MP Board Class 10th Special Hindi निबन्ध-लेखन

MP Board Class 10th Special Hindi निबन्ध-लेखन

निबन्ध-रचना विषयक महत्त्वपूर्ण बातें-

  1. जो निबन्ध परीक्षा में पूछा गया हो, उस पर चिन्तन-मनन करके ही लेखनी चलानी चाहिए।
  2. निबन्ध में यत्र-तत्र कविता,सूक्ति तथा विद्वानों के उद्धरण प्रस्तुत करना परमावश्यक है। इससे निबन्ध के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।
  3. प्रस्तावना तथा उपसंहार का प्रभावोत्पादक एवं रोचक होना नितान्त आवश्यक है।
  4. निबन्ध में विचार-श्रृंखला क्रमबद्ध होनी चाहिए।
  5. विस्तार के लोभ का संवरण करना चाहिए। एक सुव्यवस्थित ढंग से लिखा गया निबन्ध ही आदर्श होता है।
  6. विषय से सम्बन्धित सामग्री सँजोकर ही निबन्ध लिखना चाहिए।
  7. पत्र-पत्रिकाओं तथा ग्रन्थों में से नवीन विचारों को एकत्र करना चाहिए।
  8. समग्र विषय को पैराग्राफों (अनुच्छेदों) में विभक्त कर लेना चाहिए।
  9. भाषा शुद्ध तथा शैली आकर्षक एवं लेख सुन्दर होना चाहिए।
  10. विराम-चिह्नों का यथा-स्थान समुचित प्रयोग करना चाहिए।

1. विज्ञान के बढ़ते चरण [2016]
अथवा
विज्ञान अभिशाप अथवा वरदान
अथवा
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी [2011, 17]
अथवा
विज्ञान और मानव [2012]
अथवा
विज्ञान का जीवन पर प्रभाव [2015]
अथवा
विज्ञान की देन [2018]

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एमसन नामक विद्वान के शब्दों में-
“आज हम विज्ञान के युग में रह रहे हैं और विज्ञान के बिना मानव के अस्तित्व की कल्पना असम्भव प्रतीत होती है।”

“दर तारों से किया सम्पर्क हमने।
पर पड़ोसी से न हम हँस-बोल पाये।
सरल जीवन से रहा न वास्ता
दुश्वारियों को दौड़कर हम मोल लाए॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • विज्ञान वरदान के रूप में,
  • विज्ञान अभिशाप के रूप में,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है। चहुंओर विज्ञान की दुन्दभी बज रही है। मानव-जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई भी पहलू नहीं है,जहाँ विज्ञान का प्रवेश न हो। यह विज्ञान की प्रगति विगत् दो सौ वर्षों में हुई है। पुरातन काल में भी वैज्ञानिक उपलब्धियों का उल्लेख है, परन्तु इस सन्दर्भ में अभी तक प्रामाणिक जानकारी नहीं है।

विज्ञान के क्षेत्र में नित्य नवीन आविष्कार हो रहे हैं। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप दुनिया का मानचित्र ही बदल गया है। आज मानव ने प्रकृति को अपनी क्रीत दासी बना लिया है। वह समय अतीत के गर्भ में विलीन हो गया जब मानव दुनिया की हर वस्तु को अचम्भे भरी दृष्टि से निहारकर उसकी उपासना किया करता था। आज वे ही सम्पूर्ण वस्तुएँ उसके जीवन में पानी में नमक की भाँति घुल-मिल गई हैं।

विज्ञान वरदान के रूप में विज्ञान ने मानव जीवन को सुखी तथा सम्पन्न बना दिया है।

उदाहरणार्थ-
चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान एक वरदान है। एक्स-रे द्वारा आन्तरिक फोटो लिया जाता है। इससे घातक बीमारियों का आसानी से पता लगाया जा सकता है। टी.बी. की बीमारी को अतीत की बात बना दिया है। कैंसर पर भी नित नये शोध चल रहे हैं। अब मानव की आयु में भी औसतन वृद्धि हुई है। आपरेशन के द्वारा न जाने कितने इन्सानों को नई जिन्दगी जीने का मौका मिला है।

उद्योग एवं विज्ञान-प्राचीनकाल में जिन कार्यों को सौ आदमी सम्पन्न कर पाते थे, आज विज्ञान द्वारा आविष्कृत मशीनों के माध्यम से उन्हें एक व्यक्ति ही पूरा कर लेता है। मशीनों से उत्पादन की क्षमता कई गुनी बढ़ गई है।

आवागमन के क्षेत्र में विज्ञान ने आवागमन के साधनों को भी सुलभ बना दिया है। प्राचीनकाल में यात्राएँ कष्ट तथा भय का प्रतीक थीं लेकिन आज,रेल,मोटर तथा वायुयानों द्वारा मनुष्य दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक आसानी से पहुँच सकता है।

खाद्यान्न एवं विज्ञान-खाद्यान्न के क्षेत्र में भी विज्ञान ने अभूतपूर्व क्रान्ति-सी उपस्थित कर दी है। अब किसानों को वर्षा-ऋतु पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। ट्यूबवैल खेतों को हरा-भरा कर रहे हैं। वैज्ञानिक खाद तथा बीजों से कई गुना अन्न उत्पादन किया जा रहा है। ट्रैक्टर खेतों को जोतने में प्रयुक्त हो रहे हैं। रासायनिक खाद उत्पादन में बहुत सहायक है। कीटनाशक दवाएँ फसलों को नष्ट होने से बचा रही हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान कम्प्यूटर द्वारा आज शिक्षा दी जा रही है। इससे अनेक स्थानों पर एक ही समय में आसानी से शिक्षा दी जा सकती है। चित्रपट पर प्रदर्शित प्राकृतिक दृश्य, राजनीतिक वार्ता तथा शैक्षणिक कार्यक्रम शिक्षा जगत में बहुत लाभदायी सिद्ध हो रहे हैं।

भवन निर्माण के क्षेत्र में बहुमंजिली इमारतें आज विज्ञान के बल पर ही बन रही हैं। बुलडोजर, क्रेन एवं खनन यन्त्र इस क्षेत्र में बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं।

संचार के क्षेत्र में संचार क्षेत्र में भी विज्ञान की अभूतपूर्व देन है। टेलीविजन, टेलीफोन तथा टेलीग्राम इस क्षेत्र में विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं।

कपड़ों के क्षेत्र में आज के मानव का पुराने वस्त्रों से मोह भंग हो चुका है। अब वह रेशमी तथा ऊनी वस्त्रों के स्थान पर टेरालीन,टेरीवूल तथा नायलॉन के वस्त्र धारण करने में गौरव का अनुभव कर रहा है। वस्त्र निर्माण के लिए मिलें स्थापित हैं। सिलाई के लिए मशीनें आविष्कृत हैं।

मनोरंजन के क्षेत्र में विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में टेलीविजन, रेडियो, चलचित्र एवं ग्रामोफोन आदि साधन प्रदान किये हैं।

विज्ञान अभिशाप के रूप में विज्ञान ने जहाँ मानव को अपरिमित सुख साधन जुटाये हैं, वहाँ उससे मानव को हानि भी पहुंची है। आज मानव विज्ञान के द्वारा आविष्कृत साधनों से लाभ उठाकर आलसी बन गया है। जिस काम को सौ मनुष्य करते थे, आज वैज्ञानिक मशीनों के माध्यम से एक आदमी पूरा कर लेता है। इस प्रकार विज्ञान ने एक आदमी को रोटी देकर निन्यानवे इन्सानों के पेट पर लात मार दी है। हाइड्रोजन बम तथा जहरीली गैसें मानव को मौत की गोद में सलाने के लिए आतर हैं।

आज वैज्ञानिक आविष्कारों की विनाशलीला की गाथा जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी नगरों के खण्डहर दुहरा रहे हैं। विज्ञान के बसन्त के पीछे पतझड़ की काली छाया भी मँडरा रही है। आज मानव विलासी हो गया है। विज्ञान ने वातावरण को प्रदूषण युक्त कर दिया है। वायुयान, मोटर तथा स्कूटर उसे बहरा बना रहे हैं। कारखानों से निकलने वाला गंदा जल पानी को विषैला बना रहा है। आज इन्सान की जिन्दगी बहुत ही सस्ती हो गई है।

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उपसंहार-परन्तु एक बात ध्यान देने योग्य है कि विज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। वह मानव के हाथ में आकर शक्ति प्राप्त करता है। अब यह मानव पर निर्भर करता है कि वह विज्ञान का दुरुपयोग करे अथवा सदुपयोग। विष डॉक्टर के हाथ में पहुँचकर जीवनदायक बनता है। हत्यारे के हाथ में पहुँचकर जानलेवा बनता है। यही बात विज्ञान पर लागू होती है। महत्त्वाकांक्षी तथा नरपिशाच उस विज्ञान का दुरुपयोग करते हैं। मानवतावादी उससे जन-जीवन को उल्लासमय बनाते हैं। हमें अपनी महत्त्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। विज्ञान को स्वामी न मानकर दास मानना होगा तभी मानव विश्व सुख तथा आनन्द के झूले में बैठकर अपरिमित सुख तथा शान्ति का अनुभव करेगा-

“विध्वंस की सोचे नहीं निर्माण की गति और दें
विज्ञान के उत्पाद से सुख स्वयं लें, औरों को दें।”

2. वन-महोत्सव
अथवा
वन संरक्षण [2016]
अथवा
वृक्षारोपण एवं मानव [2013]

यदि वृक्ष हैं तो जीवन है, जीवन है तो इन्सान है।
आने वाली सन्तति की, वृक्षों से ही पहचान है।।

“वृक्ष मानव के लगभग सबसे अधिक विश्वस्त मित्र हैं और जो देश अपने भविष्य को सँवारना सुधारना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अपने वनों का अच्छी प्रकार ध्यान रखे।”

-इन्दिरा गाँधी

रूपरेखा [2015, 17, 18]-

  • प्रस्तावना,
  • भारतीय संस्कृति एवं वन,
  • वनों के विनाश का दुष्परिणाम,
  • वृक्षों से लाभ,
  • वन संरक्षण की जरूरत,
  • वन-महोत्सव आयोजन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-भारत प्रकृति का पालना है। यहाँ के हरे-भरे वृक्ष धरती की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। दुर्भाग्यवश आज के वातावरण में लाभ अर्जित करने तथा भवन निर्माण करने के नाम तथा अतिवृष्टि वनों के संरक्षण से ही रुक सकती है। वन नदियों को सीमा में बाँधे रहते हैं। जंगली जीव-जन्तुओं तथा पक्षियों को अभयदान देकर मातृवत् पालन-पोषण करते हैं। अपनी हरियाली से मानव मन को भी हरा-भरा तथा प्रफुल्लित करते हैं।

वन-महोत्सव आयोजन-वृक्षों की इसी उपादेयता को देखकर वन-महोत्सव कार्यक्रम आयोजित किया गया। सन् 1950 में अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने का आयोजन प्रारम्भ किया गया। जनता इसमें अधिक-से-अधिक सहभागी बने, इस उद्देश्य से इसका नाम वन-महोत्सव निर्धारित किया गया। वन-महोत्सव जुलाई मास में सम्पन्न किया जाता है। इसके पीछे यही भावना जुड़ी है कि इन्सान वृक्षों की महत्ता से परिचित होकर उनका अधिक-से-अधिक रोपण करे। साथ ही जन-मानस इतना जाग्रत हो जाय कि वह वृक्षों की अपने पुत्रवत् देखभाल करे।

महाभारत में तो वृक्षों को जीवन नाम से सम्बोधित किया गया है। मानव जीवन के समस्त सुख वनों में ही निहित हैं। इसी भावना से ही प्रेरित होकर मनीषी वनों की कन्दराओं तथा गुफाओं में जाकर तप करते थे।

आज हमारी राष्ट्रीय सरकार भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठा रही है। समस्त देश में वृक्षारोपण का कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है।

उपसंहार-यह बात अपने स्थान पर सही है कि वन-महोत्सव के फलस्वरूप वृक्ष लगाने के सम्बन्ध में लोगों के मन-मानस में नई चेतना का संचार हुआ है, परन्तु अभी हमें इस आयोजन पर विराम नहीं लगाना है। वन-महोत्सव के द्वारा अभी जितने वृक्ष लगाये गये हैं, वे भारत के विशाल भू-भाग को देखते हुए अपेक्षाकृत कम हैं। अभी इस दिशा में निरन्तर प्रयास की महती आवश्यकता है। वृक्ष हमसे कुछ चाहते नहीं हैं। वह प्रतिपल हमें छाया, फल, पुष्प प्रदान कर जीवन में सरसता तथा आनन्द का संचार करते हैं। हमें उनका आभारी होना चाहिए। वृक्षों से परोपकार की शिक्षा ग्रहण करके उसे स्वयं के जीवन में उतारना चाहिए। इसी में हमारा तथा जन-सामान्य का कल्याण निहित है

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“धुंध प्रदूषण की छायी है, उसको दूर भगाओ।
पर्यावरण शुद्ध करने को दस-दस वृक्ष लगाओ।”

3. जीवन में खेलों का महत्त्व [2009, 12, 15, 17, 18]
अथवा
खेल : जीवन के लिए आवश्यक [2016]

“खेल जीवन खेल उसमें जीत जाना चाहता हूँ।
मीत मैं तो सिन्धु के उस पार जाना चाहता हूँ॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • व्यस्त जीवन एवं खेल,
  • मन तथा दिमाग पर खेल का प्रभाव,
  • खेलों की महत्ता,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-जीवन संघर्षमय है, इस संघर्ष में उसको ही मुक्ति मिल सकती है, जो सक्षम एवं सशक्त हो। सशक्त, पुष्ट तथा बलवान बनने का एकमात्र साधन खेल ही है। खेलों से रक्त परिभ्रमण उचित मात्रा में होता है। शरीर में स्फूर्ति जाग्रत होती है। अतः शरीर एवं मस्तिष्क के विकास के लिए खेल नितान्त आवश्यक है।

व्यस्त जीवन एवं खेल-आज मानव का जीवन इतना व्यस्त है कि वह सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहता है। रोजी-रोटी की समस्या उसे प्रतिपल विकल बनाये रहती है। वह इसी उधेड़-बुन में रात-दिन घुलता रहता है। चिन्ता तथा आवश्यकता से अधिक श्रम उसे कमजोर बना देता है। ऐसी दशा में पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार का खेल अथवा व्यायाम अपेक्षित है।

पर इन हरे-भरे वृक्षों को निर्दयतापूर्वक काटा जा रहा है। इन सभी बातों को दृष्टि में रखकर वृक्षारोपण कार्यक्रम या वन-महोत्सव चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य धरती की हरियाली को पुनः लौटाना है। वृक्षों के लाभ अनगिनत हैं। ये धरती की शोभा हैं। वृक्ष मानव के चिर सहचर हैं। देवताओं के निवास-स्थल हैं तथा प्राणवायु के दाता हैं।

भारतीय संस्कृति एवं वन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता वनों से गहरे रूप में जुड़ी हुई है। हमारे ऋषियों.दार्शनिकों तथा चिन्तकों ने शहर एवं ग्रामों के कोलाहल से दर जाकर वनों की गोद में ही अनेक अमूल्य जीवन नियमों की खोज की। ज्ञान-विज्ञान के नये सिद्धान्त खोजे। सरिताओं के किनारे बैठकर तपस्या की। वेद-मन्त्रों से वातावरण को गुंजित एवं मुखरित किया। तत्कालिक युग में शिक्षा के केन्द्र गुरुकुल विद्यालय वनों की गोद में ही स्थित थे। वृक्षों की छाया के नीचे बैठकर लोग एक अनिर्वचनीय शान्ति का अनुभव करते थे। वृक्ष हमें मूक रूप में परोपकार का पाठ पढ़ाते हैं। उत्सर्ग की शिक्षा देते हैं। नैतिक शिक्षा के रूप में आशा एवं धीरज का पाठ पढ़ाते हैं।

वनों के विनाश का दुष्परिणाम-आज जनसंख्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही है। मानवों को आवास की सुविधा प्रदान करने के लिए वनों को बेरहमी से उजाड़ा जा रहा है। कलकारखानों को बनाने.रेल-मार्गों को बनाने के लिए जगह की जरूरत पडी। इसको पूरा करने के लिए वनों पर ही कुठाराघात हुआ। कल-कारखानों को कच्चे माल की आपूर्ति के लिए भी वन-सम्पदा का बुरी तरह से विनाश किया गया।

वृक्षों के काटने से भूमि का कटाव बढ़ रहा है। वर्षा भी समय पर नहीं हो रही है। रेगिस्तानों में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी अवलोकनीय है। जलवायु भी गर्म तथा पीड़ादायक हो गई है। धरती की उपजाऊ शक्ति में ह्रास हुआ है। भूकम्प आये दिन आते रहते हैं। गर्मी के प्रकोप से मानव का जीना भी दूभर हो गया है।

वृक्षों से लाभ-

  • वृक्ष हरियाली के भण्डार हैं। धरती की शोभा हैं।
  • स्वास्थ्य-वर्द्धक फल प्रदान करते हैं।
  • गोंद, कत्था, सुपाड़ी,नारियल तथा अन्य जीवनोपयोगी सामग्री प्रदान करते हैं।
  • वर्षा को नियन्त्रित करते हैं।
  • उद्योगों के हेतु कच्चा माल वृक्षों से ही प्राप्त होता है।
  • धरती को उपजाऊ बनाते हैं।
  • उपासना के लिए फल तथा फूल देते हैं।
  • भवन-निर्माण की लकड़ी प्रदान करते हैं।
  • वायुमण्डल को संतुलित करते हैं।
  • पशुओं को चारा प्रदान करते हैं।
  • भूमि-कटाव को रोकते हैं।
  • शान्ति तथा मन बहलाने के साधन भी हैं।
  • आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं।
  • देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने वाले हैं।
  • हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर को सहेज कर रखने वाले हैं।
  • प्राणियों के लिए शुद्ध वायु देते हैं।
  • औषधियों के स्रोत हैं।

वन संरक्षण की जरूरत-आज प्राकृतिक, दैवीय एवं अन्य संकटों से बचने के लिए वन-संरक्षण की महती आवश्यकता है। वन संरक्षण से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। बाढ़,अकाल

मन तथा दिमाग पर खेल का प्रभाव-खेल का मन तथा दिमाग से घनिष्ठ सम्बन्ध है। खेल के मैदान में उतरने पर मन प्रसन्नता से भर उठता है। दिमाग सक्रिय तथा प्रभा सम्पन्न होता है। मानव यदि खेल के मैदान में नहीं उतरे तो वह दैनिक क्रियाकलापों को पूरा करने के पश्चात् प्रमाद में चारपाई पर पड़ा रहता है। जो इन्सान खेल के प्रति अरुचि रखता है, उसका जीवन उत्साह रहित हो जाता है। सुस्ती,प्रमाद तथा रोग उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। सच्चा खिलाडी खेल के मैदान से ही समता का पाठ पढ़ता है। वह गीता के इस दृष्टान्त को सच्चे अर्थों में प्रमाणित करता है कि मानव को सुख-दुःख और हार-जीत में एक-सा रहना चाहिए।

खेलों की महत्ता-खेल को केवल मन बहलाव का साधन-मात्र ठहराना कोरी मूर्खता है। खेल से मन बहलाव होने के साथ ही हमारे समय का भी अच्छा उपयोग होता है। अगर इन्सान खेल के मैदान में नहीं उतरे,तो वह व्यर्थ की गप-शप में ही अपने समय को नष्ट कर देता है।

खेल से मनुष्य की थकावट दूर हो जाती है। वह नई स्फूर्ति तथा शक्ति का स्वयं में अनुभव करने लगता है। खेल मानव की थकान को मिटाता है। खेल हमें सहयोग तथा मित्रता का पाठ पढ़ाते हैं। खेल के मैदान में उतरने पर हर टीम हार जीत के प्रश्न को लेकर ऐसी सहयोगी भावना से खेलती है कि देखते ही बनता है। यहाँ शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। आपस के बैर-भाव को भुलाकर ऐसी एकता का प्रदर्शन करते हैं,जो देखते ही बनती है।

खेल हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं। खेल के मैदान जैसा अनुशासन अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। जो खिलाड़ी खेल के नियमों की अवहेलना करते हैं, उन्हें खेल के मैदान से बाहर कर दिया जाता है। संगठन तथा एकता का विकास भी खेलों के माध्यम से होता है।

खिलाड़ी सबकी श्रद्धा तथा प्रेम का पात्र बनता है। जन-सामान्य उसे आदर की दृष्टि से निहारते हैं। जब वह बाहर निकलता है तो लोग उसे निहार कर गर्व का अनुभव करते हैं। खिलाड़ी हमारे देश का नाम विदेशों में रोशन करते हैं।

खेल इन्सान की रोजी-रोटी में भी सहायक हैं। जब छात्र अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता है, तो वह नौकरी की तलाश करता है। साक्षात्कार के समय अच्छे खिलाड़ी को खेल की वजह से ही अच्छे अंक मिल जाते हैं। उससे उसका चयनित होना अनिवार्य हो जाता है।

खिलाड़ी प्रतिपल चुस्ती तथा स्फूर्ति का अनुभव करता है। वह प्रत्येक कार्य को चाहे वह शरीर से सम्बन्धित हो अथवा मस्तिष्क से,उसे तुरन्त पूरा कर लेता है। निराशा उसके पास नहीं फटकती। उदासीनता उससे कोसों दूर रहती है।

उपसंहार-हर्ष का विषय है कि आज हमारी राष्ट्रीय सरकार खिलाड़ियों को विविध प्रकार की सुविधाएँ देकर उनके उत्साह को बढ़ावा दे रही है। सरकारी नौकरियों में उन्हें वरीयता प्रदान की जा रही है।

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हमारी जिन्दगी शरीर पर निर्भर है। शरीर समाप्त हुआ तो जिन्दगी बीत गई। स्वस्थ शरीर हमारे जीवन की आधारशिला है। जीवन का रस अच्छे स्वास्थ्य में निहित है। शरीर नहीं होगा तो अन्य कार्य कैसे सम्पन्न होंगे ? हमारे ऋषियों का कहना था कि “जीवेम् शरदः शतम्” अर्थात् हम सौ साल तक जीवित रहें। यह तभी सम्भव है,जब शरीर वेगमय तथा गतिशील हो। खेल इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। अत: वीर,पुष्ट,प्रसन्न तथा स्वस्थ बनने के लिए खेल परमावश्यक है। कहा भी गया है मृतप्राय जीवन में संजीवन फँकते प्राणों की जो तमिस्र के गर्त से खींच ज्योति भर दे हृदय में जो वो खेल जीवन को नया आयाम देते हैं। वो खेल जीवन में नया उत्साह भरते हैं।

4. जल मानव जीवन के प्राणों का आधार है [2009]
अथवा
जल ही जीवन है [2009]
अथवा
बिन पानी सब सून [2013]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • जल के विभिन्न कार्य,
  • जल के प्रमुख स्रोत,
  • उपसंहार॥

प्रस्तावना प्रत्येक जीवधारी के जीवन के लिए जल एवं वायु आवश्यक हैं। जल ही मानव के जीवन का प्रमुख आधार है। जल के बिना मानव जीवन की कल्पना असम्भव है। अतः जल के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए रहीम कवि ने उचित ही कहा है

“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून ॥”

जल के विभिन्न कार्य-जैसा कि पूर्व में कहा गया है जल ही जीवन का आधार है। जीवन के लिए आवश्यक रोटी भी है। इसके लिए उत्तम फसल का होना लाभदायक है। जल के बिना उत्तम खेती व खुशहाली असम्भव है। वास्तव में,जल ही ऐसा प्रमुख स्रोत है जिसके द्वारा उत्तम खेती हो सकती है।

यदि समय पर वर्षा होगी तो जुताई, बुवाई भी समय से हो जायेगी। यदि वर्षा न हो तो पेड़-पौधे नष्ट हो जायेंगे। अतः वर्षा का समय से होना शुभ संकेत है। किसानों को तो बादलों को देखकर ही अनुमान हो जाता है कि वर्षा किस समय होगी।

यदि पृथ्वी पर जलाभाव हो जाये तो अकाल व सूखा पड़ जायेगा। हजारों लाखों लोग काल के मुख में समा जायेंगे।

जिस प्रकार मानव के लिए जल आवश्यक है, उसी प्रकार पशु-पक्षी व जलीय जन्तुओं के लिए भी जल आवश्यक है। जल के अभाव में इन प्राणियों का जीवन भी असम्भव है।

जल के प्रमुख स्रोत-जल का सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक स्रोत वर्षा है लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में मानव ने जल प्राप्ति के कृत्रिम स्रोतों की खोज कर ली है। इसीलिए उसने नहर एवं बाँधों का निर्माण किया है।

जल के अन्य स्रोत कुएँ,तालाब व झरने हैं। इसके अतिरिक्त जल संचय करने हेतु मानव ने एक नवीन विधि का आविष्कार किया है। इस विधि में बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर जल संचय किया जाने लगा है। इससे जल की कमी को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है।

उपसंहार-जल ही जीवन का आधार है लेकिन खेद का विषय है कि जल का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जल के स्तर में भी निरन्तर कमी होती जा रही है। मानवता को खुशहाल रखने के लिए जल आवश्यक है। इसके लिए जल के देवता इन्द्र को प्रसन्न करना पड़ेगा। वास्तव में, जल ही प्राणदायिनी शक्ति है।

5. राष्ट्रीय एकता और अखण्डता [2009, 10, 14]
अथवा
भारत की राष्ट्रीय एकता
अथवा
राष्ट्रीय एकता [2012]

“क्या बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा ॥”

रूपरेखा [2017, 18]-

  • प्रस्तावना,
  • राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य,
  • राष्ट्रीय एकता की जरूरत,
  • देश की वर्तमान स्थिति,
  • राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाले तत्त्व,
  • राष्ट्रीय एकता तथा हमारा उत्तरदायित्व,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-राष्ट्रीय एकता का गम्भीर प्रश्न आज देश के समक्ष चुनौती के रूप में उपस्थित है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इस देश की धरती पर विभिन्न धर्म,जाति,सम्प्रदाय तथा वर्ग के लोग निवास करते हैं। भिन्नता होने पर यदा-कदा संघर्षों का भी सूत्रपात हो जाता है। एकता के स्थान पर भेद-भाव पनप जाता है। इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो गया है।

देश को आजाद करने में न जाने कितने लोग शहीद हुए। अनेक लोगों ने कारागार की कठोर यातनाओं को सहर्ष स्वीकार किया। गोली,डण्डे तथा लाठियों के प्रहार को सहन किया। आज इसी स्वतन्त्र भारत के वायुमण्डल में विद्रोह तथा हिंसा के स्वर गूंज रहे हैं। मानवता पर दानवता हावी है।

राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य राष्ट्र एवं उसके स्वरूप के प्रति निष्ठा एवं श्रद्धा का भाव राष्ट्रीयता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। राष्ट्र की रक्षा का भाव राष्ट्रीय एकता का सूचक है। विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदाय के लोगों में भाषा, धर्म तथा जाति के आधार पर भेद पाये जाते हैं। आचार-विचार तथा खान-पान में भी भिन्नता होती है। इस अनेकता के मध्य एकता का पाया जाना ही राष्ट्रीय एकता है। विचारों में सामंजस्य तथा राजनीतिक एकता, राष्ट्रीय एकता का प्रतिरूप है। समस्त देश की राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक तथा सामाजिक एकता ही राष्ट्रीय एकता का प्रतिरूप है।

राष्ट्रीय एकता की जरूरत-देश की बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता अति जरूरी है। यदि हमने देश को जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का प्रयास किया तो इसका लाभ शत्रु-पक्ष उठायेगा। आज भारतवर्ष की उन्नति को पड़ोसी देश फूटी आँख भी नहीं देखना चाहते। हमें उन तथ्यों का सावधानीपूर्वक पता लगाना है जो कि राष्ट्रीय एकता के मार्ग में रोड़ा बनकर खड़े हुए हैं। बिना तथ्यों की खोज के प्रयास करना बालू में तेल निकालने के समान व्यर्थ सिद्ध होगा। राष्ट्र के हित में सम्पूर्ण देश का हित है। देश के प्रति समर्पण भाव ही राष्ट्रीय एकता को मजबूत करता है। राष्ट्र पर किसी एक जाति, धर्म,वर्ग तथा सम्प्रदाय की बपौती नहीं है। राष्ट्र पर सबका समानाधिकार है।

देश की वर्तमान स्थिति आज भारत देश अनेक परिस्थितियों के जाल में फंसा हुआ है। सम्प्रदाय, धर्म एवं जाति को लेकर संकुचित मनोवृत्ति वाले घृणित अलगाववादी भावना का विषैला बीज बो रहे हैं। आन्दोलन, तोड़-फोड़ तथा हड़ताल राष्ट्र की एकता के तार को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारत परतन्त्रता के पाश में भी अलगाववादी भावना के कारण ही बँधा।

राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाले तत्त्व-आज आजादी प्राप्त करने के पश्चात् भारत एक प्रभुता-सम्पन्न गणराज्य है। यदि हम राष्ट्रीय एकता के सन्दर्भ में भारत पर दृष्टिपात करें तो इसे एक कमजोर राष्ट्र ही समझा जायेगा।

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आज भारत भूमि पर अनेक प्रकार की ऐसी शक्तियाँ विद्यमान हैं, जो इसकी एकता के तारों को छिन्न-भिन्न करने के लिए सक्रिय हैं।

क्षेत्रीयता, भाषा, धार्मिक उन्माद तथा साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता में सेंध लगाने वाले तत्त्व हैं। इनमें सबसे बुरा तत्त्व साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता मानव मन में फूट के विषैले बीजों का वमन करती है। मित्रों के मध्य द्वेष तथा जलन पैदा करती है। भाई से भाई को सदा के लिए विलग कर देती है।

भाषागत विवाद भी देश की एकता के लिए एक समस्या है। भारत में अनेक प्रान्त हैं। उन प्रान्तों की अलग-अलग बोलियाँ हैं। अपनी भाषा के मोह में दूसरी भाषा का निरादर किया जाता है।

प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के पथ में रोड़ा बनी हुई है। आज अलग-अलग अँचल में निवास करने वाले लोग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की माँग दुहरा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एकता किस प्रकार स्थापित की जा सकती है।

सुमित्रानन्दन पन्त की एक पंक्ति राष्ट्रीय एकता के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त है, देखिए-

“राजनीति और अर्थशास्त्र के बिना भले ही जी लें,
जन-राष्ट्रीय ऐक्य के बिना असम्भव।”

राष्ट्रीय एकता तथा हमारा उत्तरदायित्व-राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने के लिए आज देश के प्रत्येक नागरिक का पावन कर्त्तव्य है। आज देश के लेखक, कवि, दार्शनिक सभी देश की एकता को बनाये रखने के लिए प्रयासरत् हैं। सभी समझदार चाहते हैं कि राष्ट्रीय एकता खंडित न हो। देश में प्रेम तथा सौहार्द्र का वातावरण बने। भेद तथा अलगाव की लौह दीवारें धराशायी हों। ईर्ष्या,द्वेष तथा तनाव का अन्त हो, परन्तु दुःख का विषय यह है कि विद्वेष की ज्वाला आज भी देश में अनेक स्थानों पर यदा-कदा भड़क उठती है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है

“मर्ज बढ़ता गया,ज्यों ज्यों दवा की” समय-समय पर जो अनहोनी घटनाएँ घट जाती हैं, उससे यह सिद्ध होता है कि हम अभी विघटनकारी तत्त्वों को पूरी तरह से कुचल नहीं पाये हैं। यह कार्य सरकार अथवा राष्ट्रीय नेताओं के बल पर पूरा नहीं किया जा सकता है। इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को कमर कसकर मैदान में उतरना होगा।

राष्ट्र की सेवा एवं एकता के लिए हमें प्रतिपल तत्पर रहना चाहिए। इकबाल के शब्दों में-

“पत्थरों की मूरतों ने समझा है तू खुदा है।
खाके वतन का मुझको हर जर्रा देखता है।”

उपसंहार-राष्ट्रीय एकता का सामूहिक प्रयास ही फलदायी सिद्ध हो सकता है। साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी वर्ग,समाज-सेवी तथा देश-प्रेमी प्रत्येक व्यक्ति को इसके लिए जी-जान से कोशिश करनी पड़ेगी। परिवार तथा नारियों की भी इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। बालकों के मन-मानस से बचपन से ही बन्धुत्व की भावना का बीजारोपण करना परमावश्यक है। सभी परम-पिता की संतान हैं। आबाल वृद्ध सबको ही राष्ट्रीय एकता के तार को दृढ़ बनाने में अपना योगदान देना चाहिए, तभी राष्ट्र में एकता के स्वर गुंजित होंगे। सभी नागरिक प्रेम तथा बन्धुत्व के सम सूत्र में आबद्ध होकर सुख तथा शान्ति का अनुभव करेंगे।

(6) स्वच्छ भारत अभियान
अथवा
स्वच्छ भारत, श्रेष्ठ भारत

“स्वच्छ भारत का यह अभियान,
आज करता सबका आह्वान।
देश हित उठो सफाई करो,
बढ़ाओ जग में निज सम्मान॥”

रूपरेखा [2018]-

  • प्रस्तावना,
  • स्वच्छ भारत का स्वप्न,
  • स्वच्छ भारत अभियान का प्रारम्भ,
  • गन्दगी के दुष्परिणाम,
  • स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार-प्रसार,
  • सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित,
  • शुभ परिणाम,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-सदाचारी, सहृदय, मृदुभाषी,स्पष्टवक्ता आदि की तरह ही सफाई पसन्द होना श्रेष्ठ मानव की विशेष पहचान है। स्वच्छ तन में निर्मल मन विकसित होता है। घर-बाहर का स्वच्छ परिवेश उल्लास,स्फूर्ति,कर्मण्यता को बढ़ाता है। जीवन मंगल मार्ग की ओर अग्रसर होता है। इसके विपरीत गन्दगी व फूहड़ परिवेश पतन के कारण बनते हैं। सफाई पसन्द व्यक्ति स्वयं के साथ-साथ अपने परिवेश को भी सुवासित करता है,वह सभी को अपनी ओर आकर्षित करता . है। स्वच्छता गुण की महिमा अकथनीय है।

स्वच्छ भारत का स्वप्न स्वच्छता के महत्त्व को ध्यान में रखकर ही महात्मा गाँधीजी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का आह्वान करने के साथ ही स्वच्छ भारत का स्वप्न संजोया था। वे भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने में तो सफल हो गये किन्तु स्वच्छ भारत का स्वप्न उनके लिए सपना ही बनकर रह गया।

स्वच्छ भारत अभियान का प्रारम्भ-भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गाँधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर, 2014 को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की उद्घोषणा की। उन्होंने स्वच्छता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए इसे अपनाने पर बल दिया। उन्होंने बताया कि स्वयं स्वच्छ रहने के साथ-साथ अन्य को सफाई के प्रति जागरूक करना हर भारतीय की नैतिक जिम्मेदारी है। सफाई के सन्दर्भ में भारत संसार के अनेक देशों से पिछड़ा हुआ है। कई देश ऐसे हैं जहाँ गन्दगी का नामोनिशान भी नहीं है, किन्तु भारत में गन्दगी का भयंकर प्रकोप है।

गन्दगी के दष्परिणाम-भारत के नगरों, महानगरों व गाँवों में भयंकर गन्दगी फैली है। नगरों में बजबजाती नालियाँ, उफनते सीवर,खुले नाले, गलियों, चौराहों पर कूड़े-करकट के ढेर, उन पर भिनभिनाते मक्खी-मच्छर सामान्य बात है। ऐसी स्थिति के मध्य भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा जीवनयापन करता है। इस गन्दगी के कारण विभिन्न बीमारियाँ फैलती हैं। बीमारी के कारण उनके काम-धन्धे रुक जाते हैं। इलाज का अतिरिक्त खर्च बढ़ जाता है। परिवार के सदस्यों पर संकट छा जाता है। गरीब और गरीब होता जाता है।

गाँवों की स्थिति और भी दयनीय है। वहाँ की अधिकांश आबादी खले में शौच के लिए जाती है। सर्वाधिक दुःखद बात यह है कि माँ-बहनें भी खुले में शौच को जाती हैं। गन्दगी के सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में गरीबी के कारण प्रत्येक व्यक्ति को 6,500 रुपये का नुकसान प्रतिवर्ष झेलना पड़ता है। इस कलंक को मिटाना आवश्यक है।

स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार-प्रसार–’स्वच्छ भारत अभियान’ को जन आन्दोलन का रूप देना होगा। यह राष्ट्र भक्ति से जुड़ा कार्य है जिसके प्रति प्रत्येक भारतवासी का समर्पण अपेक्षित है। किसी सरकार,संगठन, संस्था या व्यक्ति द्वारा यह कार्य पूरा नहीं किया जा सकता है। इसे सफल बनाने के लिए दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार, परिचर्चा आदि की आवश्यकता है। भारत की सवा सौ करोड़ आबादी को सफाई के प्रति जागरूक करना अनिवार्य है।

सभी वर्गों का सहयोग अपेक्षित स्वच्छता अभियान में जब तक सभी वर्गों का सहयोग नहीं मिलेगा। तब तक सफलता सम्भव नहीं है। इसमें प्रभावशाली नेताओं, अभिनेताओं, कलाकारों, खिलाड़ियों, उद्योगपतियों, समाज सेवियों का सक्रिय सहयोग अपेक्षित है। ये सभी अपने-अपने ढंग से स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा दे सकते हैं। ये चाहेंगे तो प्रत्येक भारतवासी अपनी जन्मभूमि को स्वच्छ रखने के प्रति सजग हो जायेगा। गाँव के स्तर पर प्रधान-सरपंच,नगर के स्तर पर नगर प्रमुख,महानगर के स्तर पर महापौर इस अभियान को सफल बनाने में मददगार होंगे। नगरों में सफाई व्यवस्था दुरुस्त की जाय। गाँवों में सफाई व्यवस्था के साथ-साथ शौचालयों का भी निर्माण कराया जाय। तभी सफाई को गति मिल सकेगी।

शुभ परिणाम–’स्वच्छ भारत अभियान’ की सफलता भारत के मंगलकारी भविष्य की निर्माता सिद्ध होगी। स्वच्छता रहेगी तो तन स्वस्थ होगा, मन उल्लसित रहेगा, कार्यकुशलता बढ़ेगी। इससे आय में वृद्धि होगी,तो गरीबी मिटेगी। बीमारियों पर होने वाला व्यय बचेगा तथा देश के निवासी स्वस्थ एवं स्वावलम्बी बनेंगे। भारत सतत् विकास पथ पर अग्रसर होगा।

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उपसंहार-महात्मा गाँधी के स्वच्छ भारत के स्वप्न को साकार करने में प्रत्येक भारतवासी को सहयोग करना चाहिए। उसे अपने घर एवं बाहर सफाई रखनी चाहिए तथा दूसरों को सफाई के प्रति प्रेरित करना चाहिए। यदि सभी स्वच्छता को अपनी आदत बना लेंगे तो भारत में गन्दगी का नामोनिशां नहीं होगा। फलस्वरूप भारत का सम्मान उत्तरोत्तर शिखर की ओर बढ़ता जायेगा।

7. जीवन में अनुशासन का महत्त्व
अथवा
अनुशासित छात्र जीवन [2009]
अथवा
विद्यार्थी एवं अनुशासन [2009, 13, 15]
अथवा
विद्यार्थी जीवन [2018]

“सूर्य, चन्द्रमा, तारे सारे प्रकृति से अनुशासित होते।
समय बद्ध हो चलते रहते,
कभी न पथ से विचलित होते ॥”

रूपरेखा [2016]-

  • प्रस्तावना,
  • अनुशासित जिन्दगी,
  • अनुशासन का महत्त्व,
  • अनुशासन के प्रकार,
  • अनुशासन का तात्पर्य,
  • अनुशासनहीनता के कारण,
  • विद्यार्थी एवं अनुशासन,
  • उपसंहार।।

“अनुशासन दो शब्दों अनु + शासन के योग से बना है। इसका तात्पर्य है-शासन के पीछे चलना या नियमानुकूल कार्य करना। इस प्रकार नियमों का पालन ही अनुशासन कहलाता है।” बिना अनुशासन के जीवन अटपटा एवं सारहीन है।

प्रस्तावना-समस्त सृष्टि नियमबद्ध तरीके से संचालित हो रही है। सूर्य एवं चन्द्र नियमित रूप से उदय होकर दुनिया को प्रकाश लुटाते हैं। जिस प्रकार प्रकृति के नियम हैं, उसी भाँति समाज, देश तथा धर्म की भी कुछ मर्यादाएँ होती हैं। कुछ नियम होते हैं, कुछ आदर्श निर्धारित होते हैं। इन आदर्शों के अनुरूप जीवन ढालना अनुशासन की परिधि में आता है।

अनुशासित जिन्दगी–वास्तव में अनुशासित जिन्दगी बहुत ही मनोहर तथा आकर्षक होती है। इससे जीवन दिन-प्रतिदिन प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता है। अनुशासन के पालन से जीवन में मान-मर्यादा मिलती है। जो जीवन अनुशासित नहीं होता, वह धिक्कार तथा तिरस्कार का पात्र बनता है।

अनुशासन का महत्त्व-अनुशासन का जीवन से गहरा लगाव है। जो समाज अथवा राष्ट्र अनुशासन में बँधा होता है,उसकी उन्नति अवश्यम्भावी है। दुनिया की कोई भी ताकत उसे बढ़ने से रोक नहीं पाती। यदि अनुशासन का उल्लंघन किया जाय तो राष्ट्र तथा समाज अधोगति गर्त में गिरता चला जाता है।

अनुशासन के प्रकार-अनुशासन के अनेक प्रकार हैं। नैतिक अनुशासन, सामाजिक अनुशासन तथा धार्मिक अनुशासन। अनुशासन बाह्य तथा आन्तरिक दो प्रकार का होता है। जब भय तथा डंडे के बल पर अनुशासन स्थापित किया जाता है, तो इस प्रकार के अनुशासन को बाहरी अनुशासन कहकर पुकारा जाता है। जब व्यक्ति अथवा बालक स्वेच्छा से प्रसन्न मन से नियमों का पालन करता है, तो इस प्रकार का अनुशासन आन्तरिक अनुशासन की श्रेणी में आता है।

अनुशासन का तात्पर्य-अनुशासन शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। पहला ‘अनु’ जिसका अर्थ है पीछे, दूसरा ‘शासन’ अर्थात् शासन के पीछे अनुगमन करना।

अनुशासनहीनता के कारण आज छात्र वर्ग में असंतोष तथा निराशा है। यही निराशा तथा असंतोष अनुशासनहीनता का जनक है। आज छात्र-वर्ग अनुशासन को भंग करने में अपनी शान समझता है।

इसका प्रमुख कारण यह है कि आज जीवन मूल्यों में निरन्तर गिरावट आ रही है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि छात्रों को अपना भविष्य अन्धकारमय नजर आता है। सिनेमा के अश्लील तथा संघर्षमय चित्र आग में घी का काम कर रहे हैं। वातावरण दूषित है। धन को ही सर्वस्व स्वीकारा जा रहा है। आज के नेता अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए छात्र-वर्ग को गुमराह कर रहे हैं। इन सब कारणों से अनुशासनहीनता पनपती जा रही है।

विद्यार्थी एवं अनुशासन-वैसे हर मानव के लिए अनुशासन का पालन करना आवश्यक है, लेकिन छात्रों के लिए तो अनुशासन में रहना अमृत-तुल्य है। छात्र जीवन मानव जीवन की आधारशिला है।

आज छात्रों द्वारा परीक्षा का बहिष्कार, सार्वजनिक स्थानों में तोड़-फोड़ तथा पुलिस के साथ संघर्ष एक आम बात हो गई है। समाचार-पत्र छात्रों की अनुशासनहीनता तथा हिंसक घटनाओं की खबर नित्य-प्रति प्रकाशित करते रहते हैं। हम इन्हें पढ़कर मात्र इतना कह देते हैं कि यह बहुत बुरी बात है,लेकिन हमारे इतना कहने मात्र से इसका निराकरण नहीं होता। क्या कभी हमने शान्त-मन से यह सोचा है कि यदि यह बीमारी बढ़ती गई तो इसका निराकरण करना हमारे वश की बात नहीं रहेगी।

छात्र एवं अनुशासन एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्राचीन काल में छात्रों को आश्रमों तथा गुरुकुलों में गुरु के समीप रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। उनको अनुशासन के कठोर नियमों में बँधकर जीवनयापन करना पड़ता था। वर्तमान समय के छात्रों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे आज अनुशासनहीनता के जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हैं,वह उनके भविष्य के लिए घातक तथा अमंगलकारी है।

इसके निराकरण के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा, धार्मिक उपदेश तथा जीवनोपयोगी चर्चायें, प्रार्थना स्थल तथा कक्षाओं में होनी चाहिए जिससे छात्र सद्मार्ग के अनुगामी बन सकें। अभिभावकों, शिक्षाविदों तथा अध्यापकों को भी स्वयं के आदर्श प्रस्तुत करके छात्रों को देश का उत्तम नागरिक बनाने में यथाशक्ति सहयोग देना चाहिए।

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उपसंहार-छात्र देश के भाग्य विधाता हैं। शक्ति के पुंज हैं। देश उनकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहार रहा है। यदि वे सुधरे तो देश सुधरेगा। उनके न सुधरने पर देश रसातलगामी बनेगा।

8. बेकारी की समस्या
अथवा
बेरोजगारी एक समस्या: कारण एवं निवारण [2009]

“अकुलाती है प्यास धरा की
घिरती जब दारिद्र्य दुपहरी।
छलनी हो जाता नभ का उर,
छाती जब अँधियारी गहरी॥”

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत में बेरोजगारी की समस्या,
  3. बेरोजगारी के कारण,
  4. बेकारी निराकरण के उपाय,
  5. उपसंहार।।

प्रस्तावना-आज प्रत्येक साल विद्या-मन्दिरों से उपाधि का बोझ धारण किये लाखों की संख्या में नौजवान निकल रहे हैं। शिक्षा समापन के बाद वे दर-दर नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। नौकरी सीमित हैं। नौकरी चाहने वालों की संख्या असीमित है। किसी शायर ने इसे देखकर कहा देखिए

“कॉलेजों से सदा आ रही है, पास-पास की।
ओहदों से सदा आ रही है, दूर-दूर की ॥”

कैसी विडम्बना है कि भविष्य की आशालता नौजवान आज बेकार है। उनकी रुचि का कार्य उन्हें नहीं मिल पा रहा है।

भारत में बेरोजगारी की समस्या जब हम अपने देश भारत पर दृष्टिपात करते हैं, तो यहाँ बेरोजगार व्यक्ति सीमा से अधिक हैं। काम सीमित है तथा काम करने वाले हाथ अधिक हैं। मशीनीकरण के कारण भी बेकारी बढ़ी है। भूमि भी कम है। कल-कारखाने भी आदमी के अनुपात में कम हैं।

बेरोजगारी के कारण बेरोजगारी के प्रमुख कारण निम्नवत हैं

  1. शारीरिक श्रम से बचने का प्रयास-आज़ देश के अधिकांश नवयुवक शारीरिक श्रम से बचने का प्रयास करते हैं।
  2. प्रत्येक नौकरी का आकांक्षी-आज हर छात्र शिक्षा समाप्त करके नौकरी प्राप्त करना चाहता है। नौकरी कम तथा नौकरी पाने के इच्छुक नौजवानों की संख्या अधिक है। इस दशा में बेकारी का बढ़ना स्वाभाविक है।
  3. जनसंख्या में वृद्धि-आज भारत में जनसंख्या द्रुत गति से बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में सबके लिए रोजी-रोटी की समस्या आज प्रश्न रूप में उपस्थित है।
  4. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली-वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। लार्ड मैकाले के सपने को यह आज भी साकार कर रही है। आज किसी व्यवसाय विशेष को अपनाने के स्थान पर नौजवान बाबू बनने को तत्पर है। शिक्षा रोजगारपरक नहीं है।
  5. कुटीर उद्योग-धन्धों का समापन-आज प्रायः कुटीर उद्योग-धन्धों का समापन-सा ही हो गया है। मशीनी युग आ गया है। इस दशा में कुटीर उद्योग-धन्धों को करने वाले हाथ बेकार हो गये हैं।
  6. उद्योग-धन्धों का उचित विकास न होना–भारत की जनसंख्या के अनुपात में उद्योग-धन्धों का जितना विकास होना चाहिए था, उतना नहीं हो पा रहा है, फलतः बेकारी फैलेगी ही।
  7. सामाजिक कुरीतियाँ-सामाजिक कुरीतियाँ भी बेकारी के लिए उत्तरदायी हैं। जाति विशेष के लोग किसी व्यवसाय विशेष को सम्पन्न करने में अपना अपमान समझते हैं। चाहे वे बेकार भले ही बैठे रहें, परन्तु काम नहीं करते।

बेकारी निराकरण के उपाय-बेकारी की समस्या का निराकरण होना परमावश्यक है। इस सम्बन्ध में देश के नौजवानों में श्रम करने की भावना जाग्रत होनी चाहिए। शारीरिक श्रम के प्रति उनमें सर्वदा सच्चा भाव होना चाहिए। इसे असम्मान के स्थान पर सम्मान समझना चाहिए।

बढ़ती हुई जनसंख्या पर तत्क्षण रोक लगाना जरूरी है। शिक्षा रोजगारपरक हो, योजनाएँ मंगलकारी तथा सुविचारित होनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली में समय के अनुरूप परिवर्तन अपेक्षित है।

लघु कुटीर उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन देना नितान्त आवश्यक है। इन धन्धों के माध्यम से निम्न तथा निर्धन वर्ग अपनी रोजी-रोटी की समस्या का समाधान करने में स्वयं ही सक्षम हो जायेगा।

भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनता कृषि पर आश्रित है। इस हेतु यह परमावश्यक है कि हर योजना में कृषि को प्रमुखता दी जाय। तरुण पीढ़ी को कृषि कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। दुःख का विषय तो यह है कि आज का नवयुवक नगरों की रंग-बिरंगी शोभा पर कुर्बान है। गाँव की प्राकृतिक सुषमा को भुला बैठा है। युवकों के मन मानस में अनाज की बालियों को प्राप्त करने की ललक होनी चाहिए।

देश के नौजवानों को जापान से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, जहाँ पर हर एक की उँगली काम पर थिरकती रहती है। सब कर्म-यज्ञ के आराधक हैं।

उपसंहार-बेरोजगारी की समस्या का निदान राष्ट्र का सर्वोपरि लक्ष्य होना चाहिए। जब तक देश की जनसंख्या पेट की ज्वाला से दग्ध होती रहेगी, तब तक देश की शक्ति का प्रयोग रचनात्मक कार्यों में कदापि नहीं हो सकता। उस समय तक गाँधी तथा नेहरू के सपनों का भारत केवल काल्पनिक वस्तु बनकर ही रह जायेगा।

9. पर्यावरण-प्रदूषण [2011, 12, 14, 17]
अथवा
पर्यावरण प्रदूषण-कारण और निदान [2015]

“अपनी हालत का कुछ अहसास नहीं मुझको,
मैंने औरों से सना है कि परेशाँ हँ मैं।”
“दुनिया में कुछ इस कदर छाया है प्रदूषण,
कि देखकर ये हाल हैराँ हूँ मैं।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • प्रदूषण का अभिप्राय,
  • प्रदूषण के प्रकार,
  • प्रदूषण की रोकथाम,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना-पर्यावरण प्रदूषण आज समस्त विश्व के लिए गम्भीर चुनौती बना हुआ है। इस समस्या का अविलम्ब निराकरण होना परमावश्यक है। आज आकाश विषाक्त हो गया है। धरती दूषित हो गई है। जल जानलेवा बन गया है। आज का इन्सान भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद में मस्त है। अपनी सुख-सुविधाओं की वृद्धि की सनक में प्राकृतिक सम्पदाओं का निरन्तर दोहन करता हुआ चला जा रहा है। वृक्ष काटे जा रहे हैं। हरियाली नष्ट की जा रही है। पुष्पों को कुचला जा रहा है। प्राकृतिक छटा स्वप्नवत् हो गई है। यही वजह है कि आज मानव

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स्वच्छ वायु का सेवन करने के लिए भी तरस रहा है। पर्यावरण-प्रदूषण के फलस्वरूप जिन्दगी की गुणात्मकता में प्रतिपल हास हो रहा है। प्रदूषण का अभिप्राय-साधारण रूप से वे समग्र कारण जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इन्सान के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं, संसाधनों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं, प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। प्रदूषण से हमारा अभिप्राय यह है-वायु, जल एवं धरती की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में अवांछनीय परिवर्तन द्वारा दोष पैदा हो जाना। सरिता, पर्वत,पानी, वायु तथा वन आदि की स्वाभाविक स्थिति में विकार (दोष) का समावेश हो जाता है, तब प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

प्रदूषण के प्रकार-

  • वायु प्रदूषण,
  • जल प्रदूषण,
  • रेडियोधर्मी प्रदूषण,
  • ध्वनि-प्रदूषण,
  • रासायनिक प्रदूषण।।

(1) वायु प्रदूषण-आजकल फैक्टरी तथा कारखानों की चिमनियाँ रात-दिन काला धुआँ उगल रही हैं। सड़क पर दौड़ते हुए वाहन एवं कोयले के प्रयोग से घर से निकलने वाला धुआँ वातावरण में जहर घोल रहा है। सड़क पर चलना तथा घर में रहना भी दुश्वार हो गया है। हर स्थल पर धुएँ की घुटन विद्यमान है। मानव इनसे त्राण पाना चाहता है,परन्तु स्वयं को लाचार तथा असहाय अनुभव कर रहा है। इन्सान स्वयं की साँस में वायु से ऑक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड नामक गैस को छोड़ता है। यह अत्यधिक विषाक्त गैस है। पृथ्वी पर वृक्ष तथा पौधे इसे सोख लेते हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। इन गैसों से धरती का तापमान अनुपात से अधिक बढ़ रहा है।

(2) जल प्रदूषण जब जल दूषित तथा दुर्गन्धयुक्त हो जाता है तब उसे जल प्रदूषण पुकारते हैं। आज फैक्ट्री तथा कारखानों द्वारा छोड़ा गया रासायनिक पदार्थ जल को दूषित बना रहा है। मल-मूत्र जल में मिलकर कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। ये रासायनिक पदार्थ नदियों के माध्यम से सागर तक पहुँचते हैं, फलतः सागर जल भी दूषित हो जाता है। जीव-जन्तु व्याकुल होकर मरणोन्मुख हो जाते हैं। आज का जल इतना विषाक्त तथा दूषित हो गया है, जो मानव को मौत तथा बीमारियों की ओर अग्रसर कर रहा है।

(3) रेडियोधर्मी प्रदूषण-आज विश्व के शक्तिशाली राष्ट्र परमाणु शक्ति के विस्तार में संलग्न हैं। परमाणु विस्फोट आज आम बात हो गई है। विस्फोटों से ढेर के रूप में रेडियोधर्मी कणों का विसर्जन होता है। इससे स्थान विशेष की वायु दूषित हो जाती है।

(4) ध्वनि प्रदूषण-आज औद्योगीकरण की वजह से मशीनों का अम्बार लगा हुआ है। मशीनों तथा वाहनों के कर्ण-भेदी शोर के मध्य में ही जैसे-तैसे करके हमको जीना पड़ रहा है। इससे स्नायुमंडल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मानव प्रत्येक क्षण तनाव में जीता है। शान्ति आज उससे कोसों दूर है। दिनभर श्रम करने के पश्चात् आदमी सोना चाहता है, परन्तु शोर के कारण वह गहरी निद्रा की गोदी में समाकर तनिक भी विश्राम नहीं कर पाता है।

(5) रासायनिक प्रदूषण-खेती के कीड़ों को मारने के लिए अनेक कीटनाशक दवाओं का प्रयोग किया जा रहा है। इससे पृथ्वी बंजर भूमि में परिवर्तित हो सकती है। आज इनके प्रयोग से अन्न दूषित तथा स्वाद-रहित हो गया है। ये मानव के स्वास्थ्य को भी चौपट किये डाल रहा है।

प्रदूषण की रोकथाम-समय की महती आवश्यकता है कि प्रदूषणकारी तत्त्वों पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जाये। इस सन्दर्भ में समस्त दुनिया में एक नवीन विचारधारा जाग्रत हुई है। चेतना का नव संचार हुआ है। प्रदूषण की समस्या का मूल कारण उद्योगों का विकास है।

इस विकास से पूर्व किसी ने भी नहीं सोचा था कि प्रदूषण इतना जानलेवा बन जायेगा। एक तरह से द्रौपदी की चीर की तरह प्रदूषण की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।

प्रदूषण पर नियन्त्रण लगाने के लिए व्यक्तिगत प्रयास का कोई मूल्य नहीं है। इसके लिए संगठित होकर प्रयास करना होगा। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए “जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण अधिनियम” पहले ही लागू किया जा चुका है। प्रदूषण बोर्डों का गठन हो चुका है।

उद्योगों से सम्बन्धित उनके स्वामियों से शर्त रखी गई है कि वे कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था करें। गन्दे पानी की निकासी की भी समुचित व्यवस्था करें। इससे पूर्व उन्हें उद्योगों की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी। पर्यावरण विशेषज्ञों की राय लेना भी आवश्यक है।

जंगलों तथा वनों को काटने पर भी रोक लगायी गई है। वन-महोत्सव सम्पन्न किये जा रहे हैं। वृक्षों को आरोपित करने का अभियान भी तीव्र गति से चलाया जा रहा है लेकिन इस दिशा में जितना सार्थक कार्य होना चाहिए, वह अभी तक नहीं हो पाया है।

उपसंहार-आज विज्ञान का युग है। मानव की सुख-सुविधाओं में निरन्तर विस्तार हो रहा है लेकिन इसका दुःखद पहलू यह है कि इससे प्रदूषण निरन्तर बढ़ रहा है। प्रदूषण की समस्या किसी राष्ट्र विशेष की न होकर सम्पूर्ण विश्व की समस्या है। इसमें विश्व के समस्त देशों को समवेत रूप से प्रयास करना होगा। मानव-मानव में कोई भी भेद नहीं है। सब परमपिता की सन्तान हैं। सबके हित में ही अपना हित है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है

“कोई नहीं पराया मेरा, घर सारा संसार है।
मैं कहता हूँ जिओ, और जीने दो संसार को॥”

10. किसी खेल का आँखों देखा वर्णन-क्रिकेट मैच [2011]
अथवा
आकर्षक मैच का वर्णन [2009, 14]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • मैच का अर्थ,
  • मैच खेलने का निश्चय,
  • क्रीड़ा स्थल पर,
  • मैच का शुरू होना,
  • हार-जीत की होड़,
  • खेल का समापन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-दुनिया प्रकृति का रंगमंच है। प्रकृति विविध प्रकार की क्रीड़ाओं में निरन्तर संलग्न रहती है। भ्रमर प्रसूनों से गुनगुना कर बात करते हैं। तितलियाँ फूलों के ऊपर मँडराकर नृत्य करती,खेलती तथा इठलाती हैं। जब छोटे-से-छोटे कीड़े भी निश्चित क्रीड़ा करते रहते हैं, तो मानव भला इनसे कैसे उदासीन रह सकता है। छात्र तथा छात्राओं के मन-मानस में खेल के प्रति उत्कंठा तथा ललक होती है।

मैच का अर्थ-खेल व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। इसी हेतु विभिन्न प्रकार के खेलों का अस्तित्व मानव के समक्ष प्रकट हुआ। खेलों के माध्यम से खिलाड़ियों को एक उत्साह मिलता है। इसी बात को दृष्टिपथ में रखकर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। खेल की प्रतियोगिता को ही मैच के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

मैच खेलने का निश्चय-हर विद्यालय में प्रत्येक साल खेलों का आयोजन होता है। हमारा विद्यालय फिर इसका अपवाद कैसे हो सकता है ? विगत वर्ष जनवरी का प्रथम सप्ताह था। प्रिंसिपल महोदय ने क्रीडाध्यक्ष के माध्यम से यह आदेश प्रसारित किया कि 20 जनवरी को हमारे कॉलेज की टीम स्थानीय विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम से मैच खेलेगी। आदेश को सुनते ही छात्र एवं खिलाड़ी फूले नहीं समा रहे थे।

क्रीड़ा-स्थल पर-20 जनवरी को करीब 9 बजे मैं क्रीड़ा-स्थल जा पहुँचा। नगर के बहुत से कॉलेजों के विद्यार्थी इस मैच को देखने के लिए एकत्रित हुए थे, अतः भीड़ का कोई अन्त नहीं था। सुप्रसिद्ध टीमों का नाम सुनकर बहुत से खेल-प्रेमी तथा नागरिक भी आ गये थे। मैच शुरू होने में अभी एक घण्टा शेष था। मैं शनैःशनैः अग्रिम पंक्ति में अपने सहपाठियों के निकट पहुँचने में सफल हुआ।

इसी अन्तराल में दो निर्णायक क्रीड़ा-स्थल पर पधारे। इसी मध्य दोनों कॉलेजों की टीमें अपनी साज-सज्जा के साथ उपस्थित हुईं। ,

मैच का शुरू होना-दोनों टीमों के कप्तान तथा मैच निर्णायक मैदान के मध्य में स्थित खेल पट्टी के पास खड़े होकर ‘टॉस’ करने लगे। हमारे विद्यालय के कप्तान ने ‘टॉस’ जीता और पहले बल्लेबाजी करने का निर्णय लिया। हमारे दल के प्रारम्भिक बल्लेबाज अपने खेल का प्रदर्शन करने के लिए तैयार थे।

हार-जीत की होड़-क्रिकेट खेल का तो रोमांच ही निराला है। गेंद-बल्ले के इस खेल के सभी आयुवर्ग के लोग दीवाने होते हैं। हमारे बल्लेबाजों ने शुरू से ही तेज गति से रन बनाने प्रारम्भ कर दिये। दोनों ने मिलकर बिना आउट हुए 10 ओवरों में 60 रन कूट डाले,लेकिन तभी विपक्षी दल के गेंदबाज राकेश ने घातक गेंदबाजी करते हुए अपने दो लगातार ओवरों में हमारे तीन बल्लेबाजों को आउट कर दिया। अब हमारा स्कोर हो गया 72 रन पर तीन विकेट। अब खेलने के लिए हमारे दल का कप्तान मैदान में आया और आते ही पहली गेंद पर उसने शानदार छक्का जड़ा। धीरे-धीरे मैच के रोमांच के साथ-साथ हमारे विद्यालय की पारी भी आगे बढ़ने लगी। खेल का दौर निरन्तर गतिमान रहा। कुल मिलाकर हमारे विद्यालय के दल ने अपने कोटे के 30 ओवरों में 150 रन बनाये और विपक्षी दल को जीत के लिए 151 रन बनाने की चुनौती दी।

दर्शक बहुत ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। आधा घण्टे का विश्राम एवं अल्पाहार के पश्चात् विक्टोरिया इण्टर कॉलेज की टीम खेलने आयी। उन्होंने खेल का प्रारम्भ बहुत ही अच्छे तरीके से किया। प्रथम 9 ओवरों में उनके 40 रन बने।

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यद्यपि हमारी टीम के गेंदबाज बहुत ही चतुर तथा जाने-माने थे, लेकिन इस समय वह लाचार से दृष्टिगोचर हो रहे थे। अब हमारे स्पिनरों ने अपने गुरुतर भार को उठाया। उन्होंने तेजी से विपक्ष के तीन खिलाड़ी जल्दी-जल्दी आउट कर डाले। वे अब तक मात्र 96 रन बना पाये थे। चौथे तथा पाँचवें खिलाड़ी भी स्पिनर अजय ने आउट कर दिये। विपक्षी हताश हो गये और मात्र 25 ओवरों में ही उनकी टीम कुल 117 रन बनाकर आउट हो गयी। सौभाग्यवश विजयश्री ने हमारे कॉलेज की टीम का वरण किया।

खेल का समापन-खेल समाप्त हुआ। मैदान में पण्डाल के अन्तर्गत अल्पाहार का आयोजन किया गया था। दोनों दलों के समस्त खिलाड़ी तथा उपस्थित शिक्षक अल्पाहार के लिए टेबिलों पर उपस्थित हुए।

चाय-पान के पश्चात् पुरस्कार वितरण का आयोजन किया गया। हमारे कॉलेज के खिलाड़ी क्रम से उत्साहित होकर पुरस्कार ग्रहण करने के लिए जा रहे थे। हमारे दल के कप्तान ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जिला-विद्यालय निरीक्षक से हाथ मिलाकर चल बैजयन्ती ग्रहण की। समस्त खिलाड़ियों तथा उपस्थित जन-समूह ने ताली बजाकर प्रसन्नता व्यक्त की। उत्साहवर्धन के लिए विपक्ष के खिलाड़ियों को भी सान्त्वना पुरस्कार प्रदत्त किये गये।

उपसंहार-खेल का महत्त्व इसलिए भी है कि इससे खेल की भावना का विकास होता है। आज हमें अपने मन-मानस में इस भावना को पल्लवित करके देश के माहौल को उन्नत करना होगा। यह भावना हमें खुशी के साथ जीने का सम्बल देगी। सहयोग, मैत्री तथा सद्भाव का पाठ इन खेलों के माध्यम से ही प्राप्त होगा। यह आज के युग की महती आवश्यकता है।

11.समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2013, 16]
अथवा
प्रजातन्त्र के सजग प्रहरी समाचार-पत्र [2009]

“न तोप निकालो,
न तलवार निकालो।
मुकाबिल है तो,
एक अखबार निकालो।”

रूपरेखा [2015]-

  • प्रस्तावना,
  • समाचार-पत्रों के प्रकार,
  • जन्म तथा विकास,
  • समाचार-पत्रों की आवश्यकता,
  • समाचार-पत्रों का महत्त्व,
  • समाचार-पत्रों की शक्ति,
  • समाचार-पत्रों का उत्तरदायित्व,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विज्ञान का युग है। विज्ञान ने सम्पूर्ण संसार को एक कुटुम्बवत् बना दिया है। संचार का विस्तार सिमटता हुआ चला जा रहा है। आज हर इन्सान इस बात का इच्छुक है कि उसे संसार की अधिकाधिक जानकारी मिले। इस बात को जानने का सबसे सशक्त साधन समाचार-पत्र ही हैं। समाचार-पत्र जीवन से इस प्रकार जुड़ गया है कि इसके बिना जीवन अधूरा लगता है। शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो समाचार-पत्र चाय तथा जलपान की तरह जिन्दगी का अविभाज्य अंग बन गया है।

समाचार-पत्रों के प्रकार-समाचार-पत्रों की कई श्रेणियाँ होती हैं। कतिपय समाचार-पत्र रोजाना छपते हैं। कुछ साप्ताहिक होते हैं। कुछ समाचार-पत्र प्रातः एवं संध्या के रूप में ही छपते हैं। चाहे समाचार-पत्र किसी भी प्रकार का क्यों न हो, जनसामान्य को विश्व की गतिविधियों का अधिकाधिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करना ही उसका लक्ष्य होता है।

जन्म तथा विकास समाचार-पत्रों का जन्म सोलहवीं शताब्दी में ठहराया जाता है। इंग्लैण्ड में प्रथम बार सत्रहवीं शताब्दी में समाचार-पत्र का प्रकाशन स्वीकारा गया है। भारतवर्ष में अंग्रेजों के पदार्पण से पूर्व किसी भी समाचार-पत्र का उल्लेख नहीं मिलता। ‘इण्डिया गजट’ नामक ‘सरकारी पत्र’ सबसे पहली बार भारत में प्रकाशित हुआ। ईसाइयों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए समाचार-पत्र छापने प्रारम्भ कर दिये। ‘दर्पण’ नामक समाचार-पत्र इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। ईश्वर चन्द्र ने ‘प्रभाकर’ तथा राजा राममोहन राय ने ‘कौमुदी’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किये। मुद्रण कला के आविष्कार के साथ तो आज समाचार-पत्रों की बाढ़-सी आ गई है। ये समाचार-पत्र देश-विदेश की दैनिक खबर प्रकाशित करके जनसामान्य को प्रबुद्ध तथा जागरूक बना रहे हैं।

समाचार-पत्रों की आवश्यकता-इन्सान एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है। समाज में ही उसका पालन-पोषण होता है। वह समाज के सुख एवं दुःख को जानने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहता है। वह चाहता है कि उसकी बात को कोई सुने तथा दूसरों की भावना को भी वह जाने। इस सबको जानने का एकमात्र साधन समाचार-पत्र है।

समाचार-पत्रों का महत्त्व–इस बात में कोई भी विरोध नहीं हो सकता कि समाचार-पत्रों का मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। विभिन्न प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक विषयक समाचार दिन-प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं। जनसामान्य इन्हें बड़े शौक से पढ़ता है। दुनियाभर के समाचार इन पत्रों में प्रकाशित होते हैं। विश्व के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक के समाचार इन पत्रों में पढ़ने को मिल जाते हैं। चन्द पैसों में हम दुनिया के समाचार पढ़ लेते हैं। यदि कोई घटना हमारे लिए हानिप्रद अथवा लाभप्रद हो तो हम चैतन्य तथा जाग्रत होकर

उससे लाभ ग्रहण कर सकते हैं। व्यापारी व्यापार के विज्ञापन पढ़कर अपनी बिक्री में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। काम की तलाश में बेकार बैठे नवयुवक रिक्त स्थानों के विज्ञापन पढ़कर आवेदन-पत्र प्रस्तुत करके नौकरी प्राप्त कर सकते हैं। विवाह के इच्छुक वैवाहिक विज्ञापन को पढ़कर मनवांछित जीवन साथी का चयन कर सकते हैं।

महत्त्वपूर्ण विषय के सन्दर्भ में सम्पादक महोदय जिस स्तम्भ को लिखते हैं, वह बहुत ही उपयोगी होता है। सम्पादक जनसामान्य की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध तथा जानकार होता है। उसकी सम्मति बहुत ही सारपूर्ण तथा उपयोगी होती है। पाठकों के स्तम्भ के अन्तर्गत पाठकों के विचार छपते हैं। ये विचार भी सारगर्भित होते हैं। . आज प्रजातन्त्र का युग है। आधुनिक समय में समाचार-पत्रों का महत्त्व और भी बढ़ गया है। ये जनमत को बनाने तथा बिगाड़ने के प्रबल साधन हैं। चुनाव के समय किसी भी दल को जिताने तथा हराने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

सरकार तथा जनता के मध्य की कड़ी समाचार-पत्र ही होते हैं। सरकार की नीति तथा विचारों का खुलासा जनता के समक्ष समाचार-पत्र ही करते हैं। जनता के आक्रोश को भी सरकार के कानों तक समाचार-पत्र ही पहुँचाते हैं।

समाचार-पत्रों की शक्ति-समाचार-पत्रों की बहुत शक्ति होती है। वे किसी भी समस्या को लेकर आन्दोलन का सूत्रपात कर सकते हैं। जनता को प्रबुद्ध तथा जागरूक बनाकर सरकार को उसकी बात को स्वीकार करने के लिए विवश कर सकते हैं।

समाचार-पत्रों का उत्तरदायित्व-समाचार-पत्रों पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है। समाचार-पत्रों को शक्ति-सम्पन्न होने पर भी सन्तुलित एवं मर्यादित होना चाहिए। समाचार-पत्रों को जनसामान्य का ठीक दिशा निर्देश करना चाहिए। उत्तेजक तथा सनसनीपूर्ण खबरें जनमानस में गलत धारणा का बीजारोपण करती हैं। अश्लील तथा हत्या की खबरें जनमानस को विकृत करती हैं। इनका प्रकाशन घटिया किस्म का है, अतः इसे रोकना चाहिए।

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उपसंहार-समाचार-पत्रों की प्रत्येक उन्नत राष्ट्र को महती आवश्यकता है। समाचार-पत्रं सभ्यता तथा संस्कृति के सजग प्रहरी होते हैं। ये क्रान्ति के अग्रदूत तथा सुधार तथा अलख जगाने वाले होते हैं। देश की आन्तरिक शान्ति स्थापना में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे देश में समाचार-पत्रों का भविष्य स्वर्णिम तथा मंगलमय है। राष्ट्र को ये नया स्वर देते हैं, नवीन प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। ये उन्नति के संदेशवाहक हैं।

12. किसी त्योहार का वर्णन-दीपावली

“दीपावली कह रही है,
दीप-सा युग-युग जलो।
घोर तम को पाट कर,
आलोक बनकर तुम चलो।।”

रूपरेखा-
(1) प्रस्तावना,
(2) दीपावली का तात्पर्य,
(3) दीपावली मनाने के कारण,
(4) लक्ष्मी पूजा पर्व,
(5) दीपावली की तैयारियाँ,
(6) बुराइयाँ,
(7) उपसंहार।

प्रस्तावना-अमावस की घनघोर काली रात में झिलमिल करती एवं जगमगाती मिट्टी के दीपकों की पंक्तियाँ तथा आसमान को चूमती हुई रंग-बिरंगी पटाखे तथा फुलझड़ियाँ जन-सामान्य के हृदय में खुशी की लहर पैदा कर देती हैं। दीपावली भारतवर्ष का प्रमुख त्योहार है। यह पर्व छोटे-छोटे नगर तथा ग्राम से लेकर बड़े-से-बड़े नगरों तथा कस्बों में सोत्साह मनाया जाता है। यह पर्व तिमिर नाशक है। सफाई तथा वैभव का प्रकाश विकीर्ण करने वाला है। कवि नीरज की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं

“जलाओ दिए, पर ध्यान रहे इतना। धरा पर अँधेरा कहीं रह न जाये ?”

दीपावली का तात्पर्य-दीपावली को दीपोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। दीपक विवेक तथा प्रसन्नता का द्योतक है। दीपक प्रकाश विकीर्ण करते हैं। दीपावली का तात्पर्य रोलनी के पर्व से व्यक्त किया जाता है।

दीपावली मनाने के कारण यह ज्योति पर्व हर साल कार्तिक मास की अमावस्या के दिन उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न किया जाता है। इसके मनाने के अनेक कारण हैं। कुछ लोगों की यह धारणा है कि भगवान राम चौदह साल के वनवास के पश्चात् अयोध्या लौटे, तो दीप जलाकर जनता द्वारा प्रसन्नता व्यक्त की गई,तभी से यह पर्व मनाया जाता है।

इसके अलावा भी दीपावली मनाने के अनेक कारण हैं। भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ फसलों के तैयार होने पर कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। जब फसल (खरीफ) पककर तैयार हो जाती है, तब दीपावली का पर्व मनाया जाता है।

अन्य कारण बरसात के महीने में सर्वत्र गन्दगी तथा सीलन हो जाती है। कीचड़ की दुर्गन्ध राह चलना भी दुश्वार कर देती है। वर्षा के समाप्त होने पर सफाई करना अपेक्षित हो जाता है। दीपावली पर मकानों की सफाई की जाती है तथा उन पर सफेदी की जाती है। रात्रि में दीपक जलाये जाते हैं। इससे हानिप्रद-कीट-पतंगों का नाश हो जाता है।

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लक्ष्मी पूजा पर्व–दीपावली लक्ष्मी पूजा का पर्व है। व्यापारी वर्ग इस अवसर पर विशेष रूप से लक्ष्मी की उपासना करते हैं। पुराने बहीखातों के स्थान पर नवीन बहीखाते खोलते हैं।

दीपावली की तैयारियाँ-दीपावली को मनाने के लिए कई दिन पूर्व से ही तैयारी की जाने लगती है। मकान साफ-सुथरे करके उन पर सफेदी की जाती है। दरवाजों तथा खिड़कियों पर रंग किया जाता है।

प्रातःकाल से ही बाजारों का दृश्य लुभावना तथा चित्ताकर्षक होता है। हलवाई की दुकानें अनेक स्वादिष्ट तथा रुचिकर मिठाइयों से सजी रहती हैं। चित्र, खिलौने तथा बर्तन दुकानों पर पंक्तिबद्ध लगे रहते हैं।

रात को लोग अपने घरों पर दीपक,मोमबत्ती तथा बिजली के बल्ब जलाते हैं। रोशनी के निमित्त बल्बों की झालरें घर के बाहरी भाग पर लटका देते हैं।

बालक आतिशबाजी, फुलझड़ी तथा पटाखे चलाते हैं। इस अवसर पर लोग तनाव तथा चिन्ता से मुक्त होकर हर्षपूर्वक त्योहार मनाने की खुशी में तिरोहित से हो जाते हैं।

इस दिन बताशे तथा खील का विशेष रूप से सेवन किया जाता है। बालक इनको प्रसन्नतापूर्वक खाते हैं। चीनी के खिलौनों का भी प्रचलन है।

त्योहार की शुरुआत नवरात्रि से ही हो जाती है। त्योहार वैसे धनतेरस से प्रारम्भ होता है। इसी दिन निर्धन एवं सम्पन्न बाजार से छोटा या बड़ा बर्तन खरीदते हैं। अगले दिन नरक-चौदस मनाते हैं। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस को मारा था। प्रतीक रूप में इस दिन यम का दीया प्रज्ज्वलित किया जाता है। कार्तिक अमावस्या को दीपावली विशेष रूप से मनाई जाती है। रात को धन की देवी लक्ष्मी की उपासना की जाती है। गणेश पूजा होती है। रात को दीपक जलाये जाते हैं। प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा होती है। इस दिन अन्नकूट तैयार किया जाता है। कार्तिक शुक्ला द्वितीया को भैयादूज के पर्व का आगमन होता है। इस अवसर पर बहिन अपने भाई के मस्तक पर रोली का टीका लगाती है। भाई उनको पुण्य के रूप में उपहार देता है।

बुराइयाँ-दीपावली के पर्व में अच्छाइयों के साथ बुराइयाँ भी प्रवेश कर गई हैं। आतिशबाजी तथा पटाखे असावधानीपूर्वक छोड़ने से आग लगने का कारण बनते हैं। इससे जान तथा माल का नुकसान होता है।

दीपावली की रात्रि में लोगों में जुआ खेलने का प्रचलन बढ़ गया है। उनकी यह गलत मान्यता है कि इस दिन जुआ में पैसा जीतने पर वह धन-सम्पन्न हो जायेंगे। उनके घरों पर लक्ष्मी का वास हो जायेगा, लेकिन जुआ की यह प्रथा निन्दनीय है।

चोर भी यह सोचते हैं कि हमें दीपावली के दिन रात को चोरी करके अपनी भाग्य की आजमाइश करनी चाहिए। यदि इस दिन वे चोरी करने में सफल हुए तो मालामाल हो जायेंगे।

अन्ध-विश्वास में जकड़े कुछ लोग रात को घर के मुख्य प्रवेश द्वार को खुला छोड़ देते हैं। इस प्रकार द्वार को खुला छोड़ना चोरों को चोरी करने का खुला निमन्त्रण है।

उपसंहार-दीपावली उल्लास तथा रोशनी का पर्व है। भारत की संस्कृति तथा सभ्यता का प्रतीक है। यह अन्धकार पर प्रकाश की विजय का परिचायक है। हमें स्वयं उल्लास में डूबकर दूसरों को भी प्रफुल्लित करना चाहिए तभी इस पर्व का मनाना सार्थक होगा-मिलकर करें हम कोशिश यहीं कि हृदय में अँधेरा कहीं रह न जाये।

13. साक्षरता के बढ़ते चरण [2009]
अथवा
साक्षरता अभियान

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • साक्षरता का अर्थ,
  • शिक्षा और साक्षरता,
  • असाक्षरता के कारण,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना शिक्षा का मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। आज के समाज में अशिक्षित व्यक्ति मृतक के समान है, क्योंकि शिक्षा ही एकमात्र ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है। व्यक्ति अपनी जन्मजात शक्तियों को शिक्षा के द्वारा विकसित करके प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। अशिक्षित व्यक्ति को प्रत्येक कर्म के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है। अशिक्षित व्यक्ति एक अपाहिज की भाँति होता है, उसे प्रतिक्षण दूसरों की वैसाखी की आवश्यकता पड़ती है। अतः पराधीन रहकर व्यक्ति सफल नहीं हो सकता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है

“पराधीन सपनेऊ सुख नाहीं।”

अतः प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित होना चाहिए तभी देश व समाज का उत्थान सम्भव है अन्यथा देश की उन्नति अवरुद्ध हो जायेगी।

साक्षरता का अर्थ-साक्षरता से तात्पर्य सा + अक्षर अर्थात् अक्षरों को पढ़ने-लिखने और शब्दों-वाक्यों आदि के अर्थ को समझने की क्षमता से है।

साक्षर व्यक्ति ही भाषा के लिखित रूप को पढ़-लिख और समझ सकता है। निरक्षर व्यक्ति को साक्षर व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार वह व्यक्ति दूसरों पर निर्भर रहता है। निरक्षर व्यक्ति समाज के लिए अभिशाप है। निरक्षर व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लिया जाता है। वे अन्धविश्वासों व परम्पराओं में जकड़े रहते हैं।

शिक्षा और साक्षरता शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति जीवन-पर्यन्त कुछ न कुछ सीखता रहता है। यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में चलती रहती है। शिक्षा के लिए कोई उम्र नहीं होती,प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित होने का अधिकार है। शिक्षित व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से अपने मार्ग की बाधाओं को सरलता से दूर कर लेते हैं।

भारतीय संविधान के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में 14 वर्ष तक की आयु के बालक-बालिकाओं के लिए निःशुल्क अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को भी शामिल किया गया।

इसके लिए राष्ट्रीय चेतना उपसंहार को जाग्रत करना अत्यधिक आवश्यक है। साक्षरता के प्रसार के लिए मिशनरी भावना का होना अपेक्षित है।

सरकारी अधिकारी, कर्मचारियों एवं सम्पूर्ण समाज को निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

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अतः साक्षरता को जन आन्दोलन बनाने की महती आवश्यकता है। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-

“सबसे प्रथम कर्त्तव्य है, शिक्षा बनाना देश में
शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं, आज हम सब क्लेश में।”

सन् 1986 में जब संसद ने शिक्षा की राष्ट्रीय नीति स्वीकृत की तब देश में साक्षरता का प्रतिशत 36.2 प्रतिशत था। इसके अन्तर्गत नारी साक्षरता का प्रतिशत पुरुष साक्षरता के प्रतिशत से न्यून था।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के लम्बे अन्तराल के पश्चात् भी अनेक कानून बने। इसके लिए भरसक प्रयास हुआ परन्तु फिर भी अधिक सुधार दृष्टिगोचर नहीं हुआ। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप मूल स्थिति में सुधार नहीं हुआ है।

असाक्षरता के कारण

  1. आर्थिक तथा कुछ सामाजिक कारण थे। 6 से 14 वर्ष की उम्र के बालक आज भी पाठशाला नहीं जा रहे हैं। ऐसे अशिक्षितों की संख्या करोड़ों से भी ऊपर है।
  2. प्रौढ़ शिक्षा मात्र कागजी है। इसके अन्तर्गत मिले हुए अनुदान का दुरुपयोग हो रहा है।
  3. प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता के अनेक आन्दोलन भी हुए। फलस्वरूप पर्याप्त भाग में साक्षर बनाये गये। अनेक जनपद साक्षर घोषित भी कर दिये गये लेकिन सत्य इसके विपरीत है।

नव साक्षरों के पठन-पाठन की भी सुव्यवस्था नहीं है। प्रौढ़ शिक्षा के लिए मिशनरी भावना का समावेश अपेक्षित है।

उपसंहार–प्रत्येक साक्षर कम-से-कम एक निरक्षर को साक्षर बनाने का प्रयास करे। – साक्षरता के अभाव में सुराज की कल्पना दुराशा मात्र है। साक्षरता को आन्दोलन बनाने की आवश्यकता है।

14. आतंकवाद [2017]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • आतंकवाद का समाज पर प्रभाव,
  • आतंकवाद राजनीति के क्षेत्र में,
  • आतंकवाद का मूल कारण आर्थिक समस्या,
  • पंजाब विभाजन की माँग,
  • उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना हमारे देश में अनेक समस्यायें हैं, उनमें से आतंकवाद एक प्रमुख समस्या है। आज यह समस्या भारत के समक्ष एक विकट चुनौती के रूप में उपस्थित है, विशेषकर इस कारण क्योंकि उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंकवाद को सामरिक एवं राजनीतिक रूप प्रदान कर चुका है, वह आतंकवाद द्वारा सम्प्रति कश्मीर की ओर अन्ततः भारत को अपने अधीन करने का दुःस्वप्न देखता है। विश्व मंच पर यह प्रश्न उपस्थित है, क्या पाकिस्तान को एक आतंकवादी राष्ट्र घोषित कर दिया जाए?

आतंकवाद का समाज पर प्रभाव-आतंकवाद विश्व के क्षितिज पर बादलों की भाँति छाया हुआ है। आतंकवाद परमाणु बम से भी अधिक भयावह बन गया है,क्योंकि इसने विश्व मानव को संत्रास्त बना रखा है और मानव समाज को विनाश के घेरे में स्थित कर दिया है। आज आतंकवाद अपनी बात को मनवाने का एक सामान्य नियम बन गया है, तोड़-फोड़, लूट-खसोट, अपहरण, हत्या, आत्महत्या आदि इसके रूप हैं।

आतंकवाद राजनीति के क्षेत्र में आज आतंकवाद साधारण व्यक्ति से लेकर राजनीति तक अपने पाँव पसारे हुए है। इसकी जड़ें दिनों-दिन गहरी होती जा रही हैं। भारत में राजनीतिक क्षेत्र में क्षेत्रवाद एक बहुत ही महत्वपूर्ण विभाजक तत्व बन गया है, सांस्कृतिक टकराव, आर्थिक विषमता,मतभेद,न्यायपालिका की दुर्बलता सर्वव्यापी भ्रष्टाचार आदि अनेक तत्व आतंकवाद का पोषण करते हैं। भारत में आतंकवाद का बीजारोपण भाषायी राज्यों के गठन ने किया। भाषायी प्रदेशों के नाम पर खून-खराबा हुआ, राजभाषा का हिन्दी के नाम पर दक्षिण भारत में कितने

आतंकवादियों को जन्म दिया है, इन सब बातों का हिसाब किसके पास है ? खालिस्तान की माँग, मिजोरम समस्या, गोरखालैण्ड आन्दोलन, पृथक् उत्तराखण्ड की माँग आदि क्षेत्रवाद की उपज हैं, श्रीलंका में तमिल समस्या, इसी कोटि के क्षेत्रवादी आतंकवाद का ज्वलंत उदाहरण है। बंगाल में इस प्रकार की विचारधारा बंगाल में बाहर से जाकर बसने वालों के लिए सिरदर्द रही है।।

आतंकवाद का मूल कारण आर्थिक समस्या-आज आतंकवाद का मूल कारण लोगों की आर्थिक समस्या है। इस समस्या ने सामान्य जन को विशेष कर युवावर्ग को विद्रोही एवं असंतोषी बना दिया है। इनमें साहसी व्यक्ति दुस्साहसपूर्ण आतंकवाद का रास्ता अपनाकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

पंजाब विभाजन की माँग-आतंकवाद का जन्म स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में हो गया था। राजनीति की रोटियाँ सेकने की दृष्टि से स्व.श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भिंडरवाला की पीठ थपथपा दी,फलतःस्थिति बेकाबू हो गयी,इसके बाद अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर आतंकवादियों का गढ़ बन गया। इस पर विजय प्राप्त करने के लिए सैनिक कार्यवाही की गयी, अंगरक्षक सिक्ख सैनिकों द्वारा इन्दिरा गाँधी की हत्या की गयी। इसके अतिरिक्त अनेक निर्दोष सिक्खों की हत्याएँ की गयीं। इसके बाद आतंकवादी गतिविधियाँ दिन पर दिन शक्तिशाली होती गयीं।

उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र-इन्दिरा गाँधी की हत्या के पश्चात् उत्तर भारत आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र बन गया। रेलों में लूटपाट,बलात्कार,रेलमार्ग की तोड़-फोड़,रेलों की टक्करें, बसों में लूटपाट आदि आतंकवाद के परिवार में जन्मे हैं। संक्षेप में उत्तर भारत में जन-जीवन सर्वथा अनिश्चित बन गया है। कश्मीर में आतंकवाद की समस्या का जन्म हुआ फलतः कारगिल की समस्या उसकी परिणति के रूप में सामने आयी।

उपसंहार-अब स्थिति यह बन गयी है कि प्रायःप्रत्येक राष्ट्र में आतंकवाद संत्रास का हेतु बन गया है। कुछ ऐसी हवा चलने लगी है कि भारत को समर्थन देने के नाम पर विश्व के अनेक देश आतंकवाद के विरुद्ध लामबन्द होने की बातें करने लगे हैं। पाकिस्तान का प्रबल समर्थक अमरीका भी अब पाकिस्तानी आतंकवाद से परेशान है और वह भी उसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का मन बनाने लगा है। आतंकवाद पर विजय प्राप्त करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी स्तरों पर निष्ठा के साथ प्रयत्न उपेक्षित हैं।

15.विद्यालय का वार्षिकोत्सव [2009]

“गा उठी हैं कन्दराएँ,
बह उठे हैं स्रोत रस के।
हर्ष और उल्लास का,
नव पर्व सा छाया हुआ है।”

रूपरेखा [2016]-

  • प्रस्तावना,
  • समय,
  • उत्सव का शुभारम्भ,
  • अनेक आयोजन,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना प्रत्येक विद्यालय में वार्षिकोत्सव सम्पन्न किया जाता है। वार्षिकोत्सव विद्यालय की प्रगति तथा उल्लास का प्रतीक है। छात्रों, अध्यापकों तथा अभिभावकों के मिलने का एक शुभ अवसर है। इस अवसर पर विद्यालय खूब सजाया जाता है। विद्यालय के भवन पर रोशनी की जाती है। रोशनी के प्रकाश से विद्यालय की शोभा में चार चाँद लग जाते हैं। वार्षिकोत्सव का नाम कर्ण कुहरों में पड़ते ही छात्रों के मन प्रसन्नता से हिलोरें लेने लगते हैं।

समय-हमारे विद्यालय में वार्षिकोत्सव प्रतिवर्ष शिवरात्रि के पर्व पर सम्पन्न किया जाता है। इसी दिन महर्षि दयानन्द सरस्वती को बोध प्राप्त हुआ था। हर साल की तरह हमारे विद्यालय का वार्षिक उत्सव महान् समाज सेविका डॉ. आर. के. वर्मा की अध्यक्षता में सम्पन्न किया गया। वार्षिकोत्सव मनाने का समय सायंकाल चार बजे का निर्धारित किया गया। नगर के प्रतिष्ठित महानुभाव, शिक्षा शास्त्री, प्रधानाचार्य तथा विद्यालय के छात्र तथा अध्यापक निश्चित समय से पूर्व ही आकर नियत स्थानों पर आसीन हुए। सबके चेहरों में हर्ष तथा उमंग के भाव नजर आ रहे थे।

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उत्सव का शुभारम्भ-विद्यालय के प्रवेश द्वार पर प्रधानाचार्य तथा कतिपय अध्यापक गण उस उत्सव के लिए मनोनीत अध्यक्ष का स्वागत करने के लिए पलक पाँवड़े बिछाए हुए थे। ठीक 3.50 बजे अध्यक्ष का वाहन प्रवेश द्वार पर आकर रुका। प्रधानाचार्य तथा अध्यापकों ने उनका भव्य तथा सोत्साह स्वागत किया। जैसे ही अध्यक्ष ने पंडाल में कदम बढ़ाये,छात्रों तथा अध्यापकों ने खड़े होकर तथा ताली बजाकर उनके प्रति आदर भाव व्यक्त किया। विद्यालय के प्रधानाचार्य ने अध्यक्ष से आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की। अध्यक्ष के आसन पर आसीन होने पर पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो गया। विद्यालय के एक छात्र ने अध्यक्ष को माला पहनाकर स्वागत गान गाया। जिसके बोल निम्नवत् हैं-

“स्वागत समादर आपका,
आये कृपा कर आप हैं।
दर्शन सुमग देने हमें,
हरने हमारे ताप हैं ॥”

ईश वन्दना से इस उत्सव का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। कार्यक्रम की एक प्रति संयोजक के पास थी तथा दूसरी अध्यक्ष की मेज पर रख दी गई। विद्यालय के प्रधानाचार्य ने मुख्य अतिथि का स्वागत किया। उसके बाद आये हुए गणमान्य लोगों के प्रति भी आभार प्रदर्शित किया। विद्यालय के छात्रों ने महान् कहानीकार प्रेमचन्द द्वारा लिखित पंच परमेश्वर कहानी का नाट्य रूपान्तर बड़े ही सफल ढंग से अभिनीत किया था। पात्र अलगू तथा जुम्मन चौधरी के यह कथन सुनकर-“पंच न किसी का दोस्त होता है तथा न दुश्मन,पंच खुदा का स्थान होता है।”

इन शब्दों को सुनकर दर्शक भाव-विभोर हो गए। एक छात्र ने डॉ.श्याम नारायण पांडेय की वीर रस की कविता सुनाकर सबको वीर रस का ही कर दिया। देश-प्रेम तथा कारगिल युद्ध से सम्बन्धित भारतीय सैनिकों के शौर्य तथा बलिदान की कविता दर्शकों के मन-मानव को झकझोरने वाली थी। एक छात्र का मूक अभिनय भी प्रशंसनीय था।

अनेक आयोजन-इस भाँति छात्रों ने अनेक प्रकार के कार्यक्रम प्रस्तुत किये। इन कार्यक्रमों की दर्शकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रधानाचार्य ने विद्यालय की वार्षिक प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। विद्यालय में जो छात्र हाईस्कूल तथा इण्टर की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे, उनके नाम पढ़कर सुनाये। नामों को सुनकर सम्बन्धित छात्र मित्र तथा अभिभावक प्रसन्नता का अनुभव करने लगे। प्रधानाचार्य ने इस अवधि में विद्यालय में आये उतार-चढ़ावों का भी उल्लेख किया तथा सबके सहयोग की आकांक्षा भी की क्योंकि बिना सहयोग के अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।

इसके पश्चात् डॉ. आर. के. वर्मा ने छात्रों को चरित्र निर्माण विषयक बहुत ही शिक्षाप्रद भाषण दिया। उन्होंने छात्रों से कहा

“उद्यम ही बस सुख की निधि है।
बनता जो मानव का विधि है ॥”

इसके पश्चात् अध्यक्ष महोदय ने विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजयी हुए छात्रों को पुरस्कार प्रदान किये।

प्रधानाचार्य ने आगन्तुकों, अभिभावकों, अध्यापकों तथा छात्रों के प्रति आभार व्यक्त किया क्योंकि सबके सहयोग के फलस्वरूप ही उत्सव की शोभा में चार चाँद लग सके। मिष्ठान्न वितरण के साथ ही प्रधानाचार्य ने एक दिन के अवकाश की घोषणा की। इसे सुनकर छात्र प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे।

उपसंहार-वार्षिकोत्सव विद्यालय का एक आवश्यक पहलू है। छात्र, अभिभावकों तथा अध्यापकों के मिलने का एक पावन अवसर है। विद्यालय की उन्नति तथा उतार-चढ़ावों का परिचायक है। छात्रों के मन-मानस में एक नवीन उत्साह तथा उल्लास को भरने वाला है। मन तथा मस्तिष्क को तरोताजा बनाने का सर्वोत्तम साधन है।

16. समाज में नारी का स्थान
अथवा
स्वतन्त्र भारत में नारी का स्थान [2009]
अथवा
आधुनिक भारत में नारी [2010, 15]
अथवा
भारतीय समाज में नारी का स्थान [2012]

रूपरेखा [2018]-

  • प्रस्तावना,
  • प्राचीन काल में नारी,
  • मध्य युग में नारी,
  • वर्तमान युग में नारी,
  • पाश्चात्य प्रभाव,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आधुनिक नारी जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं एवं गुलामी की जंजीर को छिन्न-भिन्न करके उन्नति की दौड़ में पुरुष के साथ कदम मिलाकर प्रतिपल आगे बढ़ रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, रक्षा एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग देकर महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। अनेक साहित्यिक एवं वैज्ञानिक विषयक पुस्तकों की भी रचना कर रही है। उनके दिशा निर्देशन के फलस्वरूप शिक्षा जगत् में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है

“पहले भारत में नारी को, देवी सा पूजा जाता था।
फिर उसको पददलित मानकर, घर में ही रौंदा जाता था।
पुनः जागरण का युग आया, नारी का सम्मान बढ़ा।
अपने श्रम पौरुष से उसको, फिर ऊँचा स्थान मिला।”

नारी के अभाव में मानवता की कल्पना करना आकाश कुसुम के समान है। वह जननी, बेटी,पत्नी, देवी एवं प्रेयसी आदि रूपों से विभूषित है। नारी के बिना मानव अपूर्ण है। मानव पर उसका अमूल्य उपकार है। वह पुरुष की सहभागिनी है, जीवन संगिनी है।

प्राचीन काल में नारी-वैदिक काल में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी नारी की भूमिका अग्रणी थी। सीता, अनसूया,गार्गी,सावित्री एवं सुलभा इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इनके नाम इतिहास में स्वर्णांकित हैं।

मध्य युग में नारी-मध्य युग में नारी के गौरव का ह्रास हुआ। कबीर,तुलसी आदि सन्तों ने भी नारी को विकार एवं ताड़ना का पात्र ठहराया। मुसलमानों के अत्याचारों के फलस्वरूप उसे मकान की चहारदीवारी में कैद कर दिया गया।

वर्तमान युग में नारी-राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना जाग्रत होने के कारण वर्तमान में नारी की दशा में आशातीत सुधार हुआ है। राजा राममोहन राय एवं दयानन्द ने नारी को पुरुष के समकक्ष होने के अधिकार से सम्पन्न कराया। शिक्षा के द्वार खोले।।

आज नारी उन्मुक्त होकर पुरुष के साथ कदम मिलाकर प्रतिपल उन्नति की मंजिल की ओर अग्रसर है। इन्दिरा गाँधी, कमला नेहरू, सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा एवं विजय लक्ष्मी पंडित इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।

पाश्चात्य प्रभाव-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के फलस्वरूप आज भारतीय नारी अपने प्राचीन आदर्शों और मान्यताओं को तिलांजलि दे रही है। भोग-विलास, मौज-मस्ती एवं ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ’ के कुपथ का अनुगमन कर रही है। करुणा, ममता, कोमलता एवं स्नेह को त्याग कर अपनी छवि को धूमिल कर रही है। आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने की वजह से नारी आज विलासिता की ओर उन्मुख है।

उपसंहार-अतः आज इस बात की परम आवश्यकता है कि भारतीय नारी को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण न करके प्राचीन उत्तम आदर्शों एवं मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिए। ऐसा होने पर वह ऐसा स्थान प्राप्त कर सकेगी, जो देवों के लिए भी दुर्लभ है।

17. दहेज प्रथा
अथवा
दहेज एक सामाजिक अभिशाप है [2009, 16]
अथवा
दहेज एक सामाजिक समस्या [2010]

“पढ़-लिख स्वावलम्बिनी बनकर, जग को आज दिखा दो।
जिसने तुम्हें जलाया उसको, जड़ से आज मिटा दो।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • प्राचीन काल में दहेज का स्वरूप,
  • मध्यकाल में नारी की दयनीय स्थिति,
  • आधुनिक काल में दहेज का स्वरूप,
  • निराकरण के उपाय,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज भारतीय समाज में दहेज एक अभिशाप के रूप में व्याप्त है। दहेज के अभाव में निर्धन अभिभावक अपनी बेटी के हाथ पीले करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। दहेज उन्मूलन के जितने प्रयास किये जाते हैं, उतना ही वह सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा है। किसी शायर के शब्दों में-

“मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।”

प्राचीन काल में दहेज का स्वरूप-प्राचीन काल में कन्या को ही सबसे बड़ा धन समझा जाता था। माता-पिता वर-पक्ष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ देते थे, उन्हें वे सहर्ष स्वीकार कर लेते थे और जो धन कन्या को दिया जाता था, वह स्त्री धन समझा जाता था।

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मध्यकाल में नारी की दयनीय स्थिति-मध्यकाल में नारी के प्राचीन आदर्श ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ को झुठलाकर भोग एवं विलासिता का साधन बना दी गई। उसका स्वयं का अस्तित्व घर की चारदीवारी में सन्तानोत्पत्ति करने में ही सिमट कर रह गया। इस समय पर पुरुष समाज द्वारा उसे धन के समान भोग्य वस्तु समझा जाता था। उसके धन को और माता-पिता द्वारा दिये गये धन को वह अपनी वस्तु समझने लगा।

आधुनिक काल में दहेज का स्वरूप-आधुनिक काल में दहेज का लेना वर पक्ष का जन्म सिद्ध अधिकार-सा बन गया है। दहेज के बिना सद्गुणी कन्या का विवाह होना भी एक जटिल समस्या बन गया है। इस दहेज की बलिवेदी पर न जाने कितनी कन्याएँ आत्महत्या करने के लिए विवश हो रही हैं। इतने पर भी दहेज लोभियों का हृदय तनिक भी द्रवीभूत नहीं होता। .

निराकरण के उपाय

  • युवक और युवतियाँ दहेज रहित विवाह के लिए कृतसंकल्प हों।
  • अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाये।
  • दहेज लोलुपों का सामाजिक बहिष्कार हो।
  • सरकार को इस विषय में सक्रिय एवं कठोर कदम उठाने चाहिए।
  • सामूहिक विवाहों का प्रचलन हो।
  • दहेज रहित विवाह करने वालों को सामाजिक संगठनों द्वारा पुरस्कृत किया जाय।

उपसंहार-दहेज का उन्मूलन अकेले सरकार के द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए देश के कर्णधारों, मनीषियों एवं समाज सुधारकों को भगीरथ प्रयास करना होगा। प्राचीन भारतीय आदर्शों की पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी जिसमें नारी को गृहस्थी रूपी रथ का एक पहिया समझा जाता था। वह गृहलक्ष्मी की गरिमा से मंडित थी। उसकी छाया में घर-घर स्वर्ग बना हुआ था तथा घर आँगन फुलवारी के रूप में सुवासित था।

18. मेरा देश महान्
अथवा
मेरा भारत महान्

“सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भौगोलिक स्थिति,
  • गौरवपूर्ण संस्कृति,
  • विशेषताएँ,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना हमारे देश की गिनती दुनिया के प्राचीनतम देशों में होती है। सभ्यता एवं ज्ञान का आलोक भारत की धरती से ही समस्त संसार में प्रसारित हुआ था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी ने यहाँ की भूमि पर ही अपने शैशव की आँखें खोली थीं। सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों का दमन करने के लिए भगवान भारत की धरती पर ही अवतार लेते हैं तथा मानव मात्र को एक दिव्य संदेश देते हैं। यह कितने गौरव की बात है।

भौगोलिक स्थिति-भारत की उत्तर दिशा में पर्वत राज हिमालय इसके मुकुट के समान सुशोभित है। दक्षिण में विशाल सागर इसके चरणों को निरन्तर धो रहा है। पूर्व में बांग्लादेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान देश स्थित हैं। हम अपने पड़ोसी देशों से बन्धुत्व एवं मानवीय व्यवहार के पक्षधर हैं; जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त के अनुयायी हैं।

गौरवपूर्ण संस्कृति-विभिन्न प्रान्तों,समुदायों एवं भाषाओं के मेल से हमारी संस्कृति का निर्माण हुआ है। हमारी संस्कृति समन्वय की भावना से आपूरित है। हम सम्मान देकर सम्मान पाने की कामना करते हैं। हमारे हृदय के द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं। मेरे देश का हृदय उदार तथा मानवीय गुणों से भरा है।

विशेषताएँ–

  • अनेकता में एकता,
  • धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र,
  • आपसी भाईचारे की भावना सुदृढ़ है,
  • विशाल एवं उदार दृष्टिकोण है,
  • महान् विभूतियों की जन्मस्थली है।

उपसंहार-यह बड़े गर्व एवं सौभाग्य का विषय है कि हमने इस देश की धरती में जन्म लिया है। प्रकृति ने इस देश की सुषमा को स्वयं सजाया है। लहराती एवं इठलाती हुई नदियाँ एवं सरोवर इसकी शोभा को बढ़ा रहे हैं। वास्तव में इस देश का वैभव अवर्णनीय है। हम भाग्यशाली हैं क्योंकि हमने ऐसे देश में जन्म लिया है, जहाँ देवता भी जन्म लेने के लिए लालायित रहते हैं।

“सम्पूर्ण देशों से अधिक जिस देश का उत्कर्ष है
वह देश मेरा देश है, वह देश भारतवर्ष है।”

19. देश में कम्प्यूटर की प्रगति
अथवा
भारत में कम्प्यूटर के बढ़ते चरण
अथवा
कम्प्यूटर और उसका महत्त्व [2009, 10, 11, 13]
अथवा
कम्प्यूटर आज की आवश्यकता [2009]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भारत में कम्प्यूटर का विकास,
  • शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • चिकित्सा के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर,
  • समाज के अन्य क्षेत्रों में कम्प्यूटर,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आधुनिक युग में विज्ञान ने चमत्कारिक उन्नति की है। विज्ञान ने मानव को वे चमत्कार दिये हैं कि आज पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में कैद हो गई है। विश्व-पटल की कोई भी घटना से अब वह अनभिज्ञ नहीं रह गया है। विज्ञान के द्वारा उसने प्रकृति को भी अपने नियन्त्रण में कर लिया। बाहर चाहे भीषण गर्मी का प्रकोप बरस रहा हो, अन्दर एयर कंडीशनर (वातानुकूलन-यन्त्र) शीत का आनन्द प्रदान कर रहा है। रेफ्रीजरेटर शीतल पेय और भोज्य पदार्थों का आस्वादन करा रहा है। एयर कंडीशन्ड गाड़ियाँ पलक झपकते इधर से उधर पहँचा रही हैं। टेलीविजन सारी दुनिया की आँखों देखी घटना आँखों को दिखा रहा है। अब इस क्षेत्र में यदि कोई कमी रह गई, तो वह है संगणक अथवा कम्प्यूटर की। इतने सारे आविष्कारों में वैज्ञानिक इसे कैसे भूल सकते हैं। पलक झपकते सारी समस्याओं के हल चाहिए, पृथ्वी और अन्तरिक्ष का ज्ञान चाहिए,गणित के बड़े-बड़े सवालों के हल चाहिए,तो उपस्थित है कम्प्यूटर-ज्ञान का बक्सा। खोलो और अपनी-अपनी मन-वांछित जानकारियाँ लो।

भारत में कम्प्यूटर का विकास-भारत में कम्प्यूटर का विकास, सन् 1984 ई. से सरकार द्वारा कम्प्यूटर नीति की घोषणा के उपरान्त प्रारम्भ हुआ। भारत का सर्वश्रेष्ठ कम्प्यूटर है-सुपर कम्प्यूटर। कम्प्यूटर के क्षेत्र में विश्व में हमारे देश का पाँचवाँ स्थान है। इस समय कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में हम निर्यातक भी हो चुके हैं।

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शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर का अत्यन्त महत्त्व है। इस समय यह एक अपरिहार्य आवश्यकता बन चुका है। कम्प्यूटर के विद्यावाहिनी एवं ज्ञानवाहिनी कार्यक्रमों द्वारा शिक्षण कार्य सरल और रोचक बनाया जा रहा है। भारत ने शिक्षा में कम्प्यूटर को सर्वसुलभ बनाने हेतु एजुसैट नामक उपग्रह भी स्थापित किया है। इस कारण आज छात्र तकनीकी ज्ञान,गणितीय ज्ञान, वैज्ञानिक ज्ञान आदि सभी का भरपूर लाभ ले सकते हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में कम्प्यूटर-कम्प्यूटर से दूरस्थ चिकित्सा प्रणाली विकसित की गई है। साथ ही शरीर के अन्दर की गतिविधियाँ, बीमारियाँ आदि कम्प्यूटर के जरिए बड़ी आसानी से जानी जा रही हैं। इससे मरीज का इलाज करने में बहुत सुविधा रहती है।

विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर-कम्प्यूटर का वैज्ञानिक जगत में अत्यन्त महत्त्व है। सुदूर, अन्तरिक्ष में होने वाली गतिविधियाँ अथवा अतल सागर की गहराई में होने वाली हलचल, मौसम, ग्रहों, उपग्रहों,उल्कापिंडों आदि की जानकारी कम्प्यूटर द्वारा प्राप्त की जा सकती है।

रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर-रोजगार के क्षेत्र में कम्प्यूटर की बहुत अहमियत है। कम्प्यूटर पर ई-मेल, ई-रेल, ई-कॉमर्स, इलैक्ट्रॉनिक गवर्नेन्स, इण्टरनेट आदि के द्वारा रोजगारों के नये अवसर उपलब्ध रहते हैं। समाज के अन्य क्षेत्रों में कम्प्यूटर-आधुनिक युग में कम्प्यूटर एक अनिवार्य आवश्यकता है। सिनेमा,मनोरंजन,संगीत,खेल आदि के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने क्रान्ति उत्पन्न कर दी है।

उपसंहार-इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में भारत के शहरी और ग्रामीण, सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का बोलबाला है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कम्प्यूटर ने अत्यन्त उन्नति की है।

20. देश में भ्रष्टाचार की समस्या

“भ्रष्टाचार नहीं मिटता है
फैली जड़ किस वन में ?
कहीं न ढूँढ़ो यारो, यह तो
रहती अपने मन में॥”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • भ्रष्टाचार के विविध रूप,
  • राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • धर्म के क्षेत्र में भ्रष्टाचार,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज देश में भ्रष्टाचार की विकराल समस्या व्याप्त है। संसार को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले जगद्गुरु भारत की यह दुर्दशा। आखिर कौन है जिम्मेदार इस मर्ज का ? भ्रष्टाचार रूपी मर्ज का आज तो यह हाल है कि ‘मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की’ अर्थात इस रोग का कोई उपचार क्यों नहीं है ? इसका कारण है कि यह रोग दूसरों से नहीं फैलता,बल्कि स्वयं अपने से फैलता है। हम सभी स्वयं में झाँककर देखें,क्या इसे पल्लवित और पुष्पित करने में हमारा योगदान नहीं है ? समाज में हम रहते हैं और समाज में ही भ्रष्टाचार व्याप्त है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप-आज हमारे समाज का कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। राजनीति का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, चिकित्सा का क्षेत्र हो, धर्म का क्षेत्र हो, सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है।

राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-आज शुद्ध और सात्विक राजनीति की तो कल्पना करना भी दुष्कर है। राजनीति में आते ही नेता अपनी-अपनी पीढ़ी-दर-पीढ़ी की आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था करने लगते हैं। जनता की परिश्रम की कमाई उनके बैंक-बैलेंस का वजन बढ़ाती है। राजनेता देश के दलाल हो गये हैं। उनका वश चले तो वे अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए देश को ही. बेच डालें। बोफोर्स काण्ड, किट्स काण्ड, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, हवाला काण्ड आदि तो अत्यन्त छोटे उदाहरण हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-शिक्षार्थी हो या शिक्षक; आज सभी शिक्षा माफियाओं के शिकार हो रहे हैं। शिक्षा माफिया ‘पैसे दो और डिग्री लो’, पैसे दो और एडमिशन लो’, ‘पैसे दो और नौकरी लो’ आदि के व्यवसाय में लगा हुआ है। उसे न देश के भविष्य की चिन्ता है,न छात्र के जीवन की। नकल की व्यवस्था कराकर अनपढ़ पीढ़ी की उपज बढ़ाने वाले ये लोग देश के सबसे खतरनाक दुश्मन हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-आज का डॉक्टर या चिकित्सक जिसे लोग भगवान कहकर पूजते हैं, अपना ईमान-धर्म खोकर येन-केन प्रकारेण मोटी कमाई के चक्कर में फंस गया है। दवा बनाने वाली कम्पनियाँ नकली दवा बनाकर मरीजों के प्राणों से खेल रही हैं, तो कहीं नर्सिंग होम से नवजात शिशुओं का व्यापार हो रहा है। आये दिन नवजात शिशुओं को अपहरण कर दूसरों को बेच देने का धंधा जोरों पर है। इतना ही नहीं मानव अंगों की तस्करी भी आज एक बड़े व्यापार के रूप में फल-फूल रही है।

धर्म के क्षेत्र में भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार के दल-दल में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है,जो डूबा न हो। कथित धर्म-गुरुओं ने तो दूसरों के कष्ट, क्लेशों को दूर करने का लाइसेंस ले लिया है। धर्मभीरू जनता इनकी सेवा में लाखों रुपये लुटाती है। ये धर्म की आड़ में लूटते हैं और जनता पुण्य कमाने के लिए लुटती है। आज कथित गुरुओं के आश्रम कई-कई एकड़ जमीन में फैले हुए हैं। जैसे राजसिक वैभव इनके यहाँ उपलब्ध हैं,वह सामान्य जनता के नसीब में कहाँ ?

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उपसंहार-विहंगम दृष्टि डालकर हम यही पाते हैं कि समाज का कोई कोना भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता जहाँ भ्रष्टाचार रूपी राक्षस ने अपना पंजा न फैला रखा हो। इतना होने पर भी इसके जिम्मेदार भी हम ही हैं। यदि हम अपने विवेक चक्षुओं को खोलकर, कानून का सहारा लेकर इसका मुकाबला करें तो ऐसी बात नहीं है कि यह राक्षस समाप्त नहीं किया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि हम इसके विरुद्ध आवाज उठाएँ,संगठित हों और किसी कार्य को अनैतिक रूप से न करें। यदि हम किसी को रिश्वत देना न चाहें, तो कोई हमसे ले नहीं सकता, यदि हम बिना परिश्रम अपने बच्चे को डिग्री न खरीदवाएँ तो भी हमें कोई रोक नहीं सकता। सच तो यह है कि बेचने वाले वे हैं और खरीदने वाले हम, तो इस प्रकार भ्रष्टाचार में हम सभी तो सम्मिलित हो गये। यदि हम खरीदें ही नहीं, तो वे बेचेंगे किसे ? इसलिए भ्रष्टाचार की जड़ को समाप्त करने के लिए पहले हमें स्वयं संयम रखना होगा, तभी इसे दूर किया जा सकता है। कहा भी गया है कि

“अपना-अपना करो सुधार।
तभी मिटेगा भ्रष्टाचार॥”

21.साहित्य और समाज [2014]
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण है

“अन्धकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है,
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध,
  • साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  • समाज का साहित्य पर प्रभाव,
  • हिन्दी साहित्य और समाज,
  • समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान,
  • उपसंहार।।

प्रस्तावना-मानव अपनी जीवन-यात्रा को सुखद तथा आनन्दमय बनाने का प्रारम्भ से ही आकांक्षी रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसने वीणा के तारों को झंकृत किया है। कोर पाषाण को तराश कर आकर्षक तथा भव्य मूर्तियों का निर्माण किया है। शब्दों को साकार रूप प्रदान करके भाषा का सृजन किया है। कलाएँ मानव की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। साहित्य भी कला की श्रेणी में आता है।

जिस प्रकार सूर्य की किरणों से जगत में प्रकाश फैलता है उसी प्रकार साहित्य के आलोक से समाज में चेतना का संचार होता है। साहित्य ही अज्ञान के अन्धकार को मिटाकर समाज का मार्गदर्शन करता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास का कथन सत्य है कि, “सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव-सामग्री निकालकर समाज को सौंपता है, उसी के संचित भण्डार का नाम
साहित्य है।”

साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध–साहित्य और समाज एक-दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। साहित्य में मानव समाज के भाव निहित होते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने साहित्य को ‘समाज का दीपक’, कुछ ने साहित्य को ‘समाज का मस्तिष्क’ और कुछ ने साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ माना है। वास्तव में, समाज की प्रबल एवं वेगवती मनोवृत्तियों की झलक साहित्य में दिखायी पड़ती है। विश्व के महान् साहित्यकारों ने अपने-अपने समाज का सच्चा स्वरूप अंकित किया है। यूरोप के गोर्की और भारत के प्रेमचन्द का साहित्य इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन साहित्यकारों की रचनाएँ अपने समय के समाज का सच्चा प्रतिनिधित्व करती हैं।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-किसी भी काल का समाज साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साहित्य पर आश्रित रहना पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य समाज के स्वरूप में परिवर्तन कर देता है। मुगल शासकों के अत्याचारों से पीड़ित हिन्दू जनता को भक्त कवियों के साहित्य ने ही सद्मार्ग का अवलोकन कराया। शिवाजी की तलवार भूषण के छन्दों को सुनकर झनझना उठती थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि “साहित्य में जो शक्ति छिपी है वह तोप, तलवार और बम के गोले में नहीं पायी जाती।”

समाज का साहित्य पर प्रभाव-समाज का प्रभाव ग्रहण किये बिना सच्चे साहित्य की रचना असम्भव है। साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है इसीलिए वह अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का अंकन भविष्य के दिशा-निर्देश के लिए करता है। साहित्य मे समाज की समस्याएँ और उनके समाधान निहित रहते हैं। अतः साहित्य और समाज दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सामाजिक परम्पराएँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। साहित्यकार भी समाज का प्राणी है, अतः वह इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता है ! वह अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होने के कारण समाज की परिस्थितियों से अधिक प्रभावित होता है। वह जो कुछ समाज में देखता है, उसी को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार साहित्य समाज से प्रभावित होता ही है।

हिन्दी साहित्य और समाज-हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह बात स्वयं पुष्ट हो जाती है। वीरगाथा काल का वातावरण युद्ध एवं अशान्ति का था। वीरता प्रदर्शन में ही जीवन का महत्व था। उक्ति प्रसिद्ध है ‘जा घर देखी सुघढ़ महरिया ता घर धरयो बरौगा जाइ’ उस युग के वातावरण के अनुकूल ही उस समय के चारण कवियों ने काव्य रचना की है। भक्तिकाल में विदेशी शासन में दबे भारतीय समाज को शान्ति तथा प्रगति का रास्ता दिखाने का प्रयास सन्त तथा भक्त कवियों ने किया। उन्होंने समाज में चेतना का संचार किया। रीतिकाल में दरबारों की विलासिता का प्रभाव साहित्य पर पड़ा। कवियों ने नायक-नायिकाओं की विविध क्रीड़ा-कलापों का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया।

आधुनिक काल में नव-चेतना संचार हुआ। राष्ट्रीयता की लहर व्याप्त हुई। स्वदेश प्रेम का भाव उमड़ पड़ा। समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप मार्ग-दर्शन का कार्य साहित्य ने किया। मैथिलीशरण गुप्त ने भविष्य का निर्देश देते हुए लिखा-

“हो रहा है जो जहाँ, वह हो रहा, यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?
किन्तु होना चाहिए कब क्या, कहाँ व्यक्त करती है कला ही वह, यहाँ।”

समाज के उत्थान में साहित्य का योगदान-जीवन में साहित्य की उपयोगिता अनिवार्य है। साहित्य मानव जीवन को वाणी देने के साथ-साथ समाज का पथ-प्रदर्शन भी करता है। साहित्य मानव-जीवन के अतीत का ज्ञान कराता है, वर्तमान का चित्रण करता है और भविष्य निर्माण की प्रेरणा देता है। साहित्यिक रचना का महत्त्व स्थायी होता है। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपीयर आदि की साहित्यिक कृतियों से आज भी मानव जीवन प्रेरणा ले रहा है और भविष्य में भी लेता रहेगा। विभिन्न जातियों के आगमन से मानव के धर्म एवं संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव भी साहित्य के माध्यम से जाने जा सकते हैं।

उपसंहार-निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है जो साहित्य धरती से जुड़ा हुआ नहीं होता है वह सनातन तथा लोक मंगलकारी नहीं हो सकता है। साहित्यकार किसी देश विशेष की सीमा से आबद्ध नहीं होता वह सम्पूर्ण मानव-मात्र का हित-साधक होता है। आदर्श साहित्य मानव-मन को आलोकित करता है। सद्गुणों का विकास करके असत् वृत्तियों का उच्छेदन करता है। साहित्य मानव की रुचि का पूर्णतः परिष्कार करके उसमें निरन्तर उदात्त मनोवृत्तियों को जाग्रत करता है। जब साहित्य का पतन होने लगता है तब समाज भी रसातल को चला जाता है। इस प्रकार साहित्य समाज के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है।

22. इण्टरनेट : आधुनिक जीवन की आवश्यकता [2017]

“विज्ञान का एक और विलक्षण, वरदान है ‘इण्टरनेट’।
खोजिए जानकारी, पाइए ज्ञान और कीजिए ‘चैट’।”

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • आखिर क्या है इण्टरनेट?,
  • इण्टरनेट के लाभ,
  • वर्तमान युग और इण्टरनेट,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-एक समय था जब न तो यातायात के पर्याप्त साधन थे और न ही संचार की उन्नत सुविधाएँ ही मौजूद थीं। तब व्यक्ति को पड़ोसी नगर अथवा गाँव तक के समाचार प्राप्त नहीं हो पाते थे, देश-विदेश के सम्बन्ध में जानकारी तो दूर की कौड़ी थी। परन्तु जैसे-जैसे सभ्यता का विकास और प्रसार होता गया, वैसे-वैसे विभिन्न जादुई वैज्ञानिक उपादानों ने ईश्वर की बनाई इस दुनिया को बहुत छोटा कर दिया। रेल, हवाई जहाज,रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन, कम्प्यूटर इत्यादि उपकरणों की सहायता से पूरा विश्व घर के ‘ड्राइंग रूम’ में सिमट गया। कम्प्यूटर के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक उसकी उपयोगिता में सर्वाधिक वृद्धि तब हुई जब उस पर ‘इण्टरनेट’ सेवा बहाल की गई।

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आखिर क्या है इण्टरनेट-इण्टरनेट पूरे विश्व में फैले कम्प्यूटरों का नेटवर्क है। इण्टरनेट पर कम्प्यूटर के माध्यम से सारे संसार की जानकारी पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में, इण्टरनेट एक ऐसी अत्याधुनिक संचार प्रौद्योगिकी है जिसमें अनगिनत कम्प्यूटर एक नेटवर्क से जुड़े होते हैं। इण्टरनेट न कोई सॉफ्टवेयर है,न कोई प्रोग्राम अपितु यह तो एक ऐसी युक्ति है जहाँ अनेक सूचनाएँ तथा जानकारियाँ उपकरणों की सहायता से मिलती हैं। इण्टरनेट के माध्यम से मिलने वाली सूचनाओं में विश्वभर के व्यक्तियों और संगठनों का सहयोग रहता है। उन्हें ‘नेटवर्क ऑफ सर्वर्स’ (सेवकों का नेटवर्क) कहा जाता है। यह एक वर्ल्ड वाइड वेव (w.w.w.) है जो हजारों सर्वर्स को जोड़ता है।

इण्टरनेट के लाभ-इण्टरनेट के द्वारा विभिन्न प्रकार के दस्तावेज, सूची, विज्ञापन, समाचार,सूचनाएँ आदि सरलता से उपलब्ध हो जाती हैं। ये सूचनाएँ संसार में कहीं पर भी प्राप्त की जा सकती हैं। पुस्तकों में लिखे विषय, समाचार-पत्र,संगीत आदि सभी इण्टरनेट के माध्यम से प्राप्त किये जाते हैं। संसार के किसी भी कोने से कहीं पर भी सूचना प्राप्त की जा सकती है और भेजी जा सकती है। हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, औद्योगिक, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में इण्टरनेट उपयोगी है।

वर्ततान युग और इण्टरनेट त्वरित सूचना के इस युग में इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा,स्वास्थ्य, यात्रा,पंजीकरण,आवेदन आदि सभी कार्यों में इण्टरनेट सहयोगी है। पढ़ने वाली दुर्लभ पुस्तकों को संसार के किसी भी कोने में पढ़ा जा सकता है। स्वास्थ्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारियाँ इण्टरनेट पर उपलब्ध हैं। इण्टरनेट के द्वारा संसार के किसी भी विशिष्ट व्यक्ति के विषय में जाना जा सकता है। सभी प्रकार के टिकट घर बैठे इण्टरनेट से प्राप्त किये जा सकते हैं। दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने वाला इण्टरनेट आज के जीवन की अनिवार्यता बन गया है।

उपसंहार-समाज के प्रत्येक वर्ग में इण्टरनेट की बढ़ती स्वीकार्यता इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस युक्ति ने मानव-जीवन में चमत्कार-सा कर दिया है। किन्तु जैसा कि हम जानते हैं हर अच्छी बात में कोई-न-कोई बुरी बात भी छुपी होती है। वह बुरा पक्ष व्यक्ति विशेष द्वारा उपलब्ध युक्ति का दुरुपयोग करने पर सामने आता है। इण्टरनेट का दुरुपयोग करने वालों ने इस अनूठी सुविधा का भी स्याह पक्ष सामने ला खड़ा किया है। आज इण्टरनेट पर अश्लील वेबसाइट्स की बाढ़-सी आ गई है। सबसे खतरनाक तथ्य है कि ऐसी ‘साइट्स’ अब किशोरों तक की पहुँच में आ गई हैं। इससे भावी पीढ़ी के नैतिक एवं शारीरिक पतन का खतरा मँडराने लगा है। हमें इस समस्या से मुक्ति के लिए तत्काल प्रभावी उपाय करने होंगे ताकि बहुपयोगी ‘इण्टरनेट’ का श्वेत पक्ष मानव कल्याण में सहायक सिद्ध हो सके।

23. जनसंख्या वृद्धि [2018]

रूपरेखा-

  • प्रस्तावना,
  • जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ,
  • अभाव की स्थिति,
  • जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव,
  • समस्या का समाधान,
  • उपसंहार।

प्रस्तावना-आज विश्व के सामने अनेक छोटी-छोटी समस्याएँ हैं। प्रत्येक देश उनके समाधान के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयासरत है। भारत में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण हमारी उन्नति और प्रगति की सारी योजनाएँ विफल होती जा रही हैं, परन्तु विडम्बना है कि कोई इतनी गम्भीर समस्या को समस्या मानने को तैयार नहीं वरन् उसे सम्पन्नता का प्रतीक मान बैठे हैं और ईश्वर द्वारा प्रदत्त उपहार मान बैठे हैं।

जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ-जनसंख्या वृद्धि की एक समस्या अनेक अन्य समस्याओं को जन्म देती है। हर किसी की मुख्य आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा एवं मकान। आज हमारे देश में लाखों लोगों को भरपेट रोटी नहीं मिलती, तन ढकने को. कपड़े नहीं मिलते और वे बिना घर-बार के खुले आसमान के नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं।

अभाव की स्थिति स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत तीव्र गति से कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में विकास के पथ पर अग्रसर हुआ। हर क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई। आज कृषि योग्य देश की लगभग सारी भूमि पर खेती हो रही है। हम अपनी दैनिक आवश्यकता की सभी वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में प्रचुर मात्रा में करने लगे हैं। फिर भी हम अपने देश में आवश्यक वस्तुओं की कमी पूरी नहीं कर सके। जीवन के लिए परम आवश्यक वस्तुओं की खरीद एवं बिक्री पर भी सरकार को प्रतिबन्ध लगाना पड़ता है। आज हम पहले की तुलना में कई गुना अधिक निर्यात कर रहे हैं, फिर भी हमारे देश की गिनती अविकसित देशों में की जाती है। हमें अपने विकास कार्यों के लिए दूसरों से कर्ज लेना पड़ रहा है।

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