा हुआ तंग गाँव है। तंग इस अर्थ में कि स्थान की कमी मैदानी गाँव की तुलना में बहुत कम है। यह बड़ी अच्छी बात रही कि हम लोगों का एक सुपरिचित और कुछ समय का सहपाठी कौसानी में ही मिल गया। अतएव उसने हम लोगों को इस पहाड़ी क्षेत्र की रोचक सैर करने में अच्छा दिशा-निर्देश दिया।
हम लोगों ने देखा इस पर्वतीय क्षेत्र पर केवल पत्थरों का ही साम्राज्य है। लंबे-लंबे पेड़ों के सिर आसमान के करीब पहुँचते हुए दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं लघु आकार में खेतों में कुछ फसलें थोड़ी-बहुत हरीतिमा लिये हुए थी; बिना मेहनत और संरक्षण के पौधों से फूलों के रंग-बिरंगे रूप मन को अधिक लुभा रहे थे। झाड़ियों के नामों-निशान कम थे फिर भी पत्थरों की गोद में कहीं-न-कहीं कोई झाड़ी अवश्य दीख जाती थी जिसमें पहाड़ी जीव-जंतुओं के होने का पता चलता था। उस पहाड़ी क्षेत्र में सैर के लिए बढ़ते हुए हम बहुत पतले और घुमावदार रास्ते पर ही जा रहे थे। ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिसमें कोई चार पहिए वाला वाहन आ-जा सके। बहुत दूर एक ही ऐसी सड़क दिखाई पड़ी थी।
इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासी हम लोगों को बड़ी ही हैरानी से देख रहे थे। उनका पत्थर जैसा शरीर बलिष्ठ और चिकना दिखाई देता था। वे बहुत सभ्य और सुशील दिखाई दे रहे थे। घूमते-टहलते हुए हम लोग एक बाजार में गए। वहाँ पर कुछ हम लोगों ने जलपान किया। उस जलपान की खुशी यह थी कि दिल्ली और दूसरे मैदानी शहरों-गाँवों की अपेक्षा सभी सामान सस्ते और साफ-सुथरे थे। धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज की डूबती किरणें सभी पर्वतीय अंग को अपनी लालिमा की चादर से ढक रही थीं। रात होते-होते एक गहरी चुप्पी और उदासी छा गई। सुबह उठते ही हम लोगों ने देखा कि वह सारा पर्वतीय स्थल बर्फ में कैद हो गया है। आसमान में रुई-सी बर्फ उड़ रही है। सूरज की आँखें उन्हें देर तक चमका रही थीं। कुछ धूप निकलने पर हम लोग वापस आ गए। आज भी उस यात्रा के स्मरण से मन मचल उठता है।
5. समाचार-पत्र या समाचार-पत्र का महत्त्व
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज की प्रत्येक स्थिति से प्रभावित होता है। दूसरी ओर वह भी अपनी गतिविधियों से समाज को प्रभावित करता है। आए दिन समाज में कोई घटना, व्यापार या प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इन सबकी जानकारी देने में समाचार-पत्र की भूमिका बहुत बड़ी है। यह सत्य है कि इस प्रकार – की खबरें तो हमें आज विज्ञान की कृपा से रेडियो, टेलीप्रिंटर, टेलीफोन और टेलीविजन के द्वारा अवश्य प्राप्त होती हैं। लेकिन समाचार-पत्र की तरह उनसे एक-एक खबर का हवाला संभव नहीं होता है। यही कारण आज विभिन्न प्रकार के संचार-संदेश के साधनों के होते हुए भी समाचार-पत्र का महत्त्व सर्वाधिक है।
समाचार-पत्र के जन्म के विषय यह आमतौर पर कहा जाता है कि इसका शुभारंभ सातवीं सदी में चीन में हुआ था। यह तो सत्य ही है कि हमारे देश में समाचारपत्र का शुभारंभ 18वीं शताब्दी में हुआ था। सन् 1780 ई. में बंगाल में ‘बंगाल गजट’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। इसके बाद धीरे-धीरे हमारे देश के विभिन्न भागों से समाचार-पत्र निकलने लगे थे। यह निर्विवाद सत्य है कि हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या युग-प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप बढ़ती गई। सबसे अधिक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हिंदी महत्त्व के लिए किए गए योगदानों के परिणामों से हिंदी समाचार-पत्रों की गति और संख्या में वृद्धि हुई।
हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् समाचार-पत्रों की संख्या में पूर्वापेक्षा दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई। आज हमारे देश में समाचार-पत्रों की संख्या बहुत अधिक है। देश की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार-पत्र आज धड़ल्ले से निकलते जा रहे हैं। आज के प्रमुख समाचार-पत्रों के कई रूप, प्रतिरूप दिखाई दे रहे हैं : दैनिक, सांध्य दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक-त्रैमासिक और छमाही (अर्द्धवार्षिक) सहित कुछ वार्षिक समाचार-पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। मुख्य रूप से ‘नवभारत टाइम्स, ‘जनसत्ता’, ‘हिंदुस्तान’, ‘पंजाब केसरी’, ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘दैनिक ट्रिब्यून’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘स्टेट्समैन’, ‘वीर अर्जुन’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नयी दुनिया’, ‘समाचार मेल’, ‘आज’, ‘दैनिक जागरण’ आदि दैनिक पत्रों की बड़ी धूम है। ‘सांध्य टाइम्स’ आदि सांध्य-दैनिकों की बड़ी लोकप्रियता है। इसी तरह से समाचारों को प्रस्तुत करने वाली पत्रिकाओं की भी भरमार है। इनमें धर्मयुग, ब्लिट्स, सरिता, इंडिया टुडे, माया, मनोहर कहानियाँ आदि हैं।
समाचार-पत्रों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। समाचार-पत्रों के माध्यम से हमें न केवल राजनीतिक जानकारी हासिल होती है, अपितु सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि गतिविधियों का भी ज्ञान हो जाता है। यही नहीं हमें देश और विदेश की पूरी छवि समाचार-पत्रों में साफ-साफ दिखाई देती है। इससे हम अपने जीवन से संबंधित किसी भी दशा से अछूते नहीं रह पाते हैं। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि समाचार-पत्र की उपयोगिता और महत्त्व निःसंदेह है। अतएव हमें समाचार-पत्र से अवश्य लाभ उठाना चाहिए।
6. विद्यार्थी और अनुशासन
मनुष्य समाज में रहता है। उसे समाज के नियमों और दायित्वों के अनुसार रहना पड़ता है। जो इस प्रकार से रहता है उसे अनुशासित कहते हैं। इस प्रकार के नियम और दायित्व को अनुशासन कहते हैं।
अनुशासन जीवन के प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। यह अनुशासन घर से शुरू होता है। बच्चे को उसके संरक्षक उचित और आवश्यक अनुशासन में रखने लगते हैं। इसे पारिवारिक अनुशासन कहते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करता है। उसे शैक्षिक नियमों-निर्देशों का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार के नियम-निर्देश को ‘विद्यार्थी-अनुशासन’ कहा जाता है।
विद्यार्थी अनुशासन का शुभारंभ विद्यालय या पाठशाला ही है। वह शिक्षा के सुंदर और शुद्ध वातावरण में पल्लवित और विकसित होता है। यहाँ विद्यार्थी को शिष्ट गुरुजनों की छत्रछाया में रहकर अनुशासित होकर रहना पड़ता है। यहाँ विद्यार्थी को अपने परिवार के अनुशासन से कहीं अधिक कड़े अनुशासन में रहना पड़ता है। इस प्रकार के अनुशासन में रहकर विद्यार्थी जीवन भर अनुशासित रहने का आदी बन जाता है। इससे विद्यार्थी अपने गुरु की तरह योग्य और महान बनने की कोशिश करने लगता है। उसे किसी प्रकार के कड़े निर्देश-नियम या आदेश धीरे-धीरे सुखद और रोचक लगने लगते हैं। कुछ समय बाद वह जब अपनी पूरी शिक्षा पूरी कर लेता है तब वह समाज में प्रविष्ट होकर समाज को अनुशासित करने लगता है। इस प्रकार से विद्यार्थी जीवन का अनुशासन समाज को एक स्वस्थ और सबल अनुशासित स्वरूप . देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
विद्यार्थी-अनुशासन के कई अंग-स्वरूप होते हैं-नियमित और ठीक समय पर विद्यालय जाना प्रार्थना सभा में पहुंचना, कक्षा में प्रवेश करना, कक्षा में आते ही गुरुओं के प्रति अभिवादन, प्रणाम, साष्टांग दंडवत करना, कक्षा में पूरे मनोयोग से अध्ययन-मनन करना, बाल-सभा, खेल-कूद वाद-विवाद, जल-क्रीड़ा, गीत संगीत आदि में सनियम सक्रिय भाग लेना आदि विद्यार्थी-अनुशासन के ही अभिन्न अंग हैं। इससे विद्यार्थी-अनुशासन की आग में पूरी तरह से तपता है। इससे विद्यार्थी पके हुए घड़े के समान टिकाऊ बनकर समाज को अपने अंतर्गत अनुशासन में मीठे जल का मधुर पान कराता है। इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन के द्वारा समाज एक सही और निश्चित दिशा की ओर ही बढ़ता है। वह अपने पूर्ववर्ती कुसंस्कारों और त्रुटियों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। एक अपेक्षित सुंदर और सुखद स्थिति को प्राप्त कर अपने भविष्य को उज्ज्वल और समृद्ध बनाता है। यह ध्यान देने का विषय है कि विद्यार्थी-अनुशासन को पाकर समाज के सभी वर्ग बालक, युवा और वृद्ध एवं शिक्षित व अशिक्षित सभी में एक अपूर्व सुधार-चमत्कार आ जाता है।
विद्यार्थी अनुशासन हमारे जीवन का सबसे प्रथम और महत्त्वपूर्ण अंग है। यह हमारे समाज की उपयोगिता की दृष्टि से तो और अधिक मूल्यवान और अपेक्षित है। अतएव हमें इस प्रकार से विद्यार्थी-अनुशासन में विश्वास और उत्साह दिखाना चाहिए। यह पक्का इरादा और समझ रखनी चाहिए कि विद्यार्थी-अनुशासन सभी प्रकार के अनुशासन का सम्राट है। यह अनुशासन सर्वोच्च है, यह अनुशासन सर्वव्यापी है। यह अनुशासन सर्वकालिक है। अतएव इसकी पवित्रता और महानता के प्रति समाज के सभी वर्गों को पूर्ण रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए।
7. खेलों का महत्त्व
जिस प्रकार से शिक्षा मनुष्य के सांस्कृतिक और बौद्धिक मानस को पुष्ट और संवृद्ध करती है उसी प्रकार से खेलकूद उसकी शारीरिक संरचना को अधिक प्रौढ़. और शक्तिशाली बनाते हैं। इन दोनों ही प्रकार के तथ्यों की पुष्टि करते हुए एक बार महात्मा गांधी ने कहा था-“By education, I mean, all round development of a child”. इस प्रकार के कथन का अभिप्राय यही है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, अर्थात् बच्चों को शैक्षिक और सांस्कृतिक वातावरण के साथ-साथ शारीरिक वृद्धि हेतु खेल-कूद, व्यायाम आदि के वातावरण का भी होना आवश्यक है। इस तरह के विचारों को अनेक शिक्षाविदों, चिंतकों और समाज-सुधारकों ने व्यक्त किया है।
जीवन में खेलों के महत्त्व अधिक-से-अधिक रूप में दिखाई देते हैं। खेलों के द्वारा हमारे सम्पूर्ण अंगों की अच्छी-खासी कसरत हो जाती है। सभी मांसपेशियों पर बल पड़ता है। थकान तो अवश्य होती है। लेकिन इस थकान को दूर करने के लिए जब हम कुछ विश्राम कर लेते हैं तब हमारे अंदर एक अद्भुत चुस्ती और चंचलता आ जाती है। फिर हम कोई भी काम बड़ी स्फूर्ति और मनोवेगपूर्वक करने लगते हैं। खेलों से हमारी खेलों में अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार से हम श्रेष्ठ खिलाड़ी बनने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। खेलों को खेलने से न केवल खेलों के प्रति ही अभिरुचि बढ़ती है अपितु शिक्षा, कृषि, व्यवसाय, पर्यटन, वार्तालाप, ध्यान-पूजा आदि के प्रति भी हमारा मन एकदम केंद्रित होने लगता है।
खेलों के द्वारा हमारा मनोरंजन होता है। खेलों के द्वारा हमारा अच्छा व्यायाम होता है। हमारे अंदर सहनशक्ति आने लगती है। हम संघर्षशील होने लगते हैं। ऐसा इसलिए कि खेलों को खेलते समय हमारे खेल के साथी हमको पराजित करना चाहते हैं और हम उन्हें पराजित कर अपनी विजय हासिल करना चाहते हैं। इस प्रकार से हम जब तक विजय नहीं प्राप्त करते हैं तब तक इसके लिए हम निरंतर संघर्षशील बने रहते हैं। इस तरह खेलों को खेलने से हमारी हिम्मत बढ़ती है। हम निराश नहीं होते हैं। हम आशावान बनकर एक कठिन और दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने विश्वास, अपने बल-तेज और अपने प्रयत्न को बढ़ाते चलते हैं। इस प्रकार इतने अपने पक्के इरादों की दौड़ से किसी अपने मंसूबों की प्राप्ति करके फूले नहीं समाते हैं।
खेलों के खेलने से हमारा अधिक और अपेक्षित मनोरंजन होता है। इससे हमारा चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है। हमारे अंदर सरसता और मधुरता आ जाती है।
हम अधिक विवकेशील, सरल और सहनशील बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारा परस्पर सम्पर्क अधिक सुदृढ़ और घनिष्ठ बनता जाता है। फलतः हम एक उच्चस्तरीय प्राणी बन जाते हैं। खेलों के खेलने से हमारे अंदर अनुशासन का वह अंकुर उठने लगता है जो जीवन भर पल्लवित और फलित होने से कभी रुकता नहीं है। ठीक समय से खेलना, नियमबद्ध होकर खेलना और ठीक समय पर खेल से मुक्त होना आदि सब कुछ नियम अनुशासन के सच्चे पाठ पढ़ाते हैं।
हम देखते हैं कि प्राचीनकालीन खेलों के अतिरिक्त मूर्तिकला, चित्रकला, नाट्यकला, संगीतकला आदि कलाएँ भी एक विशेष प्रकार के खेल ही हैं। जिनसे हमारा बौद्धिक और शारीरिक सभी प्रकार के विकास होते हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि विविध प्रकार के खेलों के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से महान विकसित और कल्याणप्रद बन जाता है। इसलिए निःसंदेह हमारे जीवन में खेलों के अत्यधिक महत्त्व हैं। अतएव हमें किसी-न-किसी प्रकार के खेल में सक्रिय भाग लेकर अपने जीवन को समुन्नत और सर्वोपयोगी बनाना चाहिए।
8. विद्यालय का वार्षिकोत्सव
विद्यालय का वार्षिकोत्सव अन्य वार्षिकोत्सव के समान ही व्यापक स्तर पर होता है। यह उत्सव प्रतिवर्ष एक निश्चित समय पर ही होता है। इसके लिए सभी विद्यालय के ही सदस्य नहीं अपितु इससे संबंधित सभी सामाजिक प्राणी भी तैयार रहते हैं।
हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव प्रति वर्ष 13 अप्रैल की बैसाखी के शुभावसर पर होता है। इसके लिए लगभग पंद्रह दिनों से ही तैयारी शुरू हो जाती है। हमारे कक्षाध्यापक इसके लिए काफी प्रयास किया करते हैं। वे प्रतिदिन की होने वाली तैयारी और आगामी तैयारी के विषय में सूचनापट्ट पर लिख देते हैं। हमारे कक्षाध्यापक घिद्यालय के वार्षिकोत्सव के लिए नाटक, निबंध, एकांकी, कविता, वाद-विवाद, खेल आदि के लिए प्रमुख और योग्य विद्यार्थियों के चुनाव कर लेते हैं। कई दिनों के अभ्यास के उपरांत वे योग्य और कुशल विद्यार्थियों का चुनाव कर लेते हैं। इस चुनाव के बाद वे पुनः छात्रों को बार-बार उनके प्रदत्त कार्यों का अभ्यास कराते रहते हैं।
प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव के विषय में प्रमुख दैनिक समाचार-पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गया। इससे पूर्व विद्यालय के निकटवर्ती सदस्यों को इस विषय में सूचित करते हुए उन्हें आमंत्रित कर दिया गया। प्रदेश के शिक्षामंत्री को प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। जिलाधिकारी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया। विद्यालय के प्रधानाचार्य को अतिथि-स्वागताध्यक्ष का पदभार दिया गया। हमारे कक्षाध्यापक को सभा का संचालक पद दिया गया। विद्यालय के सभी छात्रों, अध्यापकों और सदस्यों को विद्यालय की पूरी साज-सज्जा और तैयारी के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार के विद्यालय के वार्षिकोत्सव की तैयारी में कोई त्रुटि नहीं रहने पर इसकी पूरी सतर्कता रखी गई।
विद्यालय के वार्षिकोत्सव के दिन अर्थात् 13 अप्रैल बैसाखी के शुभ अवसर पर प्रातः 7 बजे से ही विद्यालय की साज-सज्जा और तैयारी होने लगती है। 8 बजते ही सभी छात्र, अध्यापक और सदस्य अपने-अपने सौंपे हुए दायित्वों को सँभालने लगते हैं। अतिथियों का आना-जाना शुरू हो गया। वे एक निश्चित सजे हुए तोरण द्वार से प्रवेश करके पंक्तिबद्ध कुर्सियों पर जाकर बैठने लगे थे। उन्हें सप्रेम बैठाया जाता था। कार्यक्रम के लिए एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था। वहाँ कई कुर्सियाँ और टेबल अलग-अलग श्रेणी के थे। लाउडस्पीकर के द्वारा कार्यक्रम के संबंध में बार-बार सूचना दी जा रही थी।
ठीक 10 बजे हमारे मुख्य अतिथि प्रदेश के शिक्षामंत्री, सभाध्यक्ष जिलाधिकारी और उनके संरक्षकों की हमारे स्वागताध्यक्ष प्रधानाचार्य ने बड़े ही प्रेम के साथ आवभगत की और उन्हें उचित आसन प्रदान किया। हमारे कक्षाध्यापक ने सभा का संचालन करते हुए विद्यालय से कार्यक्रम संबंधित सूचना दी। इसके उपरांत प्रमुख अतिथि शिक्षामंत्री से वक्तव्य देने के लिए आग्रह किया। प्रमुख अतिथि के रूप में माननीय शिक्षामंत्री ने सबके प्रति उचित आभार व्यक्त करते हुए शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला। विद्यार्थियों को उचित दिशाबोध देकर विद्यालय के एक निश्चित अनुदान की घोषणा की जिसे सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूंज उठा। इसके बाद संचालक महोदय के आग्रह पर सभाध्यक्ष जिलाधिकारी ने संक्षिप्त वक्तव्य दिया। फिर संचालक महोदय के आग्रह पर स्वागताध्यक्ष हमारे प्रधानाचार्य ने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विद्यालय की प्रगति का विस्तार से उल्लेख किया। बाद में संचालक महोदय ने मुख्य अतिथि से आग्रह करके पुरस्कार के घोषित छात्रों को पुरस्कृत करवाया अंत में सबको धन्यवाद दिया। सबसे अंत में मिष्ठान वितरण हुआ।
दूसरे दिन सभी दैनिक समाचार-पत्रों में हमारे विद्यालय के वार्षिकोत्सव का महत्त्व प्रकाशित हुआ जिसे हम सबने ही नहीं प्रायः सभी अभिभावकों, संरक्षकों ने गर्व का अनुभव किया।
9. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
समय-समय पर भारत में महान् आत्माओं ने जन्म लिया है। गौतम बुद्ध, महावीर, अशोक, नानक, नामदेव, कबीर जैसे महान त्यागी और आध्यात्मिक पुरुषों के कारण ही भारत भूमि संत और महात्माओं का देश कहलाती है। ऐसे ही महान् व्यक्तियों के परम्परा में महात्मा गांधी ने भारत में जन्म लिया। सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में ही हम भारतवासियों का नेतृत्व किया, बल्कि राजनीति को भी प्रभावित किया। सदियों से परतंत्र भारत माता के बंधनों को काट गिराया। आज महात्मा गांधी के प्रयत्नों से हम भारतवासी स्वतंत्रता की खुली वायु में साँस ले रहे हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म पोरबंदर (कठियावाड़) में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे। इनका बचपन का नाम मोहनदास था। इन पर बचपन से ही आदर्श माता और सिद्धांतवादी पिता का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा।
गांधी जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में प्राप्त की। 13 वर्ष की अल्पआयु में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद में वकालत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वे 3 वर्ष तक इंग्लैंड में रहे। वकालत पास करने के बाद वे भारत वापस आ गए। वे आरंभ से ही सत्य में विश्वास रखते थे। भारत में वकालत करते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि उन्हें एक भारतीय व्यापारी द्वारा दक्षिण अफ्रीका बुलाया गया। वहाँ उन्होंने भारतीयों की अत्यंत शोचनीय दशा देखी। गांधी जी ने भारतवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया।
दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहिंसात्मक तरीके से भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने का निश्चय किया। उस समय भारत में तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय आदि नेता कांग्रेस पार्टी के माध्यम से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। गांधी जी पर उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा।
1921 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया। गांधी जी धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हो गए। अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। भारतवासियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए। गांधी जी ने 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाए। भारत के सभी नर-नारी उनकी एक आवाज पर उनके साथ बलिदान देने के लिए तैयार थे।
गांधी जी को अंग्रेजों ने बहुत बार जेल में बंद किया। गांधी जी ने अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। स्त्री-शिक्षा और राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार किया। हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया। स्वदेशी आंदोलन और चरखा आंदोलन चलाया। गांधी जी के प्रयत्नों से भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ।
सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी की 30 जनवरी, 1948 को नाथू राम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी। इससे सारा विश्व विकल हो उठा।
10. बाल दिवस
हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। बाल दिवस पूज्य चाचा नेहरू का जन्मदिवस है। चाचा नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। वे स्वतंत्रता संग्राम के महान् सेनानी थे। उन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपने जीवन के अनेक अमूल्य वर्ष देश की सेवा में बिताए। अनेक वर्षों तक विदेशी शासकों ने उन्हें जेल में बंद रखा। उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और देशवासियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे।
पं. नेहरू बच्चों के प्रिय नेता थे। बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा’ कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने देश में बच्चों के लिए शिक्षा सुविधाओं का विस्तार कराया। उनके अच्छे भविष्य के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ की। वे कहा करते थे ‘कि आज के बच्चे ही कल के नागरिक बनेंगे। यदि आज उनकी अच्छी देखभाल की जाएगी तो आगे आने वाले समय में वे अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, सैनिक, विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक बनेंगे।’ इसी कारण उन्होंने बाल कल्याण की अनेक योजनाएँ बनाईं। अनेक नगरों में बालघर और मनोरंजन केंद्र बनवाए। प्रतिवर्ष बाल दिवस पर डाक टिकटों का प्रचलन किया। बालकों के लिए अनेक प्रतियोगिताएँ आरंभ कराईं। वे देश-विदेश में जहाँ भी जाते बच्चे उन्हें घेर लेते थे। उनके जन्मदिवस को भारत में बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष बाल-दिवस के अवसर पर बाल मेले का आयोजन किया जाता है। बच्चे अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाते हैं। विभिन्न प्रकार की विक्रय योग्य वस्तुएँ अपने हाथ से तैयार करते हैं। बच्चों के माता-पिता और मित्र उस अवसर पर खरीददारी करते हैं। सारे विद्यालय को अच्छी प्रकार सजाया जाता है। विद्यालय को झंडियों, चित्रों और रंगों की सहायता से आकर्षक रूप दिया जाता है।
बाल दिवस के अवसर पर खेल-कूद प्रतियोगिता और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। बच्चे मंच पर आकर नाटक, गीत, कविता, नृत्य और फैंसी ड्रेस शो का प्रदर्शन करते हैं। सहगान, बाँसुरी वादन का कार्यक्रम दर्शकों का मन मोह लेता है। तत्पश्चात् सफल और अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कार वितरण किए जाते हैं। बच्चों को मिठाई का भी वितरण किया जाता है। इस प्रकार दिवस विद्यालय का एक प्रमुख उत्सव बन जाता है।
11. विज्ञान की देन या विज्ञान वरदान है या विज्ञान का महत्त्व
आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य के जीवन में महान परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य के जीवन को नये-नये वैज्ञानिक आविष्कारों से सुख-सुविधा प्राप्त हुई है। प्रायः असंभव कही जाने वाली बातें भी संभव प्रतीत होने लगी हैं। मनुष्य विज्ञान के सहारे आज चंद्रमा तक पहुँच सका है। सागर की गहराइयों में जाकर उसके रहस्य को भी खोज लाया है। भीषण ज्वालामुखी के मुँह में प्रवेश कर सका है; पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका है। बंजर भूमि को हरा-भरा बनाकर भरपूर फसलें उगा सका है।
विज्ञान की सहायता से मनुष्य का जीवन सुखमय हो गया है। आज घरों में विज्ञान की देन हीटर, पंखे, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, गैस, स्टोव, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीफोन, स्कूटर आदि वस्तुएं दिखाई देती हैं। गृहिणियों के अनेक कार्य आज विज्ञान की सहायता से सरल बन गए हैं।
विज्ञान की सहायता से आज समय और दूरी का महत्त्व घट गया है। आज हजारों मील की दूरी पर बैठा हुआ मनुष्य अपने मित्रों और संबंधियों से इस प्रकार बात कर सकता है जैसे कि सामने बैठा हुआ हो। आज दिल्ली में चाय पीकर, भोजन बंबई में और रात्रि विश्राम लंदन में कर सकना संभव है। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले ऐसे विमान और एयर बस हैं जिनकी सहायता से हजारों मील का सफर एक दिन में किया जाना संभव है। रेल, मोटर, ट्राम, जहाज, स्कूटर आदि आने-जाने में सुविधा प्रदान करते हैं।
टेलीप्रिंटर, टेलीफोन, टेलीविजन मनुष्य के लिए बड़े उपयोगी साधन सिद्ध हुए हैं। विज्ञान की सहायता से समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्र-से-शीघ्र पहँचाए जा सकते हैं। रेडियो-फोटो की सहायता से चित्र भेजे जा सकते हैं। लाहौर में खेला जाने वाला क्रिकेट मैच दिल्ली में देखा जा सकता है। एक घंटे में एक पुस्तक की हजारों प्रतियाँ छापी जा सकती हैं। आवाज को टेपरिकॉर्डर और ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर कैद किया जा सकता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान की देन भुलाई नहीं जा सकती। एक्स-रे मशीन की सहायता से शरीर के अंदर के भागों का रहस्य जाना जा सकता है। शरीर के किसी भी भाग का ऑपरेशन किया जा सकना संभव है। शरीर के अंग बदले जा सकते हैं। खून-परिवर्तन किया जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे को ठीक किया जा सकता है। भयानक बीमारियों के लिए दवाएँ और इंजेक्शन खोजे जा चुके हैं।
कृषि के क्षेत्र में नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने कृषि उत्पादन में तो वृद्धि की ही है, साथ ही भारी-भारी कार्यों को सरल भी बना दिया है। कृषि, यातायात, संदेशवाहन, संचार, मनोरंजन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विज्ञान की देन अमूल्य है।
12. परोपकार
परोपकार की भावना एक पवित्र भावना है। मनुष्य वास्तव में वही है जो दूसरों का उपकार करता है। यदि मनुष्य में दया, ममता, परोपकार और सहानुभूति की भावना न हो तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं रहता। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में, ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।’ मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने विषय में न सोचकर दूसरों के विषय में ही सोचे, दूसरों की पीड़ा हरे, दूसरों के दुख दूर करने का प्रयत्न करे।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरस धर्म नहिं भाई।’ दूसरों की भलाई करने से अच्छा कोई धर्म नहीं है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप है और परोपकार करना पुण्य है।
परोपकार शब्द ‘पर + उपकार’ से मिलकर बना है। स्वयं को सुखी बनाने के लिए तो सभी प्रयत्न करते हैं परंतु दूसरों के कष्टों को दूर कर उन्हें सुखी बनाने का कार्य जो सज्जन करते हैं वे ही परोपकारी होते हैं। परोपकार एक अच्छे चरित्रवान व्यक्ति की विशेषता है। परोपकारी स्वयं कष्ट उठाता है लेकिन दुखी और पीड़ित मानवता के कष्ट को दूर करने में पीछे नहीं हटता। जिस कार्य को अपने स्वार्थ की दृष्टि से किया जाता है वह परोपकार नहीं है।
परोपकारी व्यक्ति अपने और पराये का भेद नहीं करता। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदियाँ अपना जल स्वयं काम में नहीं लेतीं। चंदन अपनी सुगंध दूसरों को देता है। सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश दूसरों को देते हैं। नदी, कुएँ और तालाब दूसरों के लिए हैं। यहाँ तक कि पशु भी अपना दूध मनुष्य को देते हैं और बदले में कुछ नहीं चाहते। यह है परोपकार की भावना। इस भावना के मूल में स्वार्थ का नाम भी नहीं है।
भारत तथा विश्व का इतिहास परोपकार के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, ईसा मसीह, दधीचि, स्वामी विवेकानंद, गुरु नानक सभी महान् परोपकारी थे। परोपकार की भावना के पीछे ही अनेक वीरों ने यातनाएँ सही और स्वतंत्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गए। अपने जीवन का त्याग किया और देश को स्वतंत्र कराया।
परोपकार एक सच्ची भावना है। यह चरित्र का बल है। यह निःस्वार्थ सेवा , है, यह आत्मसमर्पण है। परोपकार ही अंत में समाज का कल्याण करता है। उनका नाम इतिहास में अमर होता है।
13. वृक्षारोपण
हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में भी वनों का विशेष महत्त्व है। वन ही प्रकृति की महान् शोभा के भंडार हैं। वनों के द्वारा प्रकृति का जो रूप खिलता है वह मनुष्य को प्रेरित करता है। दूसरी बात यह है कि वन ही मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं आदि के आधार हैं, वन के द्वारा ही सबके स्वास्थ्य की रक्षा होती है। वन इस प्रकार से हमारे जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। अगर वन न रहें तो हम नहीं रहेंगे और यदि वन रहेंगे तो हम रहेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि वन से हमारा अभिन्न संबंध है जो निरंतर है और सबसे बड़ा है। इस प्रकार से हमें वनों की आवश्यकता सर्वोपरि होने के कारण हमें इसकी रक्षा की भी आवश्यकता सबसे बढ़कर है। . वृक्षारोपण की आवश्यकता हमारे देश में आदिकाल से ही रही है। बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों के आश्रम के वृक्ष-वन वृक्षारोपण के द्वारा ही तैयार किए गए हैं, महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के अंतर्गत महर्षि कण्व के शिष्यों के द्वारा वृक्षारोपण किए जाने का उल्लेख किया है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता प्राचीन काल से ही समझी जाती रही है और आज भी इसकी आवश्यकता ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।
अब प्रश्न है कि वृक्षारोपण की आवश्यकता आखिर क्यों होती है? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि वृक्षारोपण की आवश्यकता इसीलिए होती है कि वृक्ष सुरक्षित रहें, वृक्ष या वन नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन शून्य होने लगेगा। एक समय ऐसा आ जाएगा कि हम जी भी न पाएँगे। वनों के अभाव में प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा। प्रकृति का संतुलन जब बिगड़ जाएगा तब सम्पूर्ण वातावरण इतना दूषित और अशुद्ध हो जाएगा कि हम न ठीक से साँस ले सकेंगे और न ठीक से अन्न-जल ही ग्रहण कर पाएँगे। वातावरण के दूषित और अशुद्ध होने से हमारा मानसिक, शारीरिक और आत्मिक विकास कुछ न हो सकेगा। इस प्रकार से वृक्षारोपण की आवश्यकता हमें सम्पूर्ण रूप से प्रभावित करती हुई हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है। वृक्षारोपण की आवश्यकता की पूर्ति होने से हमारे जीवन और प्रकृति का परस्पर संतुलन क्रम बना रहता है।
वनों के होने से हमें ईंधन के लिए पर्याप्त रूप से लकड़ियाँ प्राप्त हो जाती हैं। बांस की लकड़ी और घास से हमें कागज प्राप्त हो जाता है जो हमारे कागज उद्योग का मुख्याधार है। वनों की पत्तियों, घास, पौधे, झाड़ियों की अधिकता के कारण तीव्र वर्षा से भूमि का कटाव तीव्र गति से न होकर मंद गति से होता है या नहीं के बराबर होता है। वनों के द्वारा वर्षा का संतुलन बना रहता है जिससे हमारी कृषि संपन्न होती है। वन ही बाढ़ के प्रकोप को रोकते हैं, वन ही बढ़ते हुए और उड़ते हुए रेत-कणों को कम करते हुए भूमि का संतुलन बनाए रखते हैं।
यह सौभाग्य का विषय है कि 1952 में सरकार ने ‘नयी वन नीति’ की घोषणा करके वन महोत्सव की प्रेरणा दी है जिससे वन रोपण के कार्य में तेजी आई है। इस प्रकार से हमारा ध्यान अगर वन सुरक्षा की ओर लगा रहेगा तो हमें वनों से होने वाले, लाभ, जैसे-जड़ी-बूटियों की प्राप्ति, पर्यटन की सुविधा, जंगली पशु-पक्षियों का सुदर्शन, इनकी खाल, पंख या बाल से प्राप्त विभिन्न आकर्षक वस्तुओं का निर्माण आदि सब कुछ हमें प्राप्त होते रहेंगे। अगर प्रकृति देवी का यह अद्भुत स्वरूप वन, सम्पदा नष्ट हो जाएगी तो हमें प्रकृति के कोप से बचना असंभव हो जाएगा।
14. दूरदर्शन से लाभ और हानियाँ
विज्ञान के द्वारा मनुष्य ने जिन चमत्कारों को प्राप्त किया है। उनमें दूरदर्शन का स्थान अत्यंत महान और उच्च है। दूरदर्शन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के आस-पास ही समझना चाहिए। टेलीविजन दूरदर्शन का अंग्रेजी नाम है। टेलीविजन का आविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया। लंदन के बाद ही इसका प्रचार-प्रसार इतना बढ़ता गया है कि आज यह विश्व के प्रत्येक भाग में बहुत लोकप्रिय हो गया है। भारत में टेलीविजन का आरंभ 15 सितंबर, सन् 1959 को हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति ने आकाशवाणी के टेलीविजन विभाग का उद्घाटन किया था।
टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है-दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों-का-त्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर-घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि यह एक रेडियो कैबिनेट के आकार-प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते-जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर रख सकते हैं। इसे देखने. के लिए हमें न किसी विशेष प्रकार के चश्मे या मानभाव या अध्ययन आदि की आवश्यकताएँ पड़ती हैं। इसे देखने वालों के लिए भी किसी विशेष वर्ग के दर्शक या श्रोता के चयन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अपितु इसे देखने वाले सभी वर्ग या श्रेणी के लोग हो सकते हैं।
टेलीविजन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित करता है। यह हमारे जीवन के काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति-ढंग और उपाय को भी क्रमशः बडी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। इस प्रकार से दूरदर्शन हमें एक-से एक बढ़कर जीवन की समस्याओं और घटनाओं को बड़ी ही सरलता और आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करता है। जीवन से संबंधित ये घटनाएँ-व्यापार-कार्य आदि सभी कुछ न केवल हमारे आस-पास पड़ोस के ही होते हैं अपितु दूर-दराज के देशों और भागों से भी जुड़े होते हैं जो किसी-न-किसी प्रकार से हमारे जीवनोपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि दूरदर्शन हमारे लिए ज्ञानवर्द्धन का बहुत बड़ा साधन है। यह ज्ञान की सामान्य रूपरेखा से लेकर गंभीर और विशिष्ट रूपरेखा को बड़ी ही सुगमतापूर्वक प्रस्तुत करता है। इस अर्थ से दूरदर्शन हमारे घर के चूल्हा-चाकी से लेकर अंतरिक्ष के कठिन ज्ञान की पूरी-पूरी जानकारी देता रहता है।
दूरदर्शन द्वारा हमें जो ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होते हैं उनमें कृषि के ज्ञान-विज्ञान – का कम स्थान नहीं है। आधुनिक कृषि यंत्रों से होने वाली कृषि से संबंधित जानकारी का लाभ शहरी कृषक से बढ़कर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले कृषक अधिक उठाते हैं। इसी तरह से कृषि क्षेत्र में होने वाले नवीन आविष्कारों, उपयोगिताओं, विभिन्न प्रकार के बीज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि का पूरा विवरण हमें दूरदर्शन ही दिया करता है।
दूरदर्शन के द्वारा पर्यो, त्योहारों, मौसमों, खेल-तमाशे, नाच, गाने-बजाने, कला, संगीत, पर्यटन, व्यापार, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति, अध्याय आदि लोक-परलोक के ज्ञान-विज्ञान के रहस्य एक-एक करके खुलते जाते हैं। दूरदर्शन इन सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान हमें प्रदान करते हुए इनकी कठिनाइयों को हमें एक-एक करके बतलाता है और इसका समाधान भी करता है।
दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है। प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार के विशेष आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के द्वारा हम अपना मनोरंजन करके विशेष उत्साह और प्रेरणा प्राप्त करते हैं। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों से हमारा मनोरंजन तो होता ही है इसके साथ-ही-साथ विविध प्रकार के दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से भी हमारा कम मनोरंजन नहीं होता है। इसी तरह से बाल-बच्चों, वृद्धों, युवकों सहित विशेष प्रकार के शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के लिए दिखाए जाने वाले दूरदर्शन के कार्यक्रम हमारा मनोरंजन बार-बार करते हैं जिससे ज्ञान प्रकाश की किरणें भी फूटती हैं।
हाँ, अच्छाई में बुराई होती है और कहीं-कहीं फूल में काँटे भी होते हैं। इसी तरह से जहाँ और जितनी दूरदर्शन में अच्छाई है वहाँ उतनी उसमें बुराई भी कही जा सकती है। हम भले ही इसे सुविधा सम्पन्न होने के कारण भूल जाएँ लेकिन दूरदर्शन के लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ ऐसी हानियाँ हैं जिन्हें हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं। दूरदर्शन के बार-बार देखने से हमारी आँखों में रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं। समय की बरबादी के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर हो जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है अपितु हमारे अबोध और नाबालिक बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। दूरदर्शन के खराब होने से इनकी मरम्मत कराने में काफी खर्च भी पड़ जाता है। इस प्रकार दूरदर्शन से बहुत हानियाँ और बुराइयाँ हैं, फिर भी इससे लाभ अधिक हैं, इसी कारण है कि यह अधिक लोकप्रिय हो रहा है।
15. प्रदूषण की समस्या और समाधान
आज मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि वह अब मनुष्य से बढ़कर देवताओं की शक्तियों के समान शक्तिशाली हो गया। मनुष्य ने यह विकास और महत्त्व विज्ञान के द्वारा प्राप्त किया है। विज्ञान का आविष्कार करके मनुष्य ने चारों ओर से प्रकृति को परास्त करने का कदम बढ़ा लिया है। देखते-देखते प्रकृति धीरे-धीरे मनुष्य की दासी बनती जा रही है। आज प्रकृति मनुष्य के अधीन बन गई है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के लिए कोई कसर न छोड़ने का निश्चय कर लिया है।
जिस प्रकार मनुष्य मनुष्य का और राष्ट्र राष्ट्र का शोषण करते रहे हैं, उसी प्रकार मनुष्य प्रकृति का भी शोषण करता रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में कोई गंदगी नहीं है। प्रकृति में बस जीव-जंतु, प्राणी तथा वनस्पति-जगत् परस्पर मिलकर समतोल में रहते हैं। प्रत्येक का अपना विशिष्ट कार्य है जिससे सड़ने वाले पदार्थों की अवस्था तेजी से बदले और वह फिर वनस्पति जगत् तथा उसके द्वारा जीवन-जगत् की खुराक बन सके अर्थात् प्रकृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का काम अपने स्वाभाविक रूप में बराबर चलता रहता है। जब तक मनुष्य का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक न गंदगी होती है और न रोग। जब मनुष्य प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करता है तब प्रकृति का समतोल बिगड़ता है और इससे सारी सृष्टि का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।
आज का युग औद्योगिक युग है। औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायु-प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करने वाले संयंत्रों से गरमी निकलती है। यह उद्योग जितने बड़े होंगे और जितना बढ़ेंगे उतनी ज्यादा गरमी फैलाएँगे। इसके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो ईंधन प्रयोग में लाया जाता है वह प्रायः पूरी तरह नहीं जल पाता। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि धुएँ में कार्बन मोनोक्साइड काफी मात्रा में निकलती है। आज मोटर वाहनों का यातायात तेजी से बढ़ रहा है। 960 किलोमीटर की यात्रा में एक मोटर वाहन उतनी ऑक्सीजन का उपयोग करता है जितनी एक आदमी को एक वर्ष में चाहिए। दुनिया के हर अंचल में मोटर वाहनों का प्रदूषण फैलता जा रहा है। रेल का यातायात भी आशातीत रूप से बढ़ रहा है। हवाई जहाजों का चलन भी सभी देशों में हो चुका है। तेल-शोधन, चीनी-मिट्टी की मिलें, चमड़ा, कागज, रबर के कारखाने तेजी से बढ़ रहे हैं। रंग, वार्निश, प्लास्टिक, कुम्हारी चीनी के कारखाने बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार के यंत्र बनाने के कारखाने बढ़ रहे हैं यह सब ऊर्जा-उत्पादन के लिए किसी-न-किसी रूप में ईंधन को फूंकते हैं और अपने धुएँ से सारे वातावरण को दूषित करते हैं। यह प्रदूषण जहाँ पैदा होता है वहीं पर स्थिर नहीं रहता। वायु के प्रवाह में वह सारी दुनिया में फैलता रहता है।
सन् 1968 में ब्रिटेन में लाल धूल गिरने लगी, वह सहारा रेगिस्तान से उड़कर आई। जब उत्तरी अफ्रीका में टैंकों का युद्ध चल रहा था तब वहाँ से धूल उड़कर कैरीबियन समुद्र तक पहुँच गई थी। आजकल लोग घरों, कारखानों, मोटरों और विमानों के माध्यम से हवा, मिट्टी और पानी में अंधाधुंध दूषित पदार्थ प्रवाहित कर रहे हैं। विकास के क्रम में प्रकृति अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाती है जो उसके लिए आवश्यक है इसलिए इन व्यवस्थाओं में मनुष्य का हस्तक्षेप सब प्राणियों के लिए घातक होता है। प्रदूषण का मुख्य खतरा इसी से है कि इससे परिस्थितीय संस्थान पर दबाव पड़ता है। घनी आबादी के क्षेत्रों में कार्बन मोनोक्साइड की वजह से रक्त-संचार में 5-10 प्रतिशत आक्सीजन कम हो जाती है। शरीर के ऊतकों को 25 प्रतिशत आक्सीजन की आवश्यकता होती है। आक्सीजन की तुलना में कार्बन मोनोक्साइड लाल रुधिर कोशिकाओं के साथ ज्यादा मिल जाती है, इससे यह हानि होती है कि ये कोशिकाएँ ऑक्सीजन को अपनी पूरी मात्रा में सँभालने में असमर्थ रहती हैं।
लंदन में चार घंटों तक ट्रैफिक सँभालने के काम पर रहने वाले पुलिस के सिपाही के फेफड़ों में इतना विष भर जाता है मानो उसने 105 सिगरेट पी हों। आराम की स्थिति में मनुष्य को दस लीटर हवा की आवश्यकता होती है। कड़ी मेहनत पर उससे दस गुना ज्यादा चाहिए लेकिन एक दिन में एक दिमाग को इतनी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जितनी कि 17,000 हेक्टेयर वन में पैदा होती है। मिट्टी में बढ़ते हुए विष से वनस्पति की निरंतर कमी महासागरों के प्रदूषण आदि की वजह से ऑक्सीजन की उत्पत्ति में कमी होती रही है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष हम वायुमंडल में अस्सी अरब टन धुआँ फेंकते हैं। कारों तथा विमानों से दूषित गैस निकलती है। मनुष्य और प्राणियों के साँस से जो कार्बन डाइआक्साइड निकलती है वह अलग प्रदूषण फैलाती है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण के प्रदूषण से वर्तमान रफ्तार से 30 वर्ष में जीवन-मंडल (बायोस्फियर) जिस पर प्राण और वनस्पति निर्भर हैं समाप्त हो जाएगा। पशु, पौधे और मनुष्यों का अस्तित्व नहीं रहेगा। सारी पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी, संभव है बरफ का युग फिर से आए। 30 साल के बाद हम कुछ नहीं कर पाएँगे। उस समय तक पृथ्वी का वातावरण नदियाँ और महासमुद्र सब विषैले हो जाएँगे।
यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों को समझकर, प्रकृति को गुरु मानकर उसके साथ सहयोग करता और विशेष करके सब अवशिष्टों की प्रकृति को लौटाता है तो सृष्टि और मनुष्य स्वस्थ्य रह सकते हैं, नहीं तो लंबे, अर्से में अणु विस्फोट के खतरे की अपेक्षा प्रकृति के कार्य में मनुष्य का कृत्रिम हस्तक्षेप कम खतरनाक नहीं है।
अतएव हमें प्रकृति के शोषण क्रम को कम करना होगा। अन्यथा हमारा जीवन पानी के बुलबुले के समान बेवजह समाप्त हो जाएगा और हमारे सारे विकास-कार्य ज्यों-के-त्यों पड़े रह जाएँगे।
16. ‘दहेज प्रथा’ एक सामाजिक बुराई . पंचतंत्र में लिखा है
पुत्रीति जाता महतीह, चिन्ताकस्मैप्रदेयोति महानवितकैः।
दत्त्वा सुखं प्राप्तयस्यति वानवेति, कन्यापितृत्वंखलुनाम कष्टम।।
अर्थात् पुत्री उत्पन्न हुई, यह बड़ी चिंता है। यह किसको दी जाएगी और देने के बाद भी वह सुख पाएगी या नहीं, यह बड़ा वितर्क रहता है। कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है।
इस श्लेष से ऐसा लगता है कि अति प्राचीन काल से ही दहेज की प्रथा हमारे देश में रही है। दहेज इस समय निश्चित ही इतना कष्टदायक और विपत्तिसूचक होने के साथ-ही-साथ इस तरह प्राणहारी न था जितना कि आज है। यही कारण है कि आज दहेज-प्रथा को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और समझा जा रहा है।
आज दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना बहुत ही सार्थक होगा कि आज दहेज का रूप अत्यंत विकृत और कुत्सित हो गया है। यद्यपि प्राचीन काल में भी दहेज की प्रथा थी लेकिन वह इतनी भयानक और प्राण संकटापन्न स्थिति को उत्पन्न करने वाली न थी। उस समय दहेज स्वच्छंदपूर्वक था। दहेज लिया नहीं जाता था अपितु दहेज दिया जाता था। दहेज प्राप्त करने वाले के मन में स्वार्थ की कहीं कोई खोट न थी। उसे जो कुछ भी मिलता था उसे वह सहर्ष अपना लेता था लेकिन आज दहेज की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गई है।
आज दहेज एक दानव के रूप में जीवित होकर साक्षात् हो गया है। दहेज एक विषधर साँप के समान एक-एक करके बंधुओं को डंस रहा है। कोई इससे बच नहीं पाता है, धन की लोलुपता और असंतोष की प्रवृत्ति तो इस दहेज के प्राण हैं। दहेज का अस्तित्व इसी से है। इसी ने मानव समाज को पशु समाज में बदल दिया है। दहेज न मिलने अर्थात् धन न मिलने से बार-बार संकटापन्न स्थिति का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती है। इसी के कारण कन्यापक्ष को झुकना पड़ता है। नीचा बनना पड़ता है। हर कोशिश करके वरपक्ष और वर की माँग को पूरा करना पड़ता है। आवश्यकता पड़ जाने पर घर-बार भी बेच देना पड़ता है। घर की लाज भी नहीं बच पाती है।
दहेज के अभाव में सबसे अधिक वधू (कन्या) को दुःख उठाना पड़ता है। उसे जली-कटी, ऊटपटाँग बद्दुआ, झूठे अभियोग से मढ़ा जाना और तरह-तरह के दोषारोपण करके आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है। दहेज के कुप्रभाव से केवल वर-वधू ही नहीं प्रभावित होते हैं, अपितु इनसे संबंधित व्यक्तियों को भी इसकी लपट में झुलसना पड़ता है। इससे दोनों के दूर-दूर के संबंध बिगड़ने के साथ-साथ मान-अपमान दुखद वातावरण फैल जाता है जो आने वाली पीढ़ी को एक मानसिक विकृति और दुष्प्रभाव को जन्माता है।
दहेज के कुप्रभाव से मानसिक अव्यस्तता बनी रहती है। कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि दहेज के अभाव में प्रताड़ित वधू ने आत्महत्या कर ली है, या उसे जला-डूबाकर मार दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप कानून की गिरफ्त में दोनों परिवार के लोग आ जाते हैं, पैसे बेशुमार लग जाते हैं, शारीरिक दंड अलग मिलते हैं। काम ठंडे अलग से पड़ते हैं और इतना होने के साथ अपमान और असम्मान, आलोचना भरपूर सहने को मिलते हैं।
दहेज प्रथा सामाजिक बुराई के रूप में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध की जा चुकी है। अब दहेज प्रथा को दूर करने के मुख्य मुद्दों पर विचारना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
इस बुरी दहेज-प्रथा को तभी जड़ से उखाड़ा जा सकता है जब सामाजिक स्तर पर जागृति अभियान चलाया जाए। इसके कार्यकर्ता अगर इसके भुक्त-भोगी लोग हों तो यह प्रथा यथाशीघ्र समाप्त हो सकती है। ऐसा सामाजिक संगठन का होना जरूरी है जो भुक्त-भोगी या आंशिक भोगी महिलाओं के द्वारा संगठित हो। सरकारी सहयोग होना भी जरूरी है क्योंकि जब तक दोषी व्यक्ति को सख्त कानूनी कार्यवाही करके दंड न दिया जाए तब तक इस प्रथा को बेदम नहीं किया जा सकता। संतोष की बात है कि सरकारी सहयोग के द्वारा सामाजिक जागृति आई है। यह प्रथा निकट भविष्य में अवश्य समाप्त हो जाएगी।
17. अगर मैं प्रधानमंत्री होता
किसी आजाद मुल्क का नागरिक अपनी योग्यताओं का विस्तार करके अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है, वह कोई भी पद, स्थान या अवस्था को प्राप्त कर सकता है, उसको ऐसा होने का अधिकार उसका संविधान प्रदान करता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पद को प्राप्त करना यों तो आकाश कुसुम तोड़ने के समान है फिर भी ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के अनुसार यहाँ का अत्यंत सामान्य नागरिक भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन सकता है। लालबहादुर शास्त्री और ज्ञानी जैलसिंह इसके प्रमाण हैं।
यहाँ प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख प्रस्तुत है कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ तो क्या करता? मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि प्रधानमंत्री का पद अत्यंत विशिष्ट और महान् उत्तरदायित्वपूर्ण पद है। इसकी गरिमा और महानता को बनाए रखने में किसी एक सामान्य और भावुक व्यक्ति के लिए संभव नहीं है फिर मैं महत्त्वाकांक्षी हूँ और अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो निश्चय समूचे राष्ट्र की काया पलट कर दूँगा। मैं क्या-क्या राष्ट्रोत्थान के लिए कदम उठाऊँगा, उसे मैं प्रस्तुत करना पहला कर्तव्य मानता हूँ जिससे मैं लगातार इस पद पर बना रहूँ।
सबसे पहले शिक्षा-नीति में आमूल चूल परिवर्तन लाऊँगा। मुझे सुविज्ञात है कि हमारी कोई स्थायी शिक्षा-नीति नहीं है जिससे शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है, यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से हम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं, बेरोजगारी की जो आज विभीषिका आज के शिक्षित युवकों को त्रस्त कर रही है, उनका मुख्य कारण हमारी बुनियादी शिक्षा की कमजोरी, प्राचीन काल की गुरु-शिष्य परंपरा की गुरुकुल परिपाटी की शुरुआत नये सिरे से करके धर्म और राजनीति के समन्वय से आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात कराना चाहूँगा। राष्ट्र को बाह्य शक्तियों के आक्रमण का खतरा आज भी बना हुआ है। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा अभी अपेक्षित रूप में नहीं है। इसके लिए अत्याधुनिक युद्ध के उपकरणों का आयात बढ़ाना होगा। मैं खुले आम न्यूक्लीयर विस्फोट का उपयोग सृजनात्मक कार्यों के लिए ही करना चाहूँगा। मैं किसी प्रकार ढुलमुल राजनीति का शिकार नहीं बनूँगा अगर कोई राष्ट्र हमारे राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखें तो मैं उसका मुंहतोड़ जवाब देने में संकोच नहीं करूंगा। मैं अपने वीर सैनिकों का उत्साहवर्द्धन करते हुए उनके जीवन को अत्यधिक संपन्न और खुशहाल बनाने के लिए उन्हें पूरी समुचित सुविधाएँ प्रदान कराऊँगा जिससे वे राष्ट्र की आन-मान पर न्योछावर होने में पीछे नहीं हटेंगे।
हमारे देश की खाद्य समस्या सर्वाधिक जटिल और दुखद समस्या है। कृषि प्रधान राष्ट्र होने के बावजूद यहाँ खाद्य संकट हमेशा मँडराया करता है। इसको ध्यान में रखते हुए मैं नवीनतम कृषि यंत्रों, उपकरणों और रासायनिक खादों और सिंचाई के विभिन्न साधनों के द्वारा कृषि-दशा की दयनीय स्थिति को सबल बनाऊँगा। देश की जो बंजर और बेकार भूमि है उसका पूर्ण उपयोग कृषि के लिए करवाते हुए कृषकों को एक-से-एक बढ़कर उन्नतिशील बीज उपलब्ध कराके उनकी अपेक्षित सहायता सुलभ कराऊँगा।
यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो देश में फैलती हुई राजनीतिक अस्थिरता पर कड़ा अंकुश लगाकर दलों के दलदल को रोक दूँगा। राष्ट्र को पतन की ओर ले जाने वाली राजनीतिक अस्थिरता के फलस्वरूप प्रतिदिन होने वाले आंदोलनों, काम-रोको और विरोध दिवस बंद को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास करूंगा। देश में गिरती हुई अर्थव्यवस्था के कारण मुद्रा प्रसार पर रोक लगाना अपना मैं प्रमुख कर्त्तव्य समझूगा। उत्पादन, उपभोग और विनियम की व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर देश को आर्थिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्रदान कराऊँगा।।
देश को विकलांग करने वाले तत्त्वों, जैसे-मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार ही नव अवगुणों की जड़ है। इसको जड़मूल से समाप्त करने के लिए अपराधी तत्त्वों को कड़ी-से-कड़ी सजा दिलाकर समस्त वातावरण को शिष्ट और स्वच्छ व्यवहारों से भरने की मेरी सबल कोशिश होगी। यहीं आज धर्म और जाति को लेकर तो साम्प्रदायिकता फैलाई जा रही है वह राष्ट्र को पराधीनता की ओर ढकेलने के ही अर्थ में हैं, इसलिए ऐसी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को आज दंड की सजा देने के लिए मैं सबसे संसद के दोनों सदनों से अधिक-से-अधिक मतों से इस प्रस्ताव को पारित करा करके राष्ट्रपति से सिफारिश करके संविधान में परिवर्तन के बाद एक विशेष अधिनियम जारी कराऊंगा . जिससे विदेशी हाथ अपना बटोर सकें।
संक्षेप में यही कहना चाहता हूँ कि यदि मैं प्रधानमंत्री हूँगा तो राष्ट्र और समाज के कल्याण और पूरे उत्थान के लिए मैं एड़ी-चोटी का प्रयास करके प्रधानमंत्रियों की परम्परा और इतिहास में अपना सबसे अधिक लोकापेक्षित नाम स्थापित करूँगा। भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाला यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो कथनी और करनी को साकार कर देता।
18. परिश्रम अथवा परिश्रम का महत्त्व अथवा परिश्रम ही जीवन है
संस्कृत का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
अर्थात् परिश्रम से ही कार्य होते हैं, इच्छा से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशु स्वयं नहीं आ गिरते। इससे स्पष्ट है कि कार्य-सिद्धि के लिए परिश्रम बहुत आवश्यक है।
सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगल अवस्था में था, तब वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाश-मंडल की यात्रा का अध्ययन कीजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगी। एक कहावत है- ‘स्वर्ग क्या है, अपनी मेहनत से रची गई सृष्टि। नरक क्या है? अपने आप बन गई दुरवस्था।’ आशय यह है कि स्वर्गीय सुखों को पाने के लिए तथा विकास करने के लिए मेहनत अनिवार्य है। इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो,
सफलता वर-तुल्य वरो, उठो,
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,
न उसमें यश है, न प्रताप है।।
केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। कार्यालय में बैठे हुए प्राचार्य, लिपिक या मैनेजर केवल लेखनी चलाकर या परामर्श देकर भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गांधी दिन-भर सलाह-मशविरे में लगे रहते थे, परंतु वे घोर परिश्रमी थे।
पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती आदमी का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे, मेहनत करने से गहरा आनंद मिलता है। उससे मन में यह शांति होती है कि मैं निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है-जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुख आ जाएँ तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरंत काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शांति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।
राबर्ट कोलियार कहते हैं- ‘मनुष्य का सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अँगुलियाँ हैं।’ अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौंदर्य है।
19. साक्षरता से देश प्रगति करेगा अथवा साक्षरता आंदोलन
साक्षरता का तात्पर्य है-अक्षर-ज्ञान का होना। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का पढ़ने-लिखने में समर्थ होना साक्षर होना कहलाता है। इस बात में कोई दो मत नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अक्षर-ज्ञान होना चाहिए। अक्षर-ज्ञान व्यक्ति के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना कि अँधेरे कमरे के लिए प्रकाश; या अंधे के लिए आँखें।
वर्तमान सभ्यता काफी उन्नत हो चुकी है। इस उन्नति का एक मूलभूत आधार है- शिक्षा। शिक्षा के बिना प्रगति का पहिया एक इंच भी नहीं सरक सकता। यदि शिक्षा प्राप्त करनी है तो अक्षर-ज्ञान अनिवार्य है। आज की समूची शिक्षा अक्षर-ज्ञान पर आधारित है। भारतीय मनीषियों ने तो अक्षर को ‘ब्रह्म’ माना है। आज ज्ञान-विज्ञान ने जितनी उन्नति की है, उसका लेखा-जोखा हमारे स्वर्णिम ग्रंथों में सुरक्षित है। अतः उस ज्ञान को पाने के लिए साक्षर होना पड़ेगा।
निरक्षर व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ जाता है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर निर्भर बना रहता है। उसे पत्र पढ़ने, बस-रेलगाड़ी की सूचनाएँ पढ़ने के लिए भी लोगों का मुँह ताकना पड़ता है। परिणमास्वरूप उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है। यहाँ तक कि वह समाचार-पत्र पढ़कर दैनंदिन गतिविधियों को भी नहीं जान पाता। इस प्रकार वह विश्व की प्रगतिशील धारा से कट कर रह जाता है। रोज-रोज होने वाले नये आविष्कार उसके लिए बेमानी हो जाते हैं।
दुर्भाग्य से भारत में निरक्षरता का अंधकार बहुत अधिक छाया हुआ है। अभी यहाँ करोड़ों लोग वर्तमान सभ्यता से एकदम अनजान हैं। ईश्वर ने उन्हें जो-जो शक्तियाँ प्रदान की हैं, वे भी सोई पड़ी हैं। अगरबत्ती की सुगंध की भाँति उनकी प्रतिभा उन्हीं में खोई पड़ी है। अगर ज्ञान की लौ लग जाए, साक्षरता का दीप जल जाए तो समूचा हिंदुस्तान उनकी सुगंध से महमह कर उठेगा। तब हमारे वनवासी बंधु, जो अज्ञान के कारण अपनी वन-संपदा के महत्त्व को नहीं जानते, उसके महत्त्व को जानेंगे; अपनी वन-भूमि का चहुंमुखी विकास करेंगे। परिणामस्वरूप नये उद्योग-धंधों से भारतवर्ष तो फलेगा-फूलेगा ही; उनके सूखे चेहरों पर भी रंगत आएगी। अतः साक्षरता आज का युगधर्म है। उसे प्रथम महत्त्व देकर अपनाना चाहिए।
20. विज्ञान-वरदान या अभिशाप
विज्ञान एक शक्ति है, जो नित नये आविष्कार करती है। वह शक्ति न तो अच्छी है, न बुरी, वह तो केवल शक्ति है। अगर हम उस शक्ति से मानव-कल्याण के कार्य करें तो वह ‘वरदान’ प्रतीत होती है। अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह ‘अभिशाप’ लगने लगती है।
विज्ञान ने अंधों को आँखें दी हैं, बहरों को सुनने की ताकत। लाइलाज रोगों की रोकथाम की है तथा अकाल मृत्यु पर विजय पाई है। विज्ञान की सहायता से यह युग बटन-युग बन गया है। बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिये हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कहीं शीत-उष्ण वायु के झोंके सुख पहुँचाने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान आदि ने स्थान की दूरी को बाँध दिया है। टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत करके उसे वास्तव में कुटुंब बना लेते हैं। हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आकाश की ऊँचाइयाँ भी। हमारे टी.वी., रेडियो, वीडियो में सभी मनोरंजन के साधन कैद हैं। सचमुच विज्ञान ‘वरदान’ ही तो है।।
मनुष्य ने जहाँ विज्ञान से सुख के साधन जुटाए हैं, वहाँ दुःख के अंबार भी खड़े कर लिए हैं। विज्ञान के द्वारा हमने अणुबम, परमाणु बम तथा अन्य ध्वंसकारी शस्त्र-अस्त्रों का निर्माण कर लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री इकट्ठी को चुकी है कि उससे सारी पृथ्वी को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फैल गई है। नित्य नये असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं, जो वैज्ञानिक साधनों के अंधाधुंध प्रयोग करने के दुष्परिणाम हैं।
वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव-मन पर हुआ है। पहले जो मानव निष्कपट था, निःस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था, अब वह छली, स्वार्थी, चालाक, भौतिकवादी तथा तनावग्रस्त हो गया है। उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गई है। नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं। जीवन में संघर्ष-ही-संघर्ष रह गए हैं। कविवर जगदीश गुप्त के शब्दों में-
संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।
वास्तव में विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है। जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं; जैसे चाकू से हम फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी की हत्या भी कर सकते हैं; उसी प्रकार विज्ञान से हम सुख के साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं। अतः विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में है। इस संदर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए–
‘विज्ञान अच्छा सेवक है लेकिन बुरा हथियार।’